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जब किसानों के ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ आंदोलन के आगे झुके अंग्रेज़, वापस लेना पड़ा कृषि कानून

Farm Laws in India

साल 1907 में अंग्रेज सरकार तीन किसान विरोधी कानून (Farm Laws in India) लेकर आई थी, जिसके खिलाफ़ देशभर के किसानों ने नाराजगी जताई। सबसे ज्यादा विरोध पंजाब में हुआ और सरदार अजीत सिंह ने आगे बढ़कर इस विरोध को सुर दिया था। एक साल के दौरान ही, अजीत सिंह के भाषणों की गूंज अंग्रेजी हुकुमत के कानों में चुभने लगी थी और वे इन तीनों कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर हो गए। तो आइए जानते हैं, कौन थे अंग्रेजों को मजबूर करने वाले सरदार अजीत सिंह?

कर्ज के बोझ तले दबे किसान

20वीं शताब्दी की शुरुआत के समय ब्रिटिश शासन के खिलाफ, अविभाजित पंजाब में किसानों के आंदोलन तेज़ होने लगे थे। स्थानीय कृषि अर्थव्यवस्था तेजी से गिर रही थी और ग्रामीण क्षेत्र के अधिकांश किसान कर्ज में डूबे हुए थे। उनकी स्थिति काफी दयनीय थी। सन् 1904 में पंजाब में तैनात ब्रिटिश सिविल सेवक मैल्कम लॉयल डार्लिंग के अनुसार, “पंजाब के अधिकांश किसान कर्ज में पैदा हुए थे, ताउम्र कर्ज में जीते रहे और कर्ज में ही मर गए।”

पंजाब के किसानों पर भारी कर्ज के बोझ के कई कारण थे, जैसे- एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आते-आते ज़मीन का टुकड़ों में बंट जाना, समय-समय पर कई सालों तक (1860-61, 1867-78, 1896-97 और 1899-1901) अकाल का पड़ना, अंग्रेजों की अधिक राजस्व की मांग आदि। इन समस्याओं ने उन्हें स्थानीय साहूकारों से अधिक उधार लेने के लिए मजबूर कर दिया था। 

अर्थशास्त्री डीआर गाडगिल, हालांकि, एक अन्य कारण की ओर भी इशारा करते हैं- सन् 1861 में अमेरिका में गृहयुद्ध फैलने के कारण इंग्लैंड में भारतीय कपास की अचानक से मांग का बढ़ना।

हालांकि, इससे किसानों को थोड़े समय के लिए तो फायदा हुआ, लेकिन किसानों पर कर्ज बढ़ना भी शुरू हो गया। क्योंकि साहूकारों ने किसानों को, उनकी जमीन या अन्य संपत्तियों को गिरवी रखकर पैसा उधार देना शुरू कर दिया। नतीजतन, बड़े पैमाने पर इस संकट की वजह से ज़मीनें बेचनी पड़ीं।

दोआब नहर के निर्माण और प्लेग ने बढ़ाया कृषि संकट

Hero of Farmer’s Protest

वर्ष 1879 में ‘अपर बारी दोआब नहर’ का निर्माण भी इस कहानी के लिए एक अन्य महत्वपूर्ण घटना थी। एक पंजाबी पत्रकार और लेखक अमनदीप संधू ने साल 2019 में अपनी किताब ‘पंजाब: जर्नी थ्रू फॉल्ट लाइन्स’ में लिखा हैः-

“1879 में, अंग्रेजों ने चिनाब नदी से पानी खींचने के लिए अपर बारी दोआब नहर का निर्माण कराया था। वीरान क्षेत्रों में बस्तियां बसाने के लिए इसे लायलपुर (जो अब पाकिस्तान में है और इसका नाम बदलकर फैसलाबाद हो गया है) तक ले गए। सरकार ने कई सुविधाओं के साथ मुफ्त जमीन आवंटित करने का वादा करते हुए जालंधर, अमृतसर और होशियारपुर के किसानों और पूर्व सैनिकों को वहां बसने के लिए तैयार कर लिया था। इन जिलों के किसानों ने अपनी जमीन और संपत्ति को वहीं छोड़ दिया और  नए इलाकों में जाकर बस गए। उन्होंने इस बंजर भूमि को खेती के योग्य बनाने के लिए कड़ी मेहनत की थी।”

कृषि संकट को बढ़ाने में प्लेग ने भी एक बड़ा रोल अदा किया था। प्लेग ने पंजाब में पहली बार साल 1897 में अपना पांव पसारना शुरू किया था। 1907 तक आते-आते प्लेग की वजह से पंजाब में म़त्युदर 62.1 प्रति हजार (निवासियों) तक पहुंच गई थी। लोगों में इसे लेकर एक अंधविश्वास भी था। उनके अनुसार, अंग्रेज अपने साथ प्लेग लेकर आए थे। इस विनाशकारी बीमारी की रोकथाम के लिए औपनिवेशिक सरकार ने कुछ नहीं किया। ऐसी स्थिति में भी अंग्रेजों ने भू-राजस्व छोड़ने के बजाय इसे बढ़ाना जारी रखा।

और रही सही कसर उन तीन कानूनों (Farm Laws in India) ने पूरी कर दी, जिन्हें औपनिवेशिक प्रशासन पारित करने की फिराक में था – पंजाब भूमि अलगाव अधिनियम 1900, पंजाब भूमि उपनिवेश अधिनियम 1906 और बारी दोआब नहर अधिनियम 1907।

क्या थे वे तीन विवादास्पद कानून?

अमनदीप संधू बताते हैं, “इन कानूनों ने किसानों को बटाईदार बना दिया था। इसका मकसद किसानों की जमीनों को हड़पकर बड़े साहुकारों के हाथ में देना था। इस कानून (Farm Laws in India) के मुताबिक किसान अपनी जमीन से पेड़ तक नहीं काट सकते थे, न घर या झोंपड़ी बना सकते थे और न ही ऐसी जमीन को बेच या खरीद सकते थे। अगर कोई किसान, सरकार के फरमान की अवहेलना करने की हिम्मत करता, तो उसे जमीन से बेदखल करने की सजा दी जा सकती थी। 1907 में, लायलपुर में भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह संधू ने किसानों के असंतोष को व्यक्त करने वाले आंदोलन का नेतृत्व किया।” 

पंजाब भूमि औपनिवेशीकरण विधेयक में वसीयत द्वारा संपत्ति के हस्तांतरण पर रोक लगाई गई थी।

इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस में प्रकाशित एक पत्र में स्कॉलर सविंदर पाल ने लिखा था, “भविष्य में ज़मीन, केवल किसान के बड़े बेटे के नाम पर ही चढ़ सकती थी। अगर बेटे की मौत हो जाती, तो उसे किसान की विधवा के नाम पर हस्तांतरित किया जा सकता था। लेकिन कोई कानूनी उत्तराधिकारी नहीं होने पर, जमीन अंग्रेजी शासन या रियासत के हाथों में चली जाती। तब सरकार इसे किसी भी सार्वजनिक या निजी डेवलपर को बेच सकती थी। ऐसे मामलों में अदालतों के पास भी कोई अधिकार क्षेत्र नहीं होता। कानूनी मदद के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी गई थी। 

आग में घी डालने का काम भू-राजस्व और जल कर में बढ़ोतरी ने कर दिया था। नहर कॉलोनीज़ विधेयक 1907 के तहत अंग्रेजों ने अपर बारी दोआब नहर से सिंचाई वाली जमीनों के लगान को भी दोगुना कर दिया।

पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन’ की शुरुआत

मार्च 1907 में पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन की शुरुआत हुई थी। इस आंदोलन के जरिए सरदार अजीत सिंह और लाला लाजपत राय जैसे किसान नेता, आंदोलनकारी और स्वतंत्रता संग्राम के दिग्गजों की टोली ने इन कानूनों का विरोध किया था। जिनके आगे अंग्रेज, घुटने टेकने के लिए मजबूर हो गए थे। 

22 मार्च 1907 को लायलपुर में एक जनसभा में, झांग स्याल नामक एक स्थानीय प्रकाशन के संपादक लाला बांके दयाल ने पगड़ी संभाल जट्टा नामक कविता पढ़ी थी। उस कविता के नाम पर ही आंदोलन का नाम पड़ा। दरअसल, पगड़ी सिखों की आस्था के साथ जुड़ी हुई है और इसे अत्याचार के खिलाफ असंतोष के प्रतीक के रूप में देखा जा रहा था। पगड़ी का गिरना हारने की निशानी होगी, इसलिए इसे गिरने से बचाना था। 

20वीं शताब्दी में अशांति की सुगबुगाहट शुरु हो गई थी। इसे देखते हुए अजीत सिंह, किशन सिंह (भगत सिंह के पिता) और उनके मित्र घसीटा राम ने ‘भारत माता सोसाइटी’ की स्थापना की, जिसे वैकल्पिक रूप से ‘महबूब-ए-वतन’ कहा जाता था। इसका एकमात्र और अंतिम उद्देश्य ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकना था। पंजाब के एक किसान परिवार से आने वाले अजीत, अपने साथी किसानों की परेशानियों से अच्छी तरह वाकिफ थे।

पहले खुद कानूनों को अच्छे से समझा

आंदोलन को यूं ही नहीं शुरु किया गया था। आंदोलन शुरू करने से पहले, अजीत सिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों बांके दयाल, लाल चंद फलक, जिया उल-हक, किशन सिंह, पिंडी दास, मेहता आनंद किशोर, सूफी अंबा प्रसाद और स्वर्ण सिंह ने इन बिलों को विस्तार से पढ़ा और तीनों कानूनों को गहराई से जाना। 

अजीत सिंह अपनी आत्मकथा ‘बरीड अलाइव’ में लिखते हैं, “हमने कानूनों का विस्तार से अध्ययन किया और किसानों को इनसे होने वाले नुकसान से अच्छी तरह वाकिफ कराया।” इस कानूनों से लोगों को अवगत कराने के लिए भारत माता सोसाइटी ने पूरे लाहौर में बैठकें आयोजित कीं। दरअसल, जो लोग कृषि कानूनों के बारे में अधिक जानना चाहते थे। हर रविवार को उन्हें शहर के मंदिर में बुलाया जाता था। इन सभाओं में हजारों की भीड़ उमड़कर आती थी।

जब लोग ढंग से इन कानूनों के बारे में जान गए, तो अजीत सिंह और उनके आंदोलनकारियों की टीम ने लाहौर, मुल्तान, लायलपुर, अमृतसर, गुजरांवाला, रावलपिंडी और बटाला सहित प्रभावित क्षेत्रों में सुबह से शाम तक कई जनसभाएं आयोजित कीं। इन बैठकों में, वे साथी किसानों को समझाते थे कि इन कानूनों से, उन्हें क्या नुकसान होगा और पानी की बढ़ी हुई दरों का भुगतान न करने के लिए भी कहा। इसमें आर्य समाज ने भी उनकी काफी मदद की थी। 

लायलपुर बना आंदोलन का केंद्र

यह ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि सन् 1907 के इस आंदोलन का केंद्र लायलपुर (अब पाकिस्तान में) था। जैसा कि अजीत सिंह ने लिखा है, “मैंने लायलपुर जिले को अपने आंदोलन के केंद्र के रूप में इसलिए चुना, क्योंकि यह लगभग पूरी तरह से एक विकसित इलाका था। यहां पंजाब के लगभग सभी हिस्सों के लोग रहते थे। सेना से रिटायर अधिकारी और सैनिक भी काफी संख्या में थे। सेना से रिटायर लोग और उनके विचार सेना के अंदर विद्रोह की चिंगारी जगाने में मदद कर सकते थे।”

यह बात साफ है कि अजीत सिंह जैसे लोगों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ बड़े साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के लिए किसानों के विद्रोह को एक प्रेरणा के रूप में देखा था। अजीत की जीवनी में एक दिलचस्प किस्सा है कि कैसे शुरू में लाला लाजपत राय लायलपुर में एक जनसभा को संबोधित करने में झिझक रहे थे। उन्हें संदेह था कि यह आंदोलन सिर्फ कृषि कानूनों तक ही सीमित है।

अजीत ने लिखा, “लाला जी सभा को संबोधित करने में हिचकिचा रहे थे। लेकिन लोग चिल्ला रहे थे कि वे लाला जी की बात सुनने के लिए उत्सुक हैं। जनता के उत्साह को देखकर, उन्होंने एक बड़ा ही भावपूर्ण और जोशीला भाषण दिया।”

चिनाब से झेलम तक फैल गया आंदोलन

अजीत सिंह के भतीजे,  भगत सिंह ने 1931 में एक लोकल डेली पीपल में प्रकाशित एक लेख में 3 मार्च 1907 को आयोजित एक जनसभा का उल्लेख किया था। उन्होंने लिखा था, “इस बैठक से ठीक पहले, लाला जी ने अजीत सिंह से कहा था कि सरकार ने कॉलोनी अधिनियम में कुछ संशोधन किए हैं। सभा में, इस संशोधन के लिए सरकार को धन्यवाद देते हुए, हमें सरकार से पूरे कानून को रद्द करने का अनुरोध करना चाहिए। हालांकि, अजीत सिंह ने लाला जी को स्पष्ट कर दिया था कि बैठक का एजेंडा जनता को कृषि कर का भुगतान बंद करने के लिए प्रेरित करना था।

नीलाद्रि भट्टाचार्य ने ‘द ग्रेट एग्रेरियन कॉन्क्वेस्ट: द कॉलोनियल रिशेपिंग ऑफ ए रूरल वर्ल्ड’ में लिखा है, “मार्च के अंत तक, आंदोलन चिनाब से झेलम तक फैल गया था। लाला लाजपत राय और अजीत सिंह जैसे नेताओं ने बैठकों को संबोधित किया, ग्रामीण इलाकों का दौरा किया। वे नहर कालोनियों में आंदोलन को व्यापक साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में एकीकृत करने की कोशिश कर रहे थे।”

लॉर्ड जॉन मॉरेले, उस समय भारत के राज्य सचिव थे। ब्रिटिश संसद से बात करते हुए उन्होंने कहा कि मार्च और मई 1907 के बीच, पंजाब में 33 सार्वजनिक बैठकें हुई थीं। इनमें से 19 में अजीत सिंह मुख्य वक्ता थे। वह एक ऐसे शक्तिशाली वक्ता थे, जिन्होंने इन बैठकों में भाग लेने वाले हर भारतीय के दिल और दिमाग में वास्तविक जुनून पैदा कर दिया था। 

देशद्रोह का आरोप लगाकर जेल में डाला

एक साल के दौरान, अजीत सिंह के भाषण की गूंज अंग्रेजी हुकूमत के कानों में चुभने लगी थी। अंग्रेजी सरकार अजीत सिंह को शांत कराने का मौका तलाश रही थी और यह मौका उन्हें 21 अप्रैल 1907 को मिल गया। दरअसल, 21 अप्रैल 1907 को दिए गए उनके सार्वजनिक भाषण में उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों को परेशानी में डाल दिया था। उन्होंने इस बैठक में कहा थाः-

“साल 1858 में की गई घोषणा में, हमसे किए गए वादे कभी पूरे नहीं हुए। शासकों को झूठ नहीं बोलना चाहिए। भारतीयों को भूखा रखने के उद्देश्य से शासकों ने अपने फायदे के लिए भू-राजस्व को चार से छह गुना बढ़ा दिया है। बदतर हालातों में जीते रहो, लेकिन कुछ मत कहो या फिर प्लेग से मर जाओ। अपने देश के लिए मरो। 29 करोड़ भारतीयों की तुलना में डेढ़ लाख युरोपियन कुछ भी नहीं हैं। हालांकि, उनके पास बंदूकें, राइफल और अन्य हथियार हैं, फिर भी हम उन्हें चंद मिनटों में खत्म कर देंगे। भगवान हमारी रक्षा करने के लिए आएंगे।”

उनके दिए गए भाषण को अंग्रेजी सरकार ने बागी और देशद्रोही भाषण बताया। उन पर केस दर्ज किया गया। 9 मई को लाला लाजपत राय और 2 जून को अजीत सिंह को गिरफ्तार कर बर्मा की मांडले जेल में डाल दिया गया। हालांकि आंदोलन का असर यह रहा कि अंग्रेजी सरकार ने तीनों कानूनों (Farm Laws in India) को वापस ले लिया और दोनों को छह महीने बाद 11 नवंबर 1907 को रिहा कर दिया गया था।

क्यों वापस लेने पड़े तीनों कानून?

Memorial of Sardar Ajit Singh, who led farmers’ protests in 1907, in Dalhousie

सेंटर फॉर विमेन डेवलपमेंट स्टडीज़, नई दिल्ली की पूर्व निदेशक प्रोफेसर इंदु अग्निहोत्री ने द वायर में लिखा है, “26 मई, 1907 को, भारत के वायसराय और गवर्नर जनरल लॉर्ड मिंटो ने, अक्टूबर में पंजाब विधान परिषद में पेश किए गए औपनिवेशीकरण विधेयक को वीटो का प्रयोग करके समाप्त कर दिया। यह पंजाब प्रांत में सबसे तीव्र लोकप्रिय किसान आंदोलन का ही नतीजा था। अंग्रेजो को पता था कि यह क्षेत्र सेना और पुलिस में भर्ती का गढ़ है। उन्हें आशंका हुई कि इस आंदोलन से बगावत शुरु हो सकती है। यहां तक कि इसने 1857 के विद्रोह की डरावनी यादें भी ताजा कर दी।” 

अजीत सिंह ने लिखा था, “रावलपिंडी, गुजरांवाला, लाहौर आदि में दंगे हुए। ब्रिटिश कर्मियों के साथ मारपीट की गई, उन पर कीचड़ उछाला गया, कार्यालयों और चर्चों को जला दिया गया, तार के खंभे और तार काट दिए गए। मुल्तान मंडल में, रेल कर्मचारी हड़ताल पर चले गए और हड़ताल तभी खत्म की गई, जब अधिनियम रद्द कर दिया गया। लाहौर में पुलिस अधीक्षक फिलिप्स को दंगाइयों ने पीटा। ब्रिटिश सिविल सेवकों ने अपने परिवारों को बॉम्बे भेजा और स्थिति खराब होने पर उन्हें इंग्लैंड ले जाने के लिए जहाजों को किराए पर लिया गया। कुछ परिवारों को तो किलों में स्थानांतरित कर दिया गया।”

डर गए थे लॉर्ड किचनर

अजीत सिंह ने आगे लिखा, “(जनरल) लॉर्ड किचनर डर गए थे। क्योंकि किसान विद्रोही हो रहे थे, सेना और पुलिस पर विश्वास करना मुश्किल था। भू-राजस्व में वृद्धि इस अशांति का कारण नहीं थी। यह आंदोलन भारत में ब्रिटिश शासन को खत्म करने के लिए शुरु किया गया था। इसे एक राजनीतिक स्टंट के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा था। इस सारे आंदोलन का नतीजा यह हुआ कि तीनों बिल रद्द कर दिए गए।”

सरदार अजीत सिंह 1909 में अंग्रेजों के अत्याचार से बचने के लिए देश छोड़कर चले गए। ईरान के रास्ते तुर्की, फ्रांस, स्विटजरलैंड, ब्राजील (जहां उन्होंने 18 साल बिताए) और स्विटजरलैंड में रहकर उन्होंने क्रांति का बीज बोया था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस से मिलने से पहले, अजीत सिंह ने इटली में 11,000 सैनिकों की टुकड़ी खड़ी कर दी और उसे नाम दिया ‘आजाद हिंद लश्कर’। आखिरकार, 7 मार्च 1947 को वह भारत लौट आए। प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें जर्मन जेल से रिहा कराने के लिए हस्तक्षेप किया था। 15 अगस्त 1947 की रात को नेहरू के ‘ट्रिस्ट ऑफ डेस्टिनी’ भाषण के कुछ घंटों बाद उनकी मृत्यु हो गई। 

मूल लेखः रिनचेन नोर्बु वांगचुक

संपादनः अर्चना दुबे

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