सेनापति बापट के नाम से मशहूर पांडुरंग महादेव बापट भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक महत्वपूर्ण व अविस्मरणीय कड़ी थे। 1921 में हुए ‘मूलशी सत्याग्रह’ का नेतृत्व करने के कारण उन्हें ‘सेनापति’ के नाम से जाना जाने लगा। सामाजिक वैज्ञानिक घनश्याम शाह की माने तो यह किसानों के जबरन विस्थापन के विरुद्ध ‘पहला व्यवस्थित संघर्ष’ था।
बापट का जन्म 12 नवम्बर 1880 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के परनेर शहर में एक निम्न मध्यम-वर्गीय चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ।
पुणे के डेक्कन कॉलेज में दाख़िला लेना उनके जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ क्योंकि यही वह जगह थी जहां इनकी मुलाक़ात उन दो व्यक्तियों से हुई, जिन्होंने बापट के मन में राष्ट्रवादी भावनाओं के बीज बोए थे। इन दो व्यक्तियों में से एक थे क्रांतिकारी चापेकर क्लब के सदस्य दामोदर बलवंत भिड़े और दूसरे ब्रिटिश प्रोफेसर फ्रांसिस विलियम बैन।
इसी समय पुणे में भयंकर प्लेग फैला। इस दौरान ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा किए गए अत्याचार, ब्रिटिश अधिकारी चार्ल्स रैंड की हत्या और शिव जयंती व गणेश चतुर्थी जैसे त्योहारों का राजनीतिकरण जैसी घटनाओं ने बापट की राष्ट्रवादिता को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1904 में, कॉलेज से निकलने के बाद बापट छात्रवृति पाकर एडिनबर्ग के हेरिओट वॉट कॉलेज में पढ़ने इंग्लैंड चले गए।
दादाभाई नौरोजी द्वारा लिखित ‘Poverty in India’ ने बापट को ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था के हो रहे शोषण से अवगत कराया। इसी समय उनका संपर्क कई प्रमुख ब्रिटिश समाजवादियों से भी हुआ और साथ ही वह कई रूसी क्रांतिकारियों से भी मिलें जिन्होंने उन्हें बोलशेविज़्म से परिचित कराया।
पर भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ दिये गए उत्तेजक भाषण और लंदन के इंडिया हाउस (उपनिवेशवाद विरोधी राजनीतिक गतिविधियों का तत्कालीन केंद्र) से जुड़े होने के कारण 1907 में उन्हें अपनी छात्रवृत्ति गवानी पड़ी।
जब वह भारत लौटे तो उनकी मुलाक़ात वी.डी सावरकर से हुई, जिनकी सलाह पर वह अपने रूसी सहयोगियों के साथ पेरिस चले गए और वहाँ विस्फोटक बनाने की तकनीक सीखी। बम बनाने की विधि सीख कर वह 1908 में ‘बम मैनुअल’ के साथ भारत वापस लौट आए, जिसे देश भर के क्रांतिकारियों में गुप्त रूप से दो रिवॉल्वर के साथ बांटा गया।
हालांकि अंग्रेजों के विरुद्ध देशव्यापी सशस्त्र विरोध इनका लक्ष्य बना रहा पर यह संभव नहीं हो पाया। कुछ व्यक्तिगत आतंकवादी कार्य ज़रूर किए गए पर इसे अंग्रेजों द्वारा बड़ी आसानी से कुचल दिया जाता रहा। अलिपोड़ बम परीक्षण इसका उदाहरण है।
बंगाल में चाँदनगर के मेयर की हत्या के असफल प्रयास के बाद कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया जाने लगा। ऐसे में बापट दो सालों के लिए भूमिगत हो गए। आखिरकार 1912 में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
पर उनके विरुद्ध पर्याप्त सबूत न मिलने के कारण 1915 में उन्हें रिहा कर दिया गया।
इतिहासकार रिचर्ड कैशमैन के अनुसार बापट तब तक एक ‘अनुभवी क्रांतिकारी’ बन चुके थे। पर तब तक हिन्दू धर्म में भी उनका विश्वास बढ़ चुका था, जिससे आगे चलकर गाँधीवाद को अपनाना उनके लिए आसान हो गया।
जेल से रिहा होने के बाद, वह बाल गंगाधर तिलक के साथ मिलकर पुणे में स्वतंत्रता के लिए स्थानीय समर्थन जुटाने में लग गए ।
1920 तक, उन्होंने गाँधी के ‘स्वराज’ के दृष्टिकोण को अपना लिया था। इसी के अगले साल विश्व के पहले बांध विरोधी आंदोलन ‘मूलशी सत्याग्रह’ का इन्होंने नेतृत्व किया।
माधव गाड़गिल व रामचंद्र गुहा ने ‘ईकोलोजी एंड इक्विटि : द यूज़ एंड एब्युज ऑफ नेचर इन कोंटेम्पोररी इंडिया (Ecology and Equity: The Use and Abuse of Nature in Contemporary India) में लिखा है,
“शुरुआत में टाटा कंपनी बिना किसी कानूनी औपचारिकता के किसानों की ज़मीन में घुस आई और वहाँ खुदाई शुरू कर दी। पर मूलशी, पूना (अब पुणे) के बहुत नज़दीक था और उस समय भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र भी था। इसलिए जब एक किसान ने अपनी ज़मीन पर खुदाई का विरोध किया और एक अँग्रेज़ अफ़सर ने उसे बंदूक दिखाई तब पूना में इसका मजबूत विरोध हुआ।”
उन्होंने आगे लिखा है, “ बांध का विरोध सुनिश्चित करने का नेतृत्व युवा कांग्रेसी नेता सेनापति बापट ने किया। बापट अपने अन्य साथियों के साथ बांध निर्माण को एक साल तक रोकने में सफल रहे। तभी बंबई सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया जिसके अनुसार टाटा मुआवजा देकर ज़मीन को ले सकती थी। अब इस बांध का विरोध दो हिस्सों में बंट गया। पुणे के ब्राह्मण जमींदार, जिनकी मूलशी घाटी में कई ज़मीनें थी, मुआवजा लेने को तैयार हो गए जबकि उन ज़मीनों पर किराया देने वाले व उनके नेता बापट इस बांध परियोजना के बिलकुल विरूद्ध थे।”
तीन साल तक चला यह विरोध पूर्णतः अहिंसात्मक था,पर बाद में इस निर्माण परियोजना पर उपद्रव मचाने के आरोप में बापट को गिरफ्तार कर लिया गया।
यह निर्माण कार्य पूरा हो गया; पर इसके साथ गाँधी के सत्याग्रह जैसे राजनीतिक सिद्धांतों को बढ़ावा तो मिला पर साथ ही, ‘शुद्ध सत्याग्रह’ जैसे सिद्धांतों का जन्म भी हुआ। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के बाद भी ये कई विचारों में गाँधी व काँग्रेस के नेताओं के विरोध में रहें।
इस दस्तावेज़ के अनुसार, “ शुद्ध सत्याग्रह न तो पूर्ण अहिंसा पर ज़ोर देता है न ही पूर्ण हिंसा पर। यह हिंसा की अनुमति तब देता है जब वांछित लक्ष्य अहिंसा के मूल्य की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण दिखे।”
मूलशी सत्याग्रह के लिए गिरफ्तार होने के बाद उन्हें 7 वर्ष जेल में काटने पड़े। 1931 में आखिरकार उन्हें रिहाई मिली।
इसके बाद मुंबई में सुभाष चन्द्र बोस द्वारा आयोजित एक आम सभा में शामिल होने के कारण बापट को तीसरी बार जेल जाना पड़ा। जहां यह सभा हुई थी, उस सड़क का नाम आगे चल कर ‘सेनापति बापट रोड’ रखा गया।
15 अगस्त 1947 को, पुणे में पहली बार तिरंगा फहराने का सौभाग्य बापट को मिला।
87 वर्ष की आयु में, 28 नवम्बर 1967 को बापट ने दुनिया से विदा ले ली। पर उनकी यादों को 1964 में प्रकाशित अमर चित्रा कथा ने जीवंत कर दिया। 1977 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया।
बापट अपने आप में एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के मालिक थे जिन पर किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष का प्रभाव नहीं था।
इस दस्तावेज़ के अनुसार , “हैदराबाद सत्याग्रह में शामिल होना , बोस की पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक के महाराष्ट्र की शाखा के अध्यक्ष पद को स्वीकार करना , गोवा के स्वतंत्रता आंदोलन में व संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में भाग लेना बापट के स्वच्छंद स्वभाव की पुष्टि करता है जिसे उन्होंने समय-समय पर दर्शाया है।”
संपादन – मानबी कटोच
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।
We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons: