30 सितंबर 1993, एक ऐसा दिन जिसने एक अच्छे-खासे शहर में तबाही मचा दी। हर तरफ बस चीख-पुकार और पुलिस व राहत-बचाव कार्यों के लिए दौड़ती गाड़ियों के सायरन से पूरा शहर गूंज उठा था। जी हां! वह 30 सितंबर का ही तो दिन था, जब सुबह 3:56 बजे, रिक्टर पैमाने पर 6.4 तीव्रता के भूकंप ने लातूर (Latur Earthquake) और उस्मानाबाद जिलों को धराशायी कर दिया और 9,748 लोगों की जान ले ली, वहीं 30,000 लोग घायल हो गए।
उस समय, लेफ्टिनेंट कर्नल सुमीत बक्सी केवल आठ महीने पहले ही भारतीय सेना में शामिल हुए थे। एक सेकेंड लेफ्टिनेंट और उनकी 8वीं बिहार रेजिमेंट को बचाव और राहत के लिए लातूर (Latur Earthquake) बुलाया गया था।
अपने कंपनी कमांडर के पहले बैच के पार्ट के तौर पर मेजर (अब एक सेवानिवृत्त कर्नल) जीजेएस गिल, दो दिनों तक की यात्रा करके उस इलाके तक पहुंचे।
चारों ओर उड़ रहे थे गिद्ध
लेफ्टिनेंट सुमीत बक्सी उस वक्त को याद करते हुए बताते हैं, “उस वक्त वहां एक भी इमारत खड़ा नहीं थी। भूकंप के झटके (Latur Earthquake) से सब कुछ तबाह हो गया था। जो जीवित थे वे रो रहे थे, एक खम्भे से दूसरे पोस्ट की ओर दौड़ रहे थे। उन्हें कुछ पता नहीं था कि उनके प्रियजन उन्हें जीवित मिलेंगे या किसी मलबे के नीचे दबे क्षत-विक्षत शव के रूप में। उन्होंने अपना सब कुछ खो दिया था – अपना घर, परिवार और यहां तक कि अपने मवेशी भी। चारों ओर गिद्ध उड़ रहे थे। इतनी बड़ी संख्या में हुई मौत की ख़बर और शवों की गंध वहां की हवाओं में घुल गई थी।”
अगले तीन दिन वहां के पुरुषों ने जानवरों और इंसानों के शवों को अलग-अलग निकालने और फिर उनका अंतिम संस्कार करने व उन्हें दफनाने में बिताया। तीसरे दिन से लाशें सड़ने लगी थीं। जब तक जिले के अधिकारियों ने व्यवस्था नहीं की, तब तक लोगों ने बिना दस्ताने और मास्क के, उन्हें अपने नंगे हाथों से उठाया।
कर्नल बक्सी ने बताया, “हम बहुत बूरी तरह से संक्रमण से ग्रस्त थे, लेकिन काम बंद नहीं किया जा सकता था। हममें से अधिकांश लोगों को कीड़ों ने काट लिया था और सड़ रहे शरीरों की बदबू हमारे नाखूनों से चिपकी हुई थी। वह बदबू इतनी तेज़ थी कि हम कई दिनों तक कुछ खा नहीं सके थे।”

एक दंपति जो अपने 18 महीने के बच्चे का लगाना चाहते थे पता
यह भूकंप (Latur Earthquake) के 108 घंटे बाद, पांचवें दिन की बात है, लेफ्टिनेंट बक्सी अपने जवानों के साथ शिविर में दोपहर का खाना खा रहे थे, तभी मंगरूल गांव के एक अधेड़ दंपति उनके पास पहुंचे।
उस व्यक्ति ने अपने आंखों में आंसू लिए, अपनी बदहवास पत्नी को संभालते हुए कहा, “सर, कृपया हमारी बेटी के शव को खोजने में हमारी मदद करें। हम सिर्फ उसका अंतिम संस्कार करना चाहते हैं।”
पांच टीमों ने घटनास्थल का दौरा किया, लेकिन शव नहीं मिला। दंपति का घर एक छोटी पहाड़ी के बेस पर था, जो सात अन्य घरों के मलबे के नीचे दब गया था और उसके ऊपर एक मंदिर टूटकर गिरा हुआ था। भूकंप (Latur Earthquake) के समय दंपति तो समय पर बाहर निकलने में कामयाब रहे, लेकिन उनकी 18 महीने की बेटी पिन्नी का कुछ पता नहीं चल रहा था।
भले ही उनके सहयोगियों ने जोर देकर कहा कि वह अपना लंच खत्म कर लें, लेकिन लेफ्टिनेंट बक्सी ने अपने गट फीलिंग के साथ जाने का फैसला किया। उन्हें, उस बच्ची के माता-पिता की आंखों में जो विश्वास था, उसे देखकर यह भरोसा हुआ कि वह शव को ढूंढ सकते हैं।
उस वक्त महज़ 20 साल के थे बक्सी
लेफ्टिनेंट बक्सी ने बताया, “हमारी सबसे पहले कोशिश, उस लोहे के खाट को खोजने की थी, जिसपर भूकंप (Latur Earthquake) आने से पहले दंपति सो रहे थे। मलबे के नीचे खाट की केवल एक रेलिंग दिखाई दे रही थी। मैंने मलबे को एक तरफ धकेल दिया और एक छोटा सा गड्ढा खोदने की कोशिश की।”
बक्सी ने बताया, “हमारे चारों ओर बहुत सारे भारी पत्थर और मलबे थे, ऐसे में हम ज्यादा हिल नहीं सकते थे। अंत में, हम एक गड्ढा खोदने में कामयाब रहे, जिसमें सिर्फ एक इंसान फिट हो सकता था। मेरे जवानों ने अंदर जाने की कोशिश की, लेकिन पर्याप्त जगह नहीं थी। मैं उस समय लगभग 20 साल का था और काफी दुबली-पतला भी था। मैंने स्वेच्छा से अंदर जाने की कोशिश करने का फैसला किया।”
उन्होंने बताया, “मैं तब तक कोशिश करता रहा, जब तक कि मेरा पूरा शरीर अंदर नहीं चला गया। मैं अँधेरे में आस-पास की चीज़ों को महसूस करने की कोशिश कर रहा था, तभी मेरा हाथ एक ठंडे शरीर को छू गया। जब मैंने इसे खींचने की कोशिश की, तो शरीर से एक कमजोर खांसी निकली। मेरी शुरुआती प्रतिक्रिया बहुत डरावनी थी।”
वह एक चमत्कारी बच्ची थी
माता-पिता सहित किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि 108 घंटे के बाद बच्चा बच जाएगा! लेकिन उसकी सांस चल रही थी। मैंने उसे अपनी छाती के पास खींच लिया और उसे थोड़ी गर्मी देने का प्रयास करते हुए चिल्लाया, “बच्चा ज़िंदा है! बच्चा जिंदा है!”
उस छोटे से घर पर गिरे सात घरों के मलबे के नीचे से वह लोहे की चारपाई निकली और भूकंप (Latur Earthquake) के कारण उसके चार पैरों में से एक टूट गया था, लेकिन उस उल्टे पड़े पीतल के घड़े का लाख लाख शुक्रिया, जिसने खाट को ठीक उसी जगह सहारा दिया, जो पैर टूट गया था और इसी की वजह से वह खाट अपनी जगह पर बनी रही। पिन्नी उस खाट के नीचे लुढ़क गई थी और नियति ने उसे 108 घंटों के बाद की गई कोशिश तक ज़िंदा रखा, उसने मौत को हरा दिया था।
लेफ्टिनेंट बक्सी घुटने तक मलबे (Latur Earthquake) में दबे थे और जब उन्होंने पिन्नी को अपनी छाती के पास रखा, तो उन्होंने महसूस किया कि उन दोनों के लिए बाहर निकलने के लिए पर्याप्त जगह नहीं थी। उन्होंने जवानों को अपने कंपनी कमांडर और बटालियन से अतिरिक्त मदद मांगने के लिए कहा।
मैं अब उसे मरने नहीं दे सकता था
लेकिन बच्ची के जिंदा होने की खबर जंगल में आग की तरह फैल गई। कंपनी कमांडर के मौके पर पहुंचने से पहले ही, 700 ग्रामीणों की भीड़ उस मलबे के ऊपर खड़ी हो गई थी, जिसके नीचे दोनों फंस गए थे।
“वहां एक भूस्खलन हुआ, जिसके कारण हम फिर से और अधिक गहराई में दब गए। इस बार मेरे दो और जवान भी उसमें फंस गए थे। भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस और बटालियन मौके पर पहुंची। एक घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद, वे अन्य दो जवानों को बाहर निकालने में सफल रहे। जब उन्होंने मुझे खींचने की कोशिश की, तो मैंने उनसे कहा कि उन्हें पिन्नी और मेरे लिए पर्याप्त जगह बनाने के लिए और खुदाई करनी होगी। एक चमत्कार ने उसे पाँच दिनों तक जीवित रहने में मदद की थी; मैं अब उसे मरने नहीं दे सकता था और आखिरकार उन्होंने हम दोनों को सुरक्षित बाहर निकाल लिया।”
रो रहे माता-पिता को सौंपी बच्ची
“जब मैंने उसे माँ को सौंपा, तो वे टूट गए। वे बस मुझे धन्यवाद देते रहे और मेरे पैर छूते रहे। हम सभी उस वक्त भावनाओं से घिरे हुए थे। उन्हें रोता देख मैं फूट-फूटकर रोने लगा और मेरे जवान भी खुद को रोक नहीं सके। हममें से कोई भी कुछ मिनटों तक कुछ नहीं कह सका।”
लेफ्टिनेंट बक्सी याद करते हैं कि कैसे उन्होंने बच्चे के पिता को दुलार किया और कहा कि वह तो केवल एक माध्यम थे, यह कोई बड़ी शक्ति थी, जिसने उनकी पिन्नी को बचाया था, वह बच्ची वाकई खास थी।
वह याद करते हुए कहते हैं, “जिस क्षण हम बाहर आए, बहुत सारे विदेशी-राष्ट्रीय जोड़े थे, जो पिन्नी को गोद लेना चाहते थे, मैं भी चाहता था। उसे ‘लातूर की चमत्कारी बच्ची’ कहा जाने लगा था। उस समय, मैंने उसका नाम ‘प्रिया’ रखा था।”
जब लेफ्टिनेंट बक्सी वहां से चले गए और फिर अलग-अलग जगहों पर तैनात हुए, उसके बाद भी प्रिया का परिवार चार साल तक उनके संपर्क में रहा, जहां वे नियमित रूप से उन्हें पत्र और तस्वीरें भेजते थे।
बक्सी कहते हैं, “मुझे पता था कि उसका परिवार पुनर्वास में व्यस्त था और मेरा जीवन आगे बढ़ गया। मेरी शादी हो गई, मेरा एक परिवार था, हम हर दो साल में अपनी पोस्टिंग के कारण जगह बदलते रहे और हमने उनसे संपर्क खो दिया। मैं सोचता रहा कि वह कहाँ होंगे, कैसे होंगे?”

25 सालों बाद हुआ रीयुनियन
जब लेफ्टिनेंट बक्सी साल 2016 में पुणे पहुंचे, तो उनकी पत्नी नीरा ने उनसे पूछा, “आप उस छोटी लड़की को खोजने की कोशिश क्यों नहीं करते, जिसे आपने बचाया था?”
यह विचार तो उन्हें सही लगा, लेकिन फिर वह दिमाग के किसी एक कोने में जाकर बैठ गया और काम उस सोच पर हावी हो गया। लेकिन अपने क्लर्क दयानंद जाधव की एक बात से उन्हें फिर वह बच्ची याद आ गई।
लेफ्टिनेंट बक्सी ने बताया, “वह लातूर (Latur Earthquake) में घर बनाने की बात कर रहे थे और मैंने उनसे पूछा कि वह कहाँ से हैं। जब उन्होंने मंगरुल कहा, तो मेरी आंखें चमक उठीं और मैंने उससे पूछा कि क्या वह प्रिया या पिन्नी को जानता है।” तब उनके क्लर्क ने कहा, “चमत्कारी बेबी? सब उसे जानते हैं! आप उसे कैसे जानते हैं, श्रीमान?’ जब मैंने उससे कहा कि मैं ही वह व्यक्ति था, जिसने उसे बचाया था, तो वह चौंक गया।
उसने कहा, ‘अगर आपने मुझसे कुछ दिन पहले पूछा होता, तो आप उसकी शादी में शामिल होते!’
फिर, जाधव ने तुरंत फोन पर उससे संपर्क किया और उससे कहा, ‘प्रिया, जिस आदमी को आप दशकों से खोज रहे हैं, वह मेरे बॉस हैं और वह आपसे बात करना चाहते हैं।”
उसकी माँ, वह और मैं… हम बस रो पड़े
“जब हम मिले तो हम लगभग आधे घंटे तक बात नहीं कर सके। उसकी माँ, वह और मैं… हम बस रो पड़े। उसके पिता का कुछ महीने पहले निधन हो गया था। लेकिन उसने हमें बताया कि वह अपने चाचा के स्कूल में पढ़ा रही थी। उसने मेरी तस्वीर 25 साल पहले के उस मंदिर (वेदी) के बगल में रखी थी, जिस पर उसने भूकंप के समय (Latur Earthquake) प्रार्थना की थी। मलबे के नीचे एक 18 महीने की बच्ची से लेकर पूरी तरह से विकसित महिला तक, वह अभी भी मेरे लिए एक चमत्कारिक बच्ची ही है।
उन्होंने कहा, “25 साल पहले की आपदा (Latur Earthquake) ने हमें एक ऐसे बंधन में बांधा, जो तब तक रहेगा जब तक मैं अपनी आंखें बंद नहीं कर लेता। वह मुझे अपना पिता कहती है और वह वास्तव में मेरी पहली अजन्मी संतान है और हमेशा रहेगी। वह अपने गांव के लिए काम करना चाहती है और मुझे उस बच्ची पर बहुत गर्व है, जो अब एक महिला बन चुकी है।”
अगर इस कहानी ने आपको प्रेरित किया है, तो लेफ्टिनेंट सुमीत बक्सी से nbx5771@yahoo.com पर संपर्क कर सकते हैं।
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मूल लेख – Jovita Aranha
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