अरुणिमा ने 8 साल में बचाए 28,000 कछुए, पढ़ें अद्भुत संरक्षण की यह अविश्वसनीय कहानी

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'नेटवेस्ट ग्रुप अर्थ हीरोज़ सेव द स्पीशीज़ अवार्ड 2021' से सम्मानित अरुणिमा सिंह के जमीनी स्तर पर किए गए उनके अनुकरणीय संरक्षण के प्रयासों की एक अविश्वसनीय कहानी।

विलुप्त हो रहीं प्रजातियों (Endangered Species Of India) को संरक्षित करने के प्रयास में लगीं अरुणिमा सिंह पिछले कई सालों से कछुओं, मगरमच्छों और गंगटिक रिवर डॉल्फ़िन को बचाने का काम कर रही हैं। इस साल अक्टूबर के अंत में, जमीनी स्तर पर किए गए उनके अथक प्रयासों के लिए ‘नेटवेस्ट ग्रुप अर्थ हीरोज़ सेव द स्पीशीज़ अवार्ड 2021’ से उन्हें सम्मानित भी किया गया।

लखनऊ की रहनेवाली अरुणिमा सिंह 2013 से, ‘टर्टल सर्वाइवल एलायंस (TSA) इंडिया प्रोग्राम’ का हिस्सा हैं और प्रोजेक्ट कोर्डिनेटर के रूप में काम कर रही हैं। यह संस्था कछुओं की संकटग्रस्त प्रजातियों को बचाने और उनके संरक्षण के काम करती है। संस्था से जुड़ने के बाद से ही अरुणिमा ने उत्तर प्रदेश में भी विलुप्त हो रहीं प्रजातियों (Endangered Species Of India) को बचाने के लिए कई सराहनीय काम किए।

उन्होंने, औपचारिक और अनौपचारिक माध्यमों से फ्रेश वॉटर के सरीसृपों के संरक्षण को लेकर, प्रदेश के ग्रामीण और शहरी समुदायों के 50,000 से अधिक बच्चों को शिक्षा भी दी। साथ ही पिछले 8 वर्षों में 28,000 से अधिक कछुओं, 25 गंगा डॉल्फ़िन, 6 दलदली मगरमच्छों और 4 घड़ियालों के बचाव, पुनर्वास और रिहाई में भी मदद की।

बचपन से थी एक्वेटिक लाईफ में दिलचस्पी

द बेटर इंडिया के साथ बातचीत करते हुए अरुणिमा ने बताया, “जब मैं छोटी थी तो अक्सर दादा-दादी के साथ नदी पर जाती थी और वहां पानी में रहनेवाले जीव-जंतुओं को बड़े ध्यान से देखती और घंटों तक निहारती रहती थी। मुझे शुरू से ही एक्वेटिक लाईफ अपनी और खींचती रही है। शायद संरक्षण के लिए मेरा जुनून, मुझे वहीं से मिला है।”

उत्तर प्रदेश वन विभाग और टीएसए के साथ, इंडिया प्रोग्राम फॉर एक्वेटिक बायोलॉजी के जरिए उन्होंने कछुओं की 10 से अधिक प्रजातियों के लिए एश्योरेंस कॉलोनियां बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इनमें से अधिकांश प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं। अरुणिमा सिंह के प्रयासों के कारण ही छोटे सिर वाले भारतीय सॉफ्टशेल टर्टल (चित्रा इंडिका) जैसे कुछ संकटग्रस्त कछुओं की प्रजातियों को बचाए रखने के कार्यक्रमों को मजबूती मिल पाई। 

इसके अलावा, अरुणिमा ने वन विभाग के सैकड़ों फ्रंटलाइन कर्मचारियों और पशु चिकित्सकों को संवेदनशील बनाने और उनकी क्षमताओं को बढ़ाने में भी मदद की है। उनके शोध के जरिए कुछ एल्युसिव प्रजातियों के प्रजनन को गहराई से समझने में भी मदद मिली। इतना ही नहीं, उन्होंने तस्करी से बचाए गए हजारों कछुओं के लिए ऑन-साइट देखभाल संचालन का काम भी किया है।

“संरक्षण के काम को दी नई दिशा”

Arunima Singh of Turtle Survival Alliance, working for endangered species of India
Arunima Singh of Turtle Survival Alliance

टीएसए इंडिया प्रोग्राम के निदेशक डॉ शैलेंद्र सिंह ने पुरस्कार की खबर मिलने पर कहा, “अरुणिमा, देश में सबसे उल्लेखनीय संरक्षणवादियों में से एक रही हैं, जो किसी भी वन्यजीव के संकट की सूचना मिलते ही, अकेले संरक्षण के काम में जुट जाती हैं। फ्रेश वॉटर के कछुए की एल्युसिव प्रजातियों और क्राउन रिवर टर्टल (हार्डेला थुरजी) पर उनके शोध ने ‘वैज्ञानिक कछुआ संरक्षण समुदायों’ के काम को एक नई दिशा दी और प्रजातियों के विशिष्ट संरक्षण रणनीतियों के विकास में हमारे संगठन की सहायता की है।”

अरुणिमा ने 2010 में लखनऊ विश्वविद्यालय से जीवन विज्ञान (Life Science) में मास्टर्स किया है। उन्होंने कोर्स की शुरुआत में कुकरैल घड़ियाल पुनर्वास केंद्र (केजीआरसी) का दौरा किया था। यहीं से उन्हें अपने जीवन के लक्ष्य यानी संरक्षण के मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिली। 

वह कहती हैं, “डॉ शैलेंद्र ने मुझे इस क्षेत्र के बारे में पूरी जानकारी दी। उन्होंने ही मुझे बताया कि कैसे मैं लंबे समय के लिए वन्यजीव संरक्षण से जुड़ सकती हूं। मुझे चंबल घाटी जैसे क्षेत्रों में जाने का अवसर दिया, जहां मैंने काफी कुछ सीखा और जाना। साल 2011 में, मैंने टीएसए के साथ कुछ स्वयंसेवा कार्य करने शुरू कर दिए थे और साथ ही वन्यजीव संरक्षण के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय में एक छोटे से जागरूकता और शैक्षिक कार्यक्रम में दाखिला भी ले लिया। अपनी मास्टर्स डिग्री पूरी करने के बाद, मैं लुप्तप्राय फ्रेश वॉटर के कछुओं, और अन्य जलीय प्रजातियों (Endangered Species Of India) के संरक्षण में पूरे समय के लिए जुड़ गई। फिलहाल मैं, फ्रेश वॉटर कछुओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए पीएचडी भी कर रही हूं।”

क्या हैं एश्योरेंस कॉलोनियां?

साल 2013 के अंत में अरुणिमा, TSA के साथ एक इंटर्न के तौर पर जुड़ गई थीं। उनका लक्ष्य भारत की सभी कछुआ प्रजातियों के लिए एश्योरेंस कॉलोनियों का निर्माण करना था, ताकि वे सभी एक ही जगह पर रह सकें। अपने इस विचार पर काम करने के लिए उस समय उन्हें एक छोटा सा अनुदान भी मिला था।

रेप्टाइल्स कोव के अनुसार, “एश्योरेंस कॉलोनी एक ऐसा शब्द है, जो गंभीर रूप से विलुप्त होने की कगार पर या खतरे में पड़े जानवरों (Endangered Species Of India) के समूह के बचाव के लिए होता है। इन कॉलोनियों का उपयोग प्रजनन समूहों के साथ विभिन्न संरक्षण कार्यक्रम बनाने के लिए किया जाता है। ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि प्रजातियां विलुप्त नहीं होंगी। जंगल में, इनके जीवित रहने की संभावना बहुत कम होती है और केवल एश्योरेंस कॉलोनी में ही इनका संरक्षण और प्रजनन संभव है। 

उन्होंने टीएसए-इंडिया कार्यक्रम के साथ इन एश्योरेंस कॉलोनियों का निर्माण और कछुओं की आबादी की सुरक्षा के लिए, गंगा की सहायक नदियों के आस-पास कुछ जगहों की तलाश शुरू की।  

कैप्टिव सेंटर में कराई जाती है हैचिंग

अरुणिमा बताती हैं, “चित्रा प्रजाती के कछुओं के अंडों से जन्मे बच्चे जीवित रह सकें, इसके लिए उन्हें पहली सर्दी से बचाकर रखना होता है। इनका पालन-पोषण बड़ा मुश्किल होता है, क्योंकि ये खाना बंद कर देते हैं। जब बच्चा अंडे से निकलता है, तो यह जरूरी है कि उसे जीवित रहने और विकास के लिए आवश्यक पोषण दिया जाए। हमारी प्रोजेक्ट टीम जंगल से अंडे ढूंढती है और फिर यहां के कैप्टिव सेंटर में हैचिंग कराती है। लेकिन इस प्रक्रिया की देख-रेख के लिए वहां कोई पूर्णकालिक टीम नहीं थी।

उन्होंने बताया, “जब मैंने टीएसए के साथ शुरुआत की थी, तो उस समय चित्रा प्रजाति के अलावा, फ्रेश वॉटर कछुए की और भी कई प्रजातियां थीं, जिनके पालन और प्रजनन की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं थी। फिर हमने अपना दायरा बढ़ाया और अन्य प्रजातियों पर भी शोध करना शुरू कर दिया।”

अरुणिमा ने कहा, “देखो, आप जंगल से कछुए नहीं ला सकते हैं। आपको ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है, बस एक प्रजनन कार्यक्रम शुरू करें और उन्हें एश्योरेंस कॉलोनियों में विकसित होने के लिए छोड़ दें। लुप्तप्राय या गंभीर रूप से संकटग्रस्त किसी भी प्रजाति (Endangered Species Of India) के लिए, दो या तीन एश्योरेंस कॉलोनियों का होना जरूरी है।”

बी. कचुगा प्रजाति, गंगा व अन्य नदियों से पूरी तरह से हो चुकी हैं विलुप्त

कछुओं के अंडों को, यमुना और घाघरा जैसी नदियों के किनारे असुरक्षित घोंसलों से निकालकर KGRC जैसे एश्योरेंस कॉलोनी में स्थानांतरित कर दिया जाता है। वहां, वे सुरक्षित तरीके और स्वाभाविक रूप से एक रेत हैचरी में इनक्यूबेट किए जाते हैं और प्राकृतिक गर्मी और बहते पानी वाले आवासों में बढ़ते हैं।

वहां उन्हें खाने के लिए जीवित मछली के छोटे-छोटे बच्चे दिए जाते हैं। जब इनका सिर लगभग 1,000 ग्राम का हो जाता है, तब इनमें से अधिकांश जुवेनाइल कछुओं को नदियों में छोड़ दिया जाता है। इन कछुओं को उनके प्राकृतिक आवास में वापस छोड़ने का उद्देश्य जंगली आबादी के पास फिर से लौट जाने में उनकी मदद करना है। 

टीएसए ने, Red-crowned Roofed Turtle  (बटागुर कचुगा) जैसी प्रजातियों के लिए, KGRC, लखनऊ और कानपुर चिड़ियाघर में तीन एश्योरेंस कॉलोनियों को बनाने में मदद की है।

वह आगे कहती हैं, “अब तक, हम फ्रेश वॉटर कछुओं की 10 से अधिक लुप्तप्राय और गंभीर रूप से लुप्तप्राय प्रजातियों (Endangered Species Of India) के लिए एश्योरेंस कॉलोनियां विकसित कर चुके हैं। बी. कचुगा प्रजाति, गंगा और अन्य नदियों से पूरी तरह से विलुप्त हो चुकी हैं। ये सिर्फ चंबल में ही जीवित बचे हैं। हम गंगा में इन प्रजातियों को फिर से लाने की योजना पर काम कर रहे हैं। हमने चित्रा जैसी प्रजातियों के कुछ कछुओं को बचा कर रखा हुआ है। हम उनके प्रजनन को बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं।”

कछुओं के लिए ट्राइएज सेंटर

अरुणिमा ने एश्योरेंस कॉलोनियों के निर्माण की दिशा में काम करना शुरू किया, तो उन्हें प्रवर्तन एजेंसियों से कछुओं की लुप्तप्राय प्रजातियों के बारे में काफी कॉल आने लगी थीं। पहले ये एजेंसियां, तस्करों के हाथों से बचाए गए इन कछुओं को वापस जंगल में छोड़ देती थीं। क्योंकि उस समय कछुओं के पुनर्वास के लिए कोई केंद्र नहीं था, लेकिन अब ऐसा नहीं होता है। 

उन्होंने कहा, “हमने साल 2015 में इटावा और मैनपुरी के पास लगभग 300 चित्तीदार तालाब कछुओं (जियोक्लेमीस हैमिल्टन) के पुनर्वास में मदद की। हम उन्हें KGRC में लाए और वापस जंगल में छोड़ने से पहले 60 दिनों तक उनकी देखभाल की। हालांकि, शिकारियों द्वारा बड़ी ही लापरवाही से रखे जाने और स्थानांतरित किए जाने के कारण इन कछुओं की हालत गंभीर थी, खासकर नरम-खोल वाले कछुओं की।”

उसी साल, उन्हें तस्करी किए गए 500 Indian Tent Turtles  (पंगशुरा टेंटोरिया सर्कमडाटा) और Indian Roofed Turtles  (पंगशुरा टेक्टा) की एक और खेप मिली। इस ऑपरेशन के दौरान, वे उत्तर प्रदेश स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) के एक पुलिस अधिकारी अरविंद चतुर्वेदी से मिले। अरुणिमा ने उन्हें “वन्यजीव संरक्षण के लिए बहुत प्रतिबद्ध” व्यक्ति बताया। उन्होंने इस खेप को जब्त कराने में काफी मदद की थी।

टीएसए क्षेत्र में लुप्तप्राय प्रजातियों (Endangered Species Of India) की तस्करी के बारे में जानकारी इक्ट्ठा करता है और उस जानकारी को पुलिस या वन विभाग को दे देता है। कुछ साल बाद, अरुणिमा और टीएसए में उनकी टीम ने चतुर्वेदी के साथ मिलकर, उनकी एसटीएफ टीम की मदद से अमेठी में रिकॉर्ड 6,400 कछुओं को जब्त किया और 2017 में रेपटाइल्स की तस्करी में शामिल एक अंतर-राज्यीय गिरोह के सरगना को पकड़ा था।

एक घटना जिसने खोल दीं आंखें

Endangered Turtle Species
(Image courtesy RoundGlass Sustain)

अरुणिमा ने बताया, “उस समय, मैं टीएसए के लिए ‘रेस्क्यू और रिहैबिलेशन’ का नेतृत्व कर रही थी। हम कछुओं को प्राकृतिक आवास में रखते और उनका इलाज करते थे और फिर उन्हें वापस जंगल में छोड़ देते थे। 6,000 के करीब कछुओं का व्यक्तिगत रूप से इलाज करना मुश्किल था, लेकिन हमारी टीम ने हर एक कछुए की देखभाल की जैसे कि मुंह के अंदर के हुक को हटाना, आदि। दुर्भाग्य से, हम लंबे समय तक उनका इलाज नहीं कर सके, क्योंकि हमारे पास इतने अधिक कछुओं की देखभाल के लिए जरूरी सुविधाएं नहीं थीं। लेकिन हमने अमेठी में एक छोटी और अस्थायी सुविधा का निर्माण किया और जानवरों को वापस जंगल में छोड़ दिया। ”

अरुणिमा का कहना है कि तस्करी कितने बड़े पैमाने पर की जाती है, इसे समझने और ट्राइएज सेंटर बनाने के मामले में यह घटना आंखें खोलने वाली थी। यहां से, टीएसए ने पूरे यूपी में वन विभाग, पुलिस और स्थानीय समुदायों के कर्मियों को जब्त कछुओं के बचाव और पुनर्वास का प्रशिक्षण देना शुरू दिया।

वह आगे कहती हैं, “साल 2017  के बाद से, हमने हर साल हजारों कछुओं को बचाने और पुनर्वास में मदद की है, उनकी देखभाल की है और उन्हें वापस जंगल में छोड़ दिया है। हमारे हस्तक्षेप से पहले, यूपी में फ्रेश वॉटर कछुओं के लिए कोई बचाव और पुनर्वास केंद्र नहीं था। इन बचाए गए कछुओं के साथ क्या करना है, इसके संदर्भ में कोई प्रबंधन योजना नहीं थी और साथ ही एन्फोर्समेंट और जागरूकता की भी कमी थी।”

क्यों होती है फ्रेश वॉटर कछुओं के प्रजातियों की तस्करी?

  1. खाने के लिए: पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में, नरम खोल वाले कछुए, खासकर दुर्गा पूजा जैसे त्योहारों के दौरान एक स्वादिष्ट व्यंजन के तौर पर खाए जाते हैं। हाल ही में, उत्तर प्रदेश में अधिकारियों ने कोलकाता जाने वाले सॉफ्ट शेल्स हेडिंग कछुओं की एक खेप को जब्त किया था।
  2. दवाईयों के लिए : इनमें से कुछ फ्रेश वॉटर प्रजातियों को पारंपरिक दवाइयां बनाने के लिए बांग्लादेश से दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन में स्थानांतरित किया जाता है। अरुणिमा कहती हैं, “दवाईयां बनाने के लिए, शिकारी अक्सर बड़े नरम खोल वाले कछुओं के कैलीपी को निकाल लेते हैं। पहले उसे उबाला जाता है और फिर सुखाकर उन्हें चिप्स के रूप में पैक कर देते हैं। ऐसे में प्रवर्तन एजेंसियों के लिए यह पता लगाना मुश्किल हो गया कि यह क्या हो रहा है। साल 2019 में, हमने लगभग 2-3 क्विंटल कैलीपी को जब्त करने में मदद की थी।” 
  3. पालतू व्यापार: उनके शांत व्यवहार और सुंदर शेल को देखते हुए, बहुत से लोग मीठे पानी के कछुओं को पालते हैं। इनकी भारत सहित कई देशों में काफी ज्यादा मांग है।

अरुणिमा ने बताया, “लगभग एक महीने पहले, हमने कछुओं के एक झुंड को हैदराबाद से लखनऊ वापस भेज दिया। शिकारी इन कछुओं को गोमती नदी से ले जा रहे थे और हैदराबाद में पालतू जानवरों की दुकानों में बेच रहे थे। Indian tent turtles  (पंगशुरा टेंटोरिया) सख्त होते हैं। नर आमतौर पर मादाओं की तुलना में तीन से चार गुना छोटे होते हैं। शिकारियों ने नर को निजी एक्वैरियम में स्थानांतरित कर दिया, क्योंकि वे एक निश्चित ऊंचाई से आगे नहीं बढ़ते। ऐसे तस्करी संगठनों के पीछे अक्सर संगठित गिरोह होते हैं।” 

इन मुद्दों से कैसे निपटा जाए?

अरुणिमा का मानना ​​​​है कि जमीनी स्तर पर काम करने वाले सरकारी और गैर सरकारी संगठन, इन कछुओं के अवैध शिकार करने वाले तस्करों को आजीविका के बेहतर अवसर उपलब्ध कराने के लिए काम करें। क्योंकि ये तस्कर अक्सर आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों से आते हैं। 

साथ ही, उनका मानना ​​​​है कि प्रवर्तन संगठनों को इस बात की जानकारी रखनी होगी कि लुप्तप्राय फ्रेश वॉटर कछुए की प्रजातियों (Endangered Species Of India) की मांग कहां से आती है और यह भी समझना होगा कि यह व्यवसाय कैसे काम करता है?

अरुणिमा कहती हैं, “इसके लिए कड़े कानूनों के बनाए जाने की जरूरत है, क्योंकि गिरफ्तार किए गए तस्करों को अक्सर एक महीने के भीतर ज़मानत मिल जाती है और वे फिर से व्यवसाय में वापस आ जाते हैं। शिक्षा और जागरूकता भी बहुत जरूरी है। हमें आम जनता को संवेदनशील बनाना होगा ताकि वे कछुओं को पालतू जानवर के रूप में देखना बंद कर दें। फ्रेश वॉटर कछुओं के बारे में जागरूकता की कमी है। हमें आम नागरिकों को संरक्षण कार्यक्रमों में शामिल करना होगा।”

मूल लेखः रिनचेन नोर्बु वांगचुक

संपादनः अर्चना दुबे

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