साल 1997 तक, पश्चिम बंगाल (West Bengal) के पुरुलिया जिला के झारबगड़ा गाँव में एक पहाड़ पर, मंदिर के बगल में सिर्फ एक पेड़ था। मंदिर में पुजारी और स्थानीय लोग कभी-कभार पूजा करने के लिए जाते थे।
झारखंड के जमशेदपुर से 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह गाँव, एक समय 50 किलोमीटर के दायरे में हर ओर से बंजर जमीनों से घिरा हआ था।
पहाड़ी के नीचे बसे इस गाँव में करीब 300 घर होंगे और गर्मियों के दिनों में लोगों को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था।
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आज लगभग 22 वर्षों के बाद, गाँव के करीब 387 एकड़ जमीन पर घने जंगल लगे हुए हैं और यह कई प्रकार के पशु-पक्षियों का घर है। आलम यह है कि किसी समय पानी की कमी से जूझते किसान, आज साल में दो बार खेती करते हैं।
इसका श्रेय जाता है गाँववालों के वर्षों की कड़ी मेहनत और जज्बे का, जिन्होंने बंजर जमीन पर भी सोना उगा दिया।
एक पेड़ से 4.5 लाख पेड़
ग्रामीणों को अपने प्रयास में टैगोर सोसाइटी फॉर रूरल डेवलपमेंट (TSRD) नाम के एक गैर सरकारी संगठन की पूरी मदद मिली। अंततः वर्षों की अथक मेहनत के बाद, यहाँ का वातावरण काफी खुशनुमा हो गया है और भू-जल स्तर बढ़ने के कारण किसानों को खेती के लिए पानी मिल रहा है। इस तरह, यह गाँव प्रगति की नित नई ऊँचाइयों को छू रहा है।
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इस कड़ी में, 50 वर्षीय सुजीत मोहंती, जो 3.5 एकड़ जमीन पर खेती-किसानी करते हैं। उन्होंने द बेटर इंडिया को बताया, “पहले यहाँ काफी गर्मी पड़ती थी। पत्थरों से हीट वेब निकलते थे और इसका असर देर रात तक रहता है। इस वजह से, शाम ढलने के बाद भी गर्मी से राहत नहीं मिलती थी। हमने कभी नहीं सोचा था कि इस जमीन पर कोई कुछ उगा सकता है। बारिश का 60 प्रतिशत पानी जमीन के उपरी सतह पर ही जाता था, जिससे भू-जल स्तर कभी नहीं बढ़ पाता था। इस वजह से किसान साल में दाल, धान या किसी अन्य फसल में से एक ही फसल ही खेती कर पाते थे।”
यह कैसे संभव हुआ
यह बात 1997 की है। टीएसआरडी की एक टीम यहाँ आई और उन्होंने वृक्षारोपण का कार्य शुरू किया।
इसे लेकर एनजीओ के लीडर, बादल महाराणा कहते हैं, “हमें पता चला कि दशकों पहले यहाँ घना जंगल था। लेकिन, जमीनदारी प्रथा के कारण यह नष्ट हो गया।”
बादल ने आगे बताया, “मिट्टी, भौगोलिक परिस्थितियों और पानी की निकटतम उपलब्धता का विश्लेषण करने के लिए हमने यहाँ कई दौरे किए। इसके बाद, वैसे चार पौधों की पहचान की गई जो यहाँ की भौगोलिक विशेषताओं के अनुकूल हैं।”
इस तरह, यहाँ वृक्षारोपण का कार्य 1998 में शुरू हुआ और अगले पाँच वर्षों में यहाँ 36,000 पेड़ लगाए गए। इस दौरान यहाँ ऐसे पेड़ लगाए गए, जिससे स्थानीय लोगों को फल मिलने के साथ-साथ, उन्हें खाना पकाने के लिए लकड़ी भी मिले।
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बादल कहते हैं, “हमने 4 सालों तक पेड़ों की देखभाल की। हमारा वृक्षारोपण कार्य वर्षों तक जारी रहा। इस दौरान हमने 72 प्रकार के 4.5 लाख पेड़ लगाए। इनमें से 3.2 लाख पेड़ बच पाए। जल संकट के कारण, हमें पौधे की सिंचाई करने में काफी कठिनाई होती थी।”
सिर्फ तीन गाँव वाले आए थे साथ
बादल ने बताया, “शुरुआती दिनों में हमें सिर्फ 3 गाँव वालों ने साथ दिया था। ज्यादातर लोगों का यही मानना था कि यहाँ कुछ नहीं उग सकता। अगर पेड़ जीवित भी रह गए, तो उसमें फल नहीं होंगे।”
लेकिन, जैसे-जैसे इन पेड़ों में अधिक फल-फूल लगने लगे, अधिक से अधिक लोग इस प्रयास में शामिल होने लगे।
उनकी यह मेहनत रंग लाने लगी और साल 2007 में 11 हाथियों का झुंड इस जंगल में पहुँचा।
बादल ने यह भी बताया कि धीरे-धीरे यहाँ प्रवासी पक्षी, साँप और छोटे जानवर भी आने लगे। जो इस बात का प्रमाण था कि यहाँ का वातावरण वन्यजीवों और जैव विविधता के लिए अधिक स्वागत योग्य हो रहा है।
टीएसआरडी के कोषाध्यक्ष, नंदलाल बक्शी का कहना है कि तब से यहाँ गौर, लोमड़ी जैसे कई जानवर देखे गए। अब जंगल खुद को रिजेनरेट करने लगा है और यहाँ 5.28 लाख से अधिक पेड़ हो चुके हैं।
प्लांटेशन ड्राइव्स के दौरान गाँव वालों ने पानी को जमा करने के लिए खुदाई भी की। वहीं, बारिश के पानी की गति को धीमा करने के लिए प्राकृतिक संरचनाओं को बनाया गया, जिससे भूजल पुनर्भरण सुनिश्चित हुई। इसके अलावा, जंगल जानवरों के लिए एक तालाब भी बनाया गया है।
इस ग्रीनजोन का सबसे अधिक फायदा, गाँव के किसानों को हुआ। क्योंकि, यहाँ की मिट्टी में बढ़ी नमी के कारण, साल में दो फसल उगाना आसान हो गया।
नंदलाल बताते हैं कि जंगल के कारण यहाँ भूजल स्तर में काफी वृद्धि हुई। आज यहाँ 20 फीट पर पानी मिल जाता है। इस सुधार ने ग्रामीणों को सोलर वाटर पंप लगाने के लिए सक्षम बनाया।
आज इस प्रयास का फायदा सिर्फ झारबगड़ा गाँव के लोगों को ही नहीं, बल्कि आस-पास के 21 गाँवों के 30 हजार आबादी को मिल रहा है।
नंदलाल बताते हैं, “इस जंगल की रक्षा के लिए एक गार्ड को नियुक्त किया गया है। यहाँ एक भी पेड़ काटने नहीं दिया जाता है, और न ही बिना अनुमति के कोई कुछ भी ले सकता है।”
वह बताते हैं, “यहाँ सिर्फ बूढ़े, सूखे या गिरे पेड़ की लकड़ियों को ही जलावन के लिए काटा जाता है। यहाँ रोजाना, अलग-अलग गाँव की छह महिलाएं सूखे पत्तों को जमा करने के लिए आती हैं। खाना बनान के लिए दैनिक खर्च 10-20 रुपये तक आता है। एक हालिया अध्ययन के अनुसार, ग्रामीण प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके कम से कम 6 लाख रुपए बचाते हैं।”
आत्मनिर्भर गाँव
आज इस गाँव में सौ फीसदी जमीन पर खेती होती है। इसे लेकर बादल कहते हैं, “पहले किसान अपनी पूरी जमीन पर खेती नहीं कर पाते थे। लेकिन, आज वे अपने सौ फीसदी जमीन पर खेती कर सकते हैं। आज उत्पादन में 120 फीसदी तक की वृद्धि हुई है। यह दर निरंतर बढ़ता जा रहा है। किसान आज धान और दाल के अलावा, कई सब्जियों की भी खेती कर रहे। इसके अलावा, वे मुर्गी पालन और पशु पालन भी कर रहे, ताकि आमदनी को बढ़ाया जा सके।”
बादल कहते हैं कि 2006 में, फंडिंग खत्म होने के बाद, उन्होंने कोई पेड़ नहीं लगाया है। इस सामुदायिक प्रयास में, पिछले कुछ वर्षों से राज्य सरकार से आर्थिक मदद मिल रही है।
द बेटर पश्चिम बंगाल के इस हरित गाँव की तस्वीर बदलने वाले ग्रामीणों की सामुहिक प्रयास की सराहना करता है।
मूल लेख - HIMANSHU NITNAWARE
संपादन - जी. एन. झा
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