पिछले दो सालों में कोरोना महामारी के दौरान कई ऐसे लोगों की कहानियां सामने आई हैं, जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में अविश्वसनीय कार्यों द्वारा समाज के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। एक तरफ जहां डॉक्टर्स और पूरा स्वास्थ्य विभाग संक्रमण की परवाह किए बिना, लोगों के इलाज में जुटा रहा। वहीं शिक्षा के क्षेत्र में भी कुछ ऐसे लोग हैं, जिन्होंने स्कूल बंद होने और ऑनलाइन शिक्षा की सुविधा ना होने के कारण देश के बिना इंटरनेट की सुविधा वाले ग्रामीण (No internet in village) और दूर-दराज़ क्षेत्रों के बच्चों को मुफ्त पढ़ाना जारी रखा।
ऐसे लोगों को अग्रिम पंक्ति के योद्धा (फ्रंटलाइन वॉरियर) के रूप में सम्मानित किया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में ऐसे ही एक योद्धा हैं, कल्याण मनकोटी। उन्होंने शहर की आरामदायक ज़िंदगी को छोड़कर कोरोना काल में गांव के बच्चों को प्रकृति की छांव में शिक्षा देने का बीड़ा उठाया है।
इंटरनेट नहीं, तो ऑनलाइन क्लास नहीं

वास्तव में कोरोना ने तेज़ रफ्तार से दौड़ती ज़िंदगी पर लगभग ब्रेक सा लगा दिया। अर्थव्यवस्था से लेकर सामाजिक जीवन तक, सब कुछ ठहर सा गया। इस आपदा ने स्कूली शिक्षा व्यवस्था पर सबसे बुरा प्रभाव डाला है। बच्चों में किताबी शिक्षा के अलावा प्रैक्टिकली चिज़ों को सीखने की क्षमता सबसे अधिक प्रभावित हुई है।
शहरों में ऑनलाइन क्लासेज के माध्यम से बच्चे फिर भी पढ़ाई कर पाने में सक्षम हैं। लेकिन देश के दूर-दराज़ और विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों के रहने वाले बच्चों को यह सुविधा बहुत अधिक नहीं मिल पा रही थी। ऐसे में उत्तराखंड के बागेश्वर ज़िला स्थित आसो गांव के रहने वाले कल्याण मनकोटी एक समर्पित शिक्षक के रूप में सामने आए।
कल्याण, प्रतिदिन अल्मोड़ा शहर से 35 किलोमीटर की दूरी तय करके चनोली गाँव के एक जूनियर स्कूल में पढ़ाने आया करते थे। वह बच्चों को केवल किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं रखते थे, बल्कि उन्हें प्रकृति से जोड़कर एक प्रबुद्ध नागरिक के रूप में भी तैयार करते थे।
शहर छोड़, गांव जाना नहीं था आसान
एक रचनात्मक शिक्षक के रूप में कल्याण मनकोटी हमेशा सुर्ख़ियों में रहे हैं। वह बच्चों को सिलेबस पढ़ाने के साथ-साथ, उनमें सीखने और समझने की क्षमता भी विकसित करते हैं। वह, बच्चों को तमाम सामाजिक संदर्भों से रिश्ता बनाए रखने और उनमें दिलचस्पी पैदा करने का प्रयास करते हैं।
जब कोविड -19 ने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया, और शिक्षण संस्थान बंद कर दिए गए, उस समय भी कल्याण मनकोटी एक शिक्षक के रूप में अपनी प्रतिबद्धता से पीछे नहीं हटे। वह अपने आरामदायक जीवन को पीछे छोड़ते हुए, अल्मोड़ा शहर की सड़को को छोड़, चनोली गांव की पगडंडियों पर चले आए।
उनके इस अहम कदम ने बच्चों की शिक्षा को रुकने नहीं दिया। इस काम में उनकी बेटी ने भी भरपूर साथ दिया। हालांकि अल्मोड़ा शहर से चनोली गांव जाने का उनका निर्णय आसान नहीं था। उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। लॉकडाउन के कारण जब यात्रा पूरी तरह से प्रतिबंधित थी, ऐसे मुश्किल समय में भी वह अपनी प्रतिबद्धता से पीछे नहीं हटे।
पूरी करनी पड़ी कई काग़जी कार्रवाई, ताकि ना आए कोई रुकावट
गांव जाते समय, उन्हें कई जगहों पर पुलिस ने रोका और बाहर निकलने का कारण पूछा। लेकिन महामारी के दौरान भी छात्रों को अपनी शिक्षा जारी रखने में मदद करने के लिए उनकी ईमानदारी और ललक के कारण, उन पुलिसवालों ने भी सहयोग करते हु,ए उन्हें गांव जाने का रास्ता दे दिया।
इससे पहले कि वह छात्रों के दरवाजे तक शिक्षा लाने के लिए अपनी पहल शुरू करते, उन्हें विभिन्न कागजी कार्रवाई पूरी करनी पड़ी। उन्होंने जिला मजिस्ट्रेट से मुलाकात कर अपने उद्देश्य बताए, तो वहीं स्वास्थ्य विभाग से भी संपर्क किया और साथ ही समाज को भी भरोसे में लिया।
उन्होंने अपनी इस पहल से शिक्षा विभाग को भी अवगत करा दिया। इस वजह से उन्हें शिक्षा के प्रति अपने उद्देश्य को पूरा करने में कोई रुकावट नहीं आई। इसके बाद मास्क, दवा और स्वच्छता जैसी जरूरी सुविधाओं के साथ, कल्याण मनकोटी ने महामारी के दौरान छात्रों को उचित शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए अपनी यात्रा शुरू की।
एक खेत में क्लास चलाकर शुरू हुआ था सफर
कोविड -19 से संबंधित एसओपी के बाद, उन्होंने बच्चों के एक छोटे समूह के साथ जंगल के पास, एक खेत में सीखने, पढ़ने और समझने की कवायद शुरू की। हालांकि इन सबके बाद मौसम भी एक बाधा थी, जिसे कल्याण मनकोटी को पार करना था।
इस संबंध में वह बताते हैं कि, “एक बार जब बरसात के दिन में गीले खेत में कक्षाएं लगाना मुश्किल हो गया। तो उन्हें सड़क से जुड़ी पत्थर की छत वाला एक विशाल खाली और बंद घर नज़र आया। बारिश बंद होने के तुरंत बाद, बच्चे उस छत पर बैठ गए और पढ़ाई शुरू कर दी। तब से, जब भी बारिश होती है, छत हमारी कक्षा बन जाती है।”
कहते हैं कि नेक दिल से किए गए काम का परिणाम भी अच्छा होता है। उन्होंने बताया कि जब उस खाली घर के मालिक को उनके काम और उद्देश्य का पता चला, तो उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी वह घर खुलवा कर उसे क्लास रूम में तब्दील करने की इजाज़त दे दी। इस तरह उनपर समाज का विश्वास दिन पर दिन बढ़ता ही जा रहा था।
युनिवर्सिटीज़ के छात्र भी आते हैं पढ़ाने
कल्याण मनकोटी की इस पहल में अब बेटी के साथ-साथ उनके कुछ पुराने छात्र भी जुड़ गए, जो वर्तमान में विश्वविद्यालय में विभिन्न पाठ्यक्रमों का अध्ययन कर रहे हैं। इनमें से कुछ चनोली गांव के हैं, जबकि बाकी छात्र बारी-बारी से गांव आकर दो-चार दिन रहते हैं और बच्चों को विभिन्न रुचिकर विषय भी पढ़ाते हैं।
यह छात्र बच्चों को विज्ञान, भाषा, अंग्रेजी, सामाजिक विज्ञान और संगीत आदि के साथ, कागज और मिट्टी से कई चीज़ें बनाना भी सिखाते हैं। उनके सबसे पुराने छात्रों में से एक, हिमानी ने कई मनोरंजक वैज्ञानिक प्रयोग और मजेदार खेलों के माध्यम से छात्रों को पौधों और वनस्पतियों के बारे में पढ़ाया है।
इसके अलावा भुवन कांडपाल, गार्गी, रिया, भूपेंद्र, ओजस्वी, अनुराग, सचिन, सौरभ, दीपा और पुष्पा ने भी लगन से योगदान दिया है। कल्याण मनकोटी के इस सार्थक कदम को स्थानीय समाज से भी भरपूर समर्थन मिलने लगा है। यहां तक कि गांव के बुजुर्गों की भी छात्रों के साथ बात-चीत करने और उनकी समग्र शिक्षा में मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका हो गई है।
गांव के बुजुर्ग, छात्रों को कहानियां सुनाकर देते हैं सीख
गांव की एक बुज़ुर्ग रेवती देवी ने अपनी कहानियों के माध्यम से बच्चों को बताया कि कैसे खुद को सार्वजनिक रूप से पेश किया जाए। वहीं, तारा देवी ने बच्चों को कई तरह के पहाड़ी व्यंजन बनाना सिखाया। गांव के ही भूपाल सिंह ने बच्चों को दूध के कारोबार और लैक्टोमीटर का इस्तेमाल कैसे करना है, इसकी जानकारी दी।
उन्होंने बच्चों को यह भी सिखाया कि डेयरी उत्पादों और गांव में उगाई गई सब्जियों का उपयोग करके कैसे एक छोटा व्यवसाय शुरू किया जाए। अपना अनुभव साझा करते हुए भूपाल सिंह कहते हैं कि “इस पहल ने उन्हें बच्चों को करीब से समझने का अवसर प्रदान किया।”
कल्याण मनकोटी की पहल, जिसे उन्होंने अपने दम पर शुरू किया, आज एक सामूहिक प्रयास बन गया है। यह पहल, एक ही लक्ष्य के लिए अलग-अलग लोगों को एक साथ लाकर, अखंडता का प्रतीक बन चुका है। कल्याण कहते हैं कि बच्चे एक दूसरे से बहुत कुछ सीखते हैं। इस समूह में सरकारी और गैर-सरकारी दोनों स्कूलों के बच्चे शामिल हैं।
स्थानीय व्यंजन, भाषाएं व लोक गीत सीख रहे छात्र

नई पीढ़ी, जो धीरे-धीरे अपनी मातृभाषा कुमाऊंनी भूल रही थी, इन कक्षाओं में अब बच्चे इसमें बात कर लेते हैं। यहां बच्चे न केवल सामान्य पाठ पढ़ते हैं, बल्कि विभिन्न विषयों पर अतिरिक्त जानकारी इकट्ठा कर, अपने गांव के लोगों के साथ व्यापक बातचीत भी करते हैं।
उन्होंने बताया कि बच्चे अब स्थानीय व्यंजनों को बनाना सीखते हैं। पुराने भूले हुए लोक गीतों को गाते हैं, और आस-पास की वनस्पतियों और औषधीय पौधों के बारे में भी दिलचस्पी से काफी कुछ सीखते हैं।
यह मॉडल इस बात का उदाहरण है कि समुदाय, बच्चों की समग्र शिक्षा में कितना योगदान दे सकता है, इसे बड़े समाज द्वारा अपनाया जा सकता है। इतना ही नहीं, उनके प्रयासों से अब गांव में विभिन्न स्तरों पर कोविड-19 जागरूकता अभियान भी चलाए जा रहे हैं। जगह-जगह इस पर चर्चा हो रही है, होर्डिंग और बैनर लगाए जा रहे हैं।
‘सबका साथ सबका विकास’ का जीवंत मॉडल
लोगों के छोटे-छोटे समूह कोविड प्रोटोकॉल के अनुसार, गानों और नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से अलग-अलग घरों में ज़रूरी जानकारियां पहुंचा रहे हैं। इस दौरान भोजन माता, समुदाय के सदस्यों और शिक्षकों के सहयोग से बच्चों के लिए दोपहर के भोजन की व्यवस्था की जाती है, हर घर में अनाज और सब्जियां देते हैं। यह “सबका साथ सबका विकास” का एक जीवंत मॉडल बन चुका है।
कोविड-19 के नाजुक और संवेदनशील समय में भी कल्याण मनकोटी ने ग्रामीणों के सहयोग से शिक्षा की जो ज्योति जलाई है, अब उसकी चर्चा दूर-दूर तक होने लगी है। उन्होंने बताया कि “मुझे लोगों से बहुत सारी सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिलनी शुरू हो गई हैं। कई लोग मेरे साथ जुड़ गए हैं। इसके अलावा, ऋषिकेश, पौड़ी, नैनीताल के शिक्षकों ने अपने-अपने क्षेत्रों में इस मॉडल को अपनाना शुरू कर दिया है।” (चरखा फीचर)
लेखकः विपिन जोशी
साभारः चरखा ( www.charkha.org)
संपादनः अर्चना दुबे
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