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राजस्थान के आबू अंचल में पिछले कुछ सालों में सौंफ की उपज में गुणवत्ता और मात्रा के लिहाज से बेहद शानदार वृद्धि दर्ज़ की गई है। इस उपलब्धि में प्रगतिशील किसान इशाक अली का योगदान बेहद ख़ास है।
सौंफ की खेती में परम्परागत तौर तरीकों की बजाय नवाचारों के जरिए पानी, मेहनत और पूंजी की बचत के साथ-साथ बेहतर गुणवत्तापूर्ण उपज लेने के लिए उन्हें आईसीएआर (ICAR) की ओर से 2010 का ‘बाबू जगजीवन राम राष्ट्रीय पुरस्कार’ भी प्रदान किया गया। साथ ही, वे महिंद्रा समृद्धि कृषक सम्राट सम्मान से भी नवाज़ें जा चुके हैं।
आज उन्हें अपनी खुशबूदार उपलब्धियों के लिए ‛सौंफ किंग’ कहा जाता है।
इशाक अली का जन्म 1971 में गुजरात के मेहसाणा जिले के बादरपुर गाँव के एक किसान परिवार में हुआ था। पर उनकी पुश्तैनी जमीन राजस्थान के सिरोही जिले के काछौलीगाँव में थी। इसलिए अपनी सीनियर सेकेंडरी परीक्षा के बाद ही वह अपने पिता इब्राहिम अली के साथ यहाँ खेती करने के लिए आ गए थे। परंपरागत खेती हुए इशाक ने नवाचार भी करने शुरू किये और आज करीब 40 बीघा में फैला उनका ‛आबू सौंफ 440 फार्म’ देश-विदेश के अनेक वैज्ञानिकों और कृषि विशेषज्ञों के लिए शोध का गढ़ बन चुका है। आईये देखते हैं कैसे किया इशाक ने यह सब!
फसल-चक्र सिद्धांत के विरुद्ध किया नवाचार
‛द बेटर इंडिया’ से बात करते हुए 43 वर्षीय इशाक अली बताते हैं, “31वर्ष पूर्व पहले खरीदी इस जमीन में कुंआ खुदवाकर पिताजी ने मिर्च, अरण्डी और कपास की खेती शुरू की। कभी मिलवा तो कभी एकल फसल के रूप में हम लोग सौंफ की सीधी बुवाई भी करते रहे।"
इशाक ने नवाचार अपनाते हुए धीरे-धीरे मिर्च की तरह भूमि के कुछ भाग में रोपनी विधि से सौंफ की खेती भी शुरू की। जब मुनाफ़ा मिलने लगा तो 2005-06 से उन्होंने इस खेत पर सभी दूसरी फसलें लेना छोड़कर सिर्फ सौंफ पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया।
सिर्फ एक ही फसल लेने का उनका यह फैसला फसल-चक्र सिद्धांत के विरुद्ध था, लेकिन सौंफ की दो फसलों के बीच भूमि खाली छोड़ने पर प्राकृतिक घास-फूस या पशुचारा बोने से वह फसल-चक्र में हल्का सा बदलाव भी लाते रहे हैं। इस लिहाज से उन्हें सौंफ की परम्परागत उपज में कहीं कोई कमी नहीं दिखी।
फसल की बुवाई में अपनाया नवाचार
सौंफ की खेती में पहले-पहल कतार से कतार की दूरी 3 फीट रखी जाती थी। जब पौधे पूरी तरह फलने-फूलने पर आते, तब मजदूरों को चलने-फिरने में अड़चन पेश आया करती। इतना ही नहीं एक पौधे में रोग लगने पर वही रोग पास की कतार में लगे सभी पौधों में भी फैल जाता। यह बड़ी भारी समस्या थी जिसे उन्होंने बहुत भुगता।
इशाक अली ने कृषि विज्ञान केंद्र, सिरोही के पौधरोग विज्ञानी से इस मामले में सलाह मांगी, उन्होंने रासायनिक छिड़काव के अलावा कतार से कतार की दूरी को थोड़ा सा बढ़ाने की बात कही।
यहां पर उन्होंने मिली हुई सलाह में अपनी समझबूझ के आंकड़ों को मिलाते हुए अगली रोपणी के समय कतारों के बीच क्रमशः एकांतर रूप से 7 फीट और 4 फीट की दूरी कर दी। इतना ही नहीं, एक कतार में दो पौधों के बीच दूरी 1 फीट से बढ़ाकर डेढ़ फीट कर दी। उन्हें इस तकनीक को लागू करने के बाद होने वाले फायदों का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था। पर इस बदलाव से सौंफ की खेती में फायदों का एक नया अध्याय खुल गया।
हुए बहुत सारे फायदे
सौंफ में ज्यादातर बीमारियां नमी, आद्रता और ज्यादा पानी देने की वजह से होती हैं। इसके चलते सौंफ में मुख्य रूप से झुलसा, कालिया, गमोसीड, गोंदिया, माहू जैसी बीमारियों का प्रकोप रहता है। क्यारी से क्यारी के बीच की दूरी बढ़ने से इन बीमारियों का हल बिना किसी लागत के हो गया।
क्यारी से क्यारी के बीच की दूरी बढ़ने से फसलों को खुलापन मिला जिसकी वजह से नमी की मात्रा में गिरावट आई, सूर्य का प्रकाश भी पूरी तरह फसलों को मिलने लगा। फलस्वरूप सर्दियों में पड़ने वाली ओस भी जल्दी सूखने लगी क्योंकि यही नमीं ज्यादा समय तक रहने से बीमारियां जन्म लेती हैं।
प्रति हैक्टेयर रोपे जाने लायक रोपणी पौधों की संख्या भी कम हुई जिसके चलते कतारों के बीच फालतू जमीन में सिंचाई करने के श्रम से भी मुक्ति मिल गई। फायदा यह हुआ कि फालतू की खरपतवार भी नहीं उगी और पानी भी बचा। किसान द्वारा किए जा रहे अतिरिक्त श्रम में भी कमी आई।
अब पौधों के बीच रहने वाले खुलेपन की वजह से फसलों में किसी तरह का कोई भी रोग नहीं फैलता और सौंफ के पकने पर फेनल (अम्बेल/गुच्छों) को चुनने में भी मजदूरों को सहूलियत होने लगी है।
पुरानी पद्धति के मुकाबले खर्च चार गुणा कम हुआ
इस नई विधि द्वारा सौंफ की खेती करने पर खेत में पुरानी पद्धति के मुकाबले 3 से 4 गुणा खर्चा भी कम हो गया और उपज भी उम्दा किस्म की मिलने लगी। इस नवाचार के दौरान इशाक अली को कई नए अनुभव भी प्राप्त हुए।
वे बताते हैं,“अब मैं अच्छी अम्बेलों को चुनकर सालों साल बीज सुधार पर काम कर रहा हूँ। मैं इस बीज को रिजर्व रखता हूँ। कई बार ज्यादा बारिश के कारण रोपणी वाली क्यारियों की शिशुपौध गल जाती है, इसलिए रोपणी की क्यारियां भी थोड़े-थोड़े समय बाद बोता हूँ, जो मुझे मेरी जरूरत से ज्यादा पौधे देती हैं।”
पड़ोसी राज्य गुजरात के मेहसाणा, बनासकांठा, साबरकांठा सहित पड़ोसी गाँव भुला, वालोरिया, शिवगंज, रेवदर, सिरोही जिले सहित उदयपुर के आदिवासी समुदाय के किसान भाई 9 फीट गुणा 6 फीट की एक क्यारी धरो (रोपणी) को एक हजार रूपया भाव से खरीदते हैं। पर इशाक ने पिछले कई सालों से रोपणी के भाव नहीं बढ़ाए।
वह कहते हैं,“भाव बढ़ाना तो दूर की बात इन आदिवासी बहुल इलाकों के किसानों की आर्थिक स्थिति देखकर मैं इससे भी कम में दे देता हूँ। व्यवसाय के साथ-साथ हमें परोपकारी भी तो होना चाहिए।”
बुवाई का गणित
इशाक एक क्यारी में औसतन 150-200 ग्राम बीज एक बीघे में डाले जाते हैं और अलग अलग 3 चरणों 10 जून, 20 जून और 30 जून के आसपास सौंफ की बीजाई की जाती है, ताकि अलग-अलग उम्र की पौध तैयार हो जाए। यदि मानसून के अनुसार देरी से रोपणी लगानी भी पड़ जाए तो भी किसान को कोई नुकसान नहीं हो। दूसरी तरफ छिड़काव पद्धति में खेती करने पर एक बीघा में 4 से 5 किलो बीज लगता है।
यहां ध्यान रखने की खास बात यह है कि खेत की कतारों पर 45 दिन से ज्यादा उम्र की रोपणी कभी भी नहीं लगानी चाहिए। अगर बारिश पर्याप्त नहीं होती हो और कतारबद्ध रोपाई में देरी हो जाती हो तो प्रथम चरण की क्यारियों को हटा देना चाहिए।
वे एक सीजन में सौंफ की खेती में 10 से 12 सिंचाई ही करते हैं। उनके खेत का कुंआ 75 फीट ही गहरा है, क्योंकि पहाड़ी ढलानों का पानी डैम में भरने से सालभर पानी उपलब्ध रहता है।
नर्सरी तैयार करते वक़्त याद रखें
सौंफ की नर्सरी तैयार करते वक़्त कुछ बातें ध्यान रखने योग्य हैं-
■ गर्मी में ज़मीन को बार-बार जुताई करते रहें, लेकिन बीजाई के वक्त 40 डिग्री सेण्टीग्रेड तापमान पर भी छाया नहीं करनी चाहिए और न ही दोपहर में सिंचाई की जानी चाहिए। ऐसा करने से पौधे तापमान सहने के अनुकूल हो जाते हैं।
■ इसके विपरीत यदि सौंफ की नर्सरी ग्रीनहाउस में लगाते हैं तो ऐसे तैयार पौधों में रोपणी के समय तापमान बदलाव के प्रति सहनशक्ति कम होने से रोपनी के पौधे मरने का डर रहता है, जबकि खुली नर्सरी के पौधे तापमान के अंतराल को सहन कर सकने में सक्षम होते हैं।
■ बीजाई के पहले या साथ में नर्सरी क्यारी में डीएपी डालकर रैक (पंजाली) से दो बार उलट-पलट कर देना चाहिए, ताकि बीज एक इंच गहराई में चले जाएं। इससे ज्यादा गहरे गए बीज नहीं उगते।
■ आम तौर पर 27-28 जुलाई से अगस्त के पहले सप्ताह तक रोपणी कर देनी चाहिए।
■ सौंफ की खेती दिखने में जीरे की खेती के समान है, लेकिन सर्दी में भी सौंफ की खेती को 10-12 दिन में एक बार सिंचाई की जरूरत पड़ती है।
■ अगस्त में रोपी गई सौंफ की फसल अप्रैल के आधे महीने तक खड़ी रह सकती है। जनवरी से अप्रैल तक हर पांचवें दिन अम्बेल (फूंदका) की तुड़ाई (खुंटाई) जरूरी है।
■ इससे ज्यादा दिन रखने पर बीज सौंफ का रंग बदलकर गुणवत्ता गिर जाती है। औसतन महीने में 7 बार खुंटाई होती है। तीन महीनों में 20 से 24 बार खुंटाई हो जाती है।
इस तरह गिरती है सौंफ की गुणवत्ता
परम्परागत तौर पर किसान सौंफ की एक बार तने समेत कटाई करते हैं, उसमें ज्यादा पककर झड़ी हुई, अधपकी, बिल्कुल कच्ची और फुलवारी भी साथ में निकलती है जो साथ मिलकर क्वालिटी को गिरा देती है। इस तकलीफ से बचने के लिए उन्होंने तैयार अम्बेलों को चुन-चुनकर ‘ड्राइंग वायर’ पर लटकाकर सूखाने की तरकीब निकाली।
इसमें समय तो ज्यादा लगता है लेकिन उम्दा किस्म की सौंफ अलग-अलग समय में कम लेबर खर्च में पहले की बजाय ज्यादा मिलती है।
इस आधुनिक तकनीक के चलते सौंफ की प्रति हैक्टेयर उत्पादकता बढ़ी है। वर्ष 2006-07 में 14 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की बजाय वर्ष 2010-11 में 29.73 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की उपज मिली और अलग-अलग समय परिपक्व फनेल (फूंदका) तोड़ने से शत-प्रतिशत गुणवत्ता की सौंफ के भाव भी बहुत अच्छे मिलने लगे। गत वर्ष उनकी उपज 33 क्विंटल प्रति हेक्टेयर थी।
‘आबू सौंफ 440’
इस प्रकार इस किसान ने अपनी बुद्धिमत्ता से साल-दर-साल सौंफ के अच्छे बीज का चयन करते हुए आबू क्षेत्र की सौंफ में एक नई किस्म जोड़ दी, जिसे आज ‘आबू सौंफ 440’ नाम की एक श्रेष्ठ किस्म के रूप में जाना जाता है।
आज यह किस्म गुजरात, राजस्थान के करीब 4000 हैक्टेयर क्षेत्र में बोई जा रही है।
वह बताते हैं,“मैं अकेला ही हर साल सौंफ का 10 क्विंटल बीज बेच देता हूँ।”
सौंफ की इस नवाचारी खेती से कई फायदे हुए हैं, जुड़वां कतार में पौधरोपणी विधि के कारण पानी की 55 फीसदी बचत हुई है। इलाके के अधिकांश किसानों ने इस उन्नत विधि को अपनाकर अपनी आय में बढ़ोतरी की है।
उन्नत किस्म के जरिये आंकड़ों के मुताबिक 90 फीसदी उपज बढ़ी है, यानी दुगुनी उपज से भी ज्यादा और गुणवत्ता के कारण भावों में तो इससे भी ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। स्थानीय किसानों के अलावा कई शोध संस्थानों के अधिकारियों, पत्रकारों, प्रगतिशील किसानों ने यहां विजिट करके खेती के गुर समझे और सीखे हैं।
पिता के साथ मिलकर बनाई मशीन
इस प्रगतिशील किसान ने पिता और स्थानीय लुहार की मदद से एक थ्रेशर कम ग्रेडर मशीन बनाने में भी सफलता प्राप्त की। आज सौ से ज्यादा मशीनें इस इलाके के किसानों द्वारा काम ली जा रही हैं।
वे आज सौंफ प्रसंस्करण और स्वयं सहायता समूहों के जरिये सहकारी विपणन व्यवस्था के लिए प्रयासरत हैं।
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इशाक अली से संपर्क करने के लिए आप 09413818031 पर कॉल कर सकते हैं या फिर उन्हें [email protected] पर ईमेल कर सकते हैं।
सौंफ की खेती के बारे में अधिक जानकारी के लिए आप इशाक अली का ब्लॉग भी पढ़ सकते हैं।
संपादन - मानबी कटोच