"लगभग 11 साल पहले जीभ के कैंसर के कारण, मुझे दो-तीन अस्पतालों में कह दिया गया था कि मेरा इलाज नहीं हो सकता है। जीने के लिए मेरे पास ज्यादा समय नहीं है, इसलिए मैं अपना बचा हुआ समय अपने घर-परिवार के साथ बिता लूँ। वह वक्त मुश्किल था और मैं सिर्फ यही सोचता था कि अगर मैं ठीक हो गया या मुझे जीने का दूसरा मौका मिला, तो उसे मैं लोगों की भलाई के लिए समर्पित करूँगा। इसलिए, काफी संघर्ष के बाद जब मैं ठीक होने लगा, तो मैंने तय कर लिया कि मुझे दूसरों के लिए कुछ करना है।" यह कहना है उत्तराखंड में रहने वाले डॉ. नितिन पांडे का।
देहरादून में एक प्राइवेट क्लिनिक चला रहे, 59 वर्षीय डॉ. नितिन ने ‘आर्म्ड फोर्स मेडिकल कॉलेज’ से अपनी एमबीबीएस की डिग्री पूरी की। इसके बाद, उन्होंने कुछ समय आर्मी में अपनी सेवाएं दी। साल 2009 में, उन्हें अपने जीभ के कैंसर के बारे में पता चला, जिसके बाद उनकी जिंदगी बिल्कुल ही बदल गयी।
वह बताते हैं कि अपने इलाज के बाद जब वह देहरादून लौटे, तो उन्होंने देखा कि इलाके में हरियाली कम हो गई है। लोग अंधाधुंध पेड़ काट रहे थे, जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा था। डॉ. नितिन ने इस विषय में कुछ करने की ठानी।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए डॉ. नितिन कहते हैं, “स्वस्थ जिंदगी के लिए जरूरी है कि हम प्रकृति के साथ एक संतुलन स्थापित करें। इसलिए, मैंने सबसे पहले पर्यावरण के लिए कुछ करने का फैसला किया। इस विषय पर अपने जानने वालों और कुछ दोस्तों के साथ चर्चा की और उनके साथ से 'सिटीजन्स फॉर ग्रीन दून' की शुरुआत की।”
लगाए 60 हजार से ज्यादा पेड़-पौधे:
लोगों के बीच कैंसर के बारे में जागरूकता फैलाने के साथ-साथ, डॉ. नितिन ने उन्हें पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाने पर भी ध्यान दिया। वह कहते हैं, "हमारे आसपास कितने पेड़-पौधे घटे या बढ़े हैं, इस पर लोगों का ध्यान नहीं जाता है। जबकि यह बहुत जरूरी है कि अगर हमारे क्षेत्र में कोई पेड़ों को काट रहा है, तो हम सवाल उठायें और पेड़ों को कटने से बचाएं। यह लोगों की पर्यावरण के प्रति असंवेदनशीलता ही है, जो आज हम इस स्थिति में पहुँच गए हैं।"
उनके साथ इस मुहिम में हिमांशु अरोड़ा, अनीश लाल, रूचि सिंह, जया सिंह और लक्षा मेहता भी जुड़ी हुई हैं। ये सब लोग अलग-अलग कार्यक्षेत्रों से जुड़े हुए हैं। लेकिन 'सिटीजन्स फॉर ग्रीन दून' के जरिए, न सिर्फ देहरादून में पौधरोपण का काम करते हैं बल्कि पेड़ों को कटने से बचाने के लिए कोर्ट में अर्जियां भी देते हैं।
53 वर्षीया लक्षा मेहता एक गृहिणी हैं और शुरूआत से ही संगठन के साथ जुड़ी हुई हैं। उन्होंने बताया, "हम पीढ़ियों से देहरादून में रह रहे हैं। यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपने शहर को और इसकी हरियाली को बचाएं। पहले अगर कहीं पेड़ कटता था तो कोई कुछ नहीं कहता था। क्योंकि हमें लगता था कि हम कैसे पेड़ों को कटने से रोक सकते हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं है। हमारी टीम के अगर किसी एक सदस्य को भी कहीं कोई पेड़ कटता दिखता है तो हम तुरंत ऐसा होने से रोकते हैं। क्योंकि जब तक हम लोग आवाज नहीं उठाएंगे, बदलाव नहीं आएगा।"
‘सिटीजन्स फॉर ग्रीन दून’ के कारण, शहर में लगभग 20 हजार पेड़ों को बचाया गया है। साथ ही, अब तक यह संगठन 60 हजार से ज्यादा पेड़-पौधे लगा चुका है। वह बताते हैं, "हमने देहरादून में और आसपास के इलाकों में 60 हजार पेड़ लगाए हैं, जिनमें से लगभग 85% पेड़ स्वस्थ हैं। हमारा पौधरोपण अभियान लगातार जारी है। आज हमारी इस मुहिम के साथ, लगभग पांच हजार लोग जुड़ चुके हैं।"
उनकी टीम स्कूल-कॉलेजों में जाकर भी छात्रों को ज्यादा से ज्यादा पेड़-पौधे लगाने के लिए प्रेरित करती है। उनका उद्देश्य, जितना हो सके युवाओं को इस मुहिम से जोड़ना है, ताकि आने वाले भविष्य को संवारा जा सके। डॉ. नितिन कहते हैं कि यह काम इतना आसान नहीं है। अपने अभियानों के लिए उन्हें फंडिंग के अलावा, और भी कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जैसे कि लोगों का रवैया! कोई इंसान आसानी से अपने व्यवहार में परिवर्तन नहीं ला सकता है। सबसे बड़ी मुश्किल तो यह है कि बहुत से लोग बदलना ही नहीं चाहते हैं।
लक्षा ने कहा, "कई बार तो पौधरोपण करने में भी खासी परेशानी आती है। क्योंकि लोग नहीं चाहते कि उनके घरों, दुकानों के बाहर पेड़ लगाए जाएं। इसके पीछे उनके अपने-अपने कारण होते हैं। हमें प्रशासन से भी खास सहयोग नहीं मिलता है। इसलिए, हमारे पास कोर्ट में अर्जी डालने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।” लेकिन वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो इस मुहिम में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं और पर्यावरण को बचाने में जुटे हैं।
वे सबसे यही कहते हैं कि अगर कहीं पेड़ों को कटता देखें तो तुरंत इसके खिलाफ आवाज उठाएं। इसके अलावा, बारिश के मौसम में कहीं घूमने निकलें तो अपने साथ अलग-अलग पेड़-पौधों के बीज ले लें या फिर छोटे पौधे और जहां खाली जगह दिखे, लगा दें। बारिश के मौसम में बीज हों या पौधे, आसानी से पनप जाते हैं। इसलिए इस मौसम में पर्यावरण के लिए योगदान अवश्य दें।
महिला सशक्तिकरण की मुहिम:
डॉ. नितिन पांडे बताते हैं कि ‘देहरादून इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी’ में, 'सिटीजन्स फॉर ग्रीन दून' की तरफ से कराये गए एक जागरूकता अभियान प्रोग्राम के दौरान, उनकी मुलाकात एक युवा इंजीनियर, श्रुति कौशिक से हुई। साल 2013 में, श्रुति के साथ मिलकर ही उन्होंने 'सहेली ट्रस्ट' की नींव रखी। जिसके जरिए, अब तक लगभग पांच हजार महिलाओं की शिक्षा और रोजगार के लिए मदद की जा चुकी है। 30 वर्षीया श्रुति बताती हैं कि उन्होंने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की है। लेकिन, वह हमेशा से ही लोगों के लिए कुछ करना चाहती थीं। अपनी पढ़ाई के दौरान भी उन्होंने बहुत से सामाजिक संगठनों के साथ काम किया।
इसलिए, जैसे ही उन्हें डॉ. नितिन पांडे का साथ मिला, तो उन्होंने महिलाओं के विकास के लिए अपना संगठन शुरू कर दिया। डॉ. नितिन और श्रुति के मार्गदर्शन में, आज इस ट्रस्ट द्वारा महिलाओं के लिए कई तरह के प्रोग्राम चलाये जा रहे हैं। श्रुति कहती हैं, "हमने शुरुआत में ग्रामीण इलाकों की महिलाओं को हस्तशिल्प का काम सिखाया और उनके बनाए उत्पादों को बाजार तक पहुंचाने लगे। धीरे-धीरे, हमारे पास ऐसी महिलाएं भी आने लगी जिनके साथ घरेलू हिंसा और शारीरिक उत्पीड़न हुआ है। हम इन महिलाओं को आश्रय देने के साथ-साथ, क़ानूनी मदद भी दिलाते हैं।"
इसके अलावा, इन महिलाओं को शिक्षा और रोजगार से जोड़ा जाता है। सहेली ट्रस्ट द्वारा चलाए जा रहे आश्रय गृह में, फिलहाल 16 लडकियां रह रही हैं। यह संख्या घटती-बढ़ती रहती है। इन सभी को मुफ्त में आश्रय, खाना, शिक्षा आदि दी जाती है और उनकी अन्य जरूरतों का भी ख्याल रखा जाता है। इसके अलावा, ट्रस्ट द्वारा ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की शिक्षा के लिए भी अभियान चलाया जा रहा है। उनकी टीम गाँव-गाँव जाकर लड़कियों को पढ़ाती है। अगर कोई परिवार अपनी बेटी की शिक्षा के लिए साधन नहीं जुटा सकता है, तो उनकी बेटियों को किताब, कंप्यूटर कोर्स और अन्य चीजों के लिए मदद दी जाती है।
पिछले तीन सालों से सहेली ट्रस्ट की मदद से पढ़ाई कर रहीं 24 वर्षीया खतीजा बताती हैं, "मैं फिलहाल मास्टर्स डिग्री कर रही हूँ और साथ ही, सरकारी नौकरियों की तैयारी में भी जुटी हुई हूँ। मेरे माता-पिता खेतों में मजदूरी करते हैं। सहेली ट्रस्ट की मदद से, मैंने कंप्यूटर और इंग्लिश स्पोकन क्लास की है और उनसे मुझे मेरी तैयारी के लिए किताबें भी मिलती हैं।" पढ़ाई के साथ-साथ, वे महिलाओं को रोजगार से भी जोड़ते हैं। जिसके लिए महिलाओं को अलग-अलग हुनर सिखाए जाते हैं। हेंडीक्राफ्ट के अलावा, उन्होंने बहुत सी महिलाओं को गाड़ी चलाने की ट्रेनिंग भी दी है।
आज बतौर प्राइवेट ड्राइवर काम कर रहीं 38 वर्षीया राधा कहती हैं, "मैं साल 2014 में सहेली ट्रस्ट से जुड़ी थी। मैं घरेलू हिंसा की शिकार थी। ऐसे में मुझे अपनी बेटी को पढ़ाना था। मैंने सहेली ट्रस्ट से मदद मांगी। उन्होंने मुझे न सिर्फ बचाया बल्कि क़ानूनी तौर पर भी मदद की और फिर कई सालों तक मैं उनके साथ ही रही। मैंने वहां पर मार्केटिंग का काम सीखा और उनके हेंडीक्राफ्ट उत्पादों की बिक्री का काम किया। दो-तीन साल बाद, उन्होंने मुझे गाड़ी चलाना सीखने में भी मदद की।"
वह बताती हैं कि सहेली ट्रस्ट ने उनकी बेटी की शिक्षा में काफी मदद की। एक वक्त था जब राधा पूरी तरह से सहेली ट्रस्ट पर निर्भर थीं। लेकिन, आज वह खुद सशक्त हैं और अपनी बेटी को अच्छे से पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा करना चाहती हैं।
कोरोना महामारी के मुश्किल वक्त में भी डॉ. नितिन और उनकी टीम, हर संभव तरीके से लोगों की मदद करने की कोशिश कर रही है। डॉ. नितिन कहते हैं कि यह मुश्किल समय है, इसलिए यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम अपने साथ-साथ, दूसरों का भी ख्याल रखें। बहुत से लोगों को हमारी और आपकी मदद की जरूरत है, इसलिए अपना ध्यान रखते हुए लोगों की मदद करने की कोशिश जरूर करें।
डॉ. नितिन पांडे और उनकी टीम से संपर्क करने के लिए आप उन्हें info@sahelitrust.com पर ईमेल कर सकते हैं।
संपादन- जी एन झा
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