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"बचपन में मैं अपने पिताजी को अखबार पढ़कर सुनाया करती थी। चूंकि मेरे पिताजी पढ़ नहीं पाते थे, इसलिए मैं ही उन्हें कई किताबों से रोचक कहानियां पढ़कर सुनाया करती थी। मैं अपने रिश्तेदारों को उनकी चिट्ठियां लिख कर देती थी। शायद इन्हीं कारणों से, किताबों में मेरी दिलचस्पी बढ़ती गयी। इसलिए, जब मुझे लाइब्रेरी में काम करने का मौका मिला, तो मैंने ज्यादा सोचा नहीं।", यह कहना है केरल की केपी राधामणि का।
केरल के वायनाड जिले में मोदक्करे (Mothakkara) की रहने वाली 64 वर्षीय राधामणि, स्थानीय प्रतिभा पब्लिक लाइब्रेरी के साथ काम करती हैं। दिलचस्प बात यह है कि उनका काम लाइब्रेरी में बैठकर लोगों को किताबें देना नहीं है बल्कि वह घर-घर जाकर लोगों को किताबें पहुँचाती हैं। इस काम के लिए, वह हर रोज लगभग चार किलोमीटर पैदल चलती हैं।
द बेटर इंडिया के साथ बात करते हुए उन्होंने बताया, "मुझसे कई बार लोग पूछते हैं कि मैं उन तक किताबें पहुंचाने के लिए, किसी वाहन का इस्तेमाल क्यों नहीं करती। इसके दो कारण हैं – पैदल चलना और प्रकृति। चलना सेहत के लिए अच्छा होता है। सच कहूं, तो एक्टिव रहने के कारण ही मैं इस उम्र में भी स्वस्थ हूँ। जब मैं आसानी से चल सकती हूँ, तो किसी वाहन का प्रयोग करके प्रदूषण क्यों बढ़ाया जाए। इसलिए, मैं पैदल ही सब घरों में किताबें देकर आती हूँ।"
मात्र दसवीं कक्षा तक पढ़ी, राधामणि ज्यादा से ज्यादा लोगों को किताबों से जोड़ना चाहती हैं। उन्होंने कहा, "पहले हम कोट्टयम में रहते थे। वहीं पर मेरी पढ़ाई हुई और फिर 1978 में, हम वायनाड आ गए। यहाँ आने के छह महीने बाद ही मेरी शादी हो गयी।"
उन्होंने कहा कि उनके पति के पास कभी कोई स्थायी काम नहीं रहा। इसलिए घर-परिवार की जिम्मेदारियां बढ़ने पर, उन्होंने खुद घर से बाहर निकलकर काम करने का फैसला किया। लाइब्रेरी ज्वॉइन करने से पहले, उन्होंने और भी कई जगह काम किया। राधामणि ने बताया कि उन्होंने 1985 से लेकर 2008 तक, एक 'बालवाड़ी' शिक्षिका के रूप में काम किया। वह आसपास के इलाकों में रहने वाले, आदिवासी परिवारों के बच्चों को पढ़ाया करती थीं। इसके बाद, वह और भी कई संगठनों से जुड़ गईं जैसे- ‘कुदुंबश्री’ और ‘वायनाड सोशल सर्विस सोसाइटी’ आदि।
लोगों के लिए बन गयी 'चलती-फिरती' लाइब्रेरी:
राधामणि ने आगे बताया कि साल 2012 में, उन्होंने लाइब्रेरी में काम करना शुरू किया। वैसे तो यह लाइब्रेरी साल 1961 में बनी थी। लेकिन लोगों का इससे नियमित रूप से जुड़ना, कुछ साल पहले से ही संभव हो पाया है। खासकर कि महिलाओं का। वह कहती हैं, "महिलाओं को किताबों और लाइब्रेरी से जोड़ने के लिए, 'केरल स्टेट लाइब्रेरी काउंसिल' ने एक खास पहल की शुरुआत की। अगर महिलाएं लाइब्रेरी नहीं आ सकतीं, तो हमें किताबों को महिलाओं तक ले जाना चाहिए। यह पहल महिलाओं के लिए शुरू हुई थी, लेकिन अब बच्चे और बड़े-बुजुर्ग भी मुझसे किताबें लेते हैं।"
पहले इस पहल का नाम 'वनिता वयना पद्धिति' (Women’s Reading Project) था और अब इस पहल को 'वनिता वयोजका पुस्तक वितरण पद्धिति' (Book Distribution Project for Women and Elderly) के नाम से जाना जाता है। इस पहल के अंतर्गत राधामणि पिछले आठ सालों से, लोगों के घर-घर जाकर किताबें पहुँचा रही हैं। वह कहती हैं, "मैं सुबह साढ़े पाँच बजे उठ जाती हूँ और घर का काम करने के बाद, लाइब्रेरी जाती हूँ। इसके बाद, कपडे के थैले में लाइब्रेरी से कुछ किताबें लेकर, उन्हें घर-घर देने जाती हूँ। मुझसे जो भी महिलाएं किताबें लेती हैं, उनका नाम, किताब का नाम और तारीख आदि जरूरी सूचनाओं को लिखने के लिए, मैं हमेशा अपने साथ एक रजिस्टर रखती हूँ।"
राधामणि रोजाना 40 घरों में किताबें देने के लिए, लगभग चार किलोमीटर की पैदल यात्रा करती हैं। वह बताती हैं कि घर पर ही किताबें पहुँच जाने से, किताबें पढ़ने के प्रति महिलाओं का रुझान बढ़ा है। उनसे किताबें लेने वाली विंध्या कहती हैं, "मुझे पढ़ना अच्छा लगता है, लेकिन घर की जिम्मेदारियों के कारण, मुझे सिर्फ रात को ही किताबें पढ़ने का समय मिल पाता है। इसलिए, मैं पहले नियमित रूप से लाइब्रेरी भी नहीं जा पाती थी। कभी-कभार लाइब्रेरी जाने का मौका मिलता, तो मैं कई किताबें घर ले आती थी। पर अब ऐसी कोई परेशानी नहीं है, क्योंकि राधामणि जी मुझे समय से किताबें दे जाती हैं।"
राधामणि बताती हैं कि लाइब्रेरी से कुल 102 लोग जुड़े हुए हैं, जिनमे से 94 महिलाएं हैं। आजकल ज्यादातर महिलाएं कामकाजी होती हैं। इस वजह से, वे दिनभर ऑफिस में ही रहती हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए, राधामणि ने खुद उन महिलाओं तक रविवार को किताबें पहुँचाने का फैसला किया। इसलिए, वह रविवार की जगह सोमवार को छुट्टी लेती हैं।
राधामणि कहती हैं कि पहले महिलाएं सिर्फ अखबार के साथ आने वाली मैगज़ीन ही पढ़ती थीं। लेकिन, वे अब उपन्यासों में भी दिलचस्पी लेने लगी हैं। स्कूल-कॉलेजों में पढ़ने वाली लडकियां, सरकारी नौकरी की तैयारी के लिए उनसे किताबें मंगवाती रहती हैं। इन किताबों की कीमत 300-400 रुपए तक है। लेकिन मात्र पाँच रुपए मासिक फीस देकर, कोई भी इस लाइब्रेरी की किताबें पढ़ सकता है। राधामणि महीने में 500-550 किताबें लोगों तक पहुँचा रही हैं।
उन्होंने कहा, "कोरोना महामारी को ध्यान में रखते हुए, फिलहाल ज्यादा काम नहीं करना पड़ता। कोरोना के बढ़ते मामलों की वजह से, फिलहाल, मैं रोजाना सिर्फ 20 घरों में ही जाती हूँ। इस दौरान, मैं अपनी और दूसरों की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखते हुए, सोशल डिसटेंसिंग तथा मुंह पर मास्क लगाने जैसे सभी निर्देशों का पालन करती हूँ।"
उन्होंने आगे कहा, "मुझे पैदल चलने से कोई थकान नहीं होती। पर हां! कभी-कभी किताबों का वजन थोड़ा ज्यादा हो जाता है। लेकिन, जब लोग मुझे किताबें लौटाते हैं और बताते हैं कि उन्हें किताब में क्या पसंद आया तथा वे और कौन सी किताब पढ़ना चाहते हैं, तो उनकी बढती दिलचस्पी देखकर, मैं किताबों का वजन और थकान जैसी परेशानियां भी भूल जाती हूँ। मुझे इस बात की ख़ुशी है कि मैं ज्यादा से ज्यादा लोगों को किताबों से जोड़ पा रही हूँ।"
'वाकिंग लाइब्रेरियन' के तौर पर काम करने के अलावा, राधामणि टूरिस्ट सीजन में लोकल गाइड के रूप में भी काम करती हैं। इसके अलावा, उन्होंने हर्बल साबुन बनाने की भी ट्रेनिंग ली हुई है और जब कभी उन्हें समय मिलता है, तो वह साबुन बनाकर बेचती हैं। उन्होंने बताया कि घर की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के लिए, वह अलग-अलग जगह काम करती रही हैं। दो साल पहले, उन्होंने अपने पति के लिए किराने की दुकान भी खुलवाई, ताकि उनके परिवार के लिए एक स्थायी रोजगार हो सके।
अंत में वह सिर्फ यही कहती हैं, "महिलाओं को आगे बढ़ने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहिए। अगर वे अपने पैरों पर खड़ी हैं, तो इससे अच्छा और कुछ नहीं हो सकता है। महिलाएं सब कुछ कर सकती हैं, उन्हें बस खुद पर विश्वास होना चाहिए।"
यक़ीनन राधामणि हम सबके लिए प्रेरणा हैं और हमें उम्मीद है कि उनकी कहानी से बहुत से लोगों को हौसला मिलेगा।
संपादन- जी एन झा
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