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मेरे आवारा कदमों की ख़लिश मुझे, इस बार दिल्ली (Delhi To Leh) से -28 डिग्री सेल्सियस तापमान पर लद्दाख पहुंचा चुकी थी। हिमालय की आगोश में लिपटा यह पूरा इलाका चिल्लई-कलां से गुजर रहा था और मैं पर्यटन मंत्रालय के निमंत्रण पर कारगिल में नेशनल टूरिज़्म डे (25 जनवरी 2021) के आयोजन में शरीक होने की बेताबियां सीने में दबाए, देश की इस सबसे नौजवान यूटी (केंद्र शासित प्रदेश) में थी।
मैं यह सोचकर गई थी कि शायद पूरा लद्दाख कड़क सर्दी के इन महीनों में, घरों में बंद रहता होगा। सैलानी इन दिनों इस इलाके से तौबा कर लेते होंगे, बाज़ार सूने पड़ जाते होंगे और पूरी फिज़ा बर्फबारी के बाद, सफेदी की चादर ताने घनघोर आलस में डूबी रहती होगी।
मगर यह क्या? दिल्ली से लेह की उड़ान में सवार होते ही, मुझे खुद पर हंसी आई थी। विमान में लद्दाखी और कुछ हम जैसे सिरफिरे यात्री, सारी सीटों पर कब्जा जमाए हुए थे। मैंने चेक-इन के वक्त ही विमान में दायीं तरफ की विंडो सीट पर कब्जा कर लिया था। अब मैं खिड़की से नाक सटाए, दिल और कैमरा थामे डटी थी। विमान को उड़ान भरे अभी आधा घंटा ही बीता होगा कि लद्दाखी विंटरलैंड की झलकियाँ दिखने लगी। हम शिमला पार कर कुल्लू, बंजार, लाहौल-स्पीति के रास्ते हिमालय के बर्फ से ढके पहाड़ों, उनकी ओट में जमी झीलों, पहाड़ों की चोटियों से धीरे-धीरे सरकते ग्लेशियरों और उनसे जन्म लेती नदियों के अद्भुत नज़ारे अपनी आंखों में भर रहे थे। वो हसीन नज़ारे, जो बिना नाज़-नखरों के हमारी यादों के संग-संग हमारे कैमरा में भी सिमट रहे थे।
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'दुनिया की छत' की उड़ान
‘लद्दाख’ यानी ऊँचे पहाड़ी दर्रों का प्रदेश। इसका भूगोल कुछ ऐसा है कि यहां पहुंचने के लिए ऊँचे दर्रों को पार करना पड़ता है। मनाली से लेह तक के सड़क मार्ग में कुल पांच ऊँचे दर्रों - रोहतांग, बारालाचा (Baralacha La), नकीला और लाचुंग ला (Lachung La) से गुजरना होता है। जबकि कश्मीर की तरफ से जोजिला पास की चुनौती को लांघकर ही यहां पहुंचा जाता है। ये दोनों रूट सर्दियों में भीषण बर्फबारी के चलते बंद रहते हैं और इन दिनों सिर्फ हवाई मार्ग से ही लद्दाख पहुंचा जा सकता है। दिल्ली से लेह के 'कुशोक बकुला रिनपोछे एयरपोर्ट' तक की दूरी 1 घंटा 10 मिनट में पूरी होती है। इतनी सी देर में हम पहुंच जाते हैं करीब साढ़े ग्यारह हज़ार फीट पर, यानी हम दुनिया की छत पर होते हैं।
एयरपोर्ट से हमारे होटल ‘द ग्रैंड ड्रैगन लद्दाख’ की दूरी मुश्किल से 3 किलोमीटर थी। रास्ते में बर्फ से ढकी स्तोक कांगड़ी (Stok Kangri) रेंज और सुर्ख नीला आसमान, ठिठुरन से ज़र्द पड़ चुके पेड़, सड़कों पर दौड़ती गाड़ियां और बाज़ारों की चहलकदमियां, यह बताने के लिए काफी थीं कि लेह अपनी बेरहम ऊंचाई और भयंकर सर्दी के बावजूद आबाद था।
अगले दो रोज़ अक्लाइमटाइज़ेशन (Acclimatization) की भेंट चढ़ गए थे। यानी होटल में ही रहना, खाना-पीना, सोना, आराम करना और अपने शरीर को दुनिया की इस छत के हिसाब से ढालना जरूरी था। यह लद्दाख यात्रा का सबसे जरूरी पहलू है और इसे नजरअंदाज़ करना जोखिम भरा हो सकता है। लेह की हवा में ऑक्सीजन बहुत कंजूसी से घुली है और ऐसे में सांस लेना भी, यहां किसी चुनौती से कम नहीं होता। मैं धीरे-धीरे इसके अनुकूल हो रही थी। मगर मेरी फोटोग्राफर दोस्त कायनात को ऑक्सीजन लेनी पड़ी थी। यहां होटलों में ऑक्सीजन सिलेंडर का इंतज़ाम आम बात है। इस बीच, गार्लिक सूप और थुक्पा के दौर जारी थे। हम लगातार पानी और जूस भी पीते रहे थे।
एक तो कड़क सर्दी और ऊपर से अक्लाइमटाइज़ेशन का खेल, इस मेल को निभाना आसान नहीं था। मगर इन चुनौतियों के उस पार, एक अद्भुत बर्फानी मंज़र हमारे इंतज़ार में था।
दो रोज़ के अनुशासन को निभाने के बाद हम लेह की फर्राटा सड़कों को नापने के लिए तैयार थे। मोती मार्केट से कुछ गरम जुराबें और दस्ताने खरीदने के बहाने, हमारा शॉपिंग पुराण शुरू हो चुका था। फिर हम यहां से लेह मार्केट जा पहुंचे। दोपहर के बारह बजने वाले थे। मगर बाज़ार अभी अंगड़ाइयां ही ले रहा था। हमें ‘सेन्ट्रल एशियन म्यूजियम’ देखने जाना था, जो वैसे तो सर्दियों में 6 महीने तक बंद रहता है। मगर अतीत और धरोहरों में दिलचस्पी रखने वाले, हमारे जैसे दीवानों के अनुरोध पर खुलता भी है। लद्दाखी शैली में बनी इसकी तिमंजिला इमारत में गुज़रे जमाने के उस सिल्क रूट कारोबार की धड़कनों को महसूस किया जा सकता है। जिसके तार मध्य एशियाई देशों जैसे- चीन, मंगोलिया, अफ़ग़ानिस्तान से होते हुए भारत तक फैले थे। लद्दाख सिल्क रूट का अहम पड़ाव हुआ करता था और आज भी, यहां की जीवनशैली में इन इलाकों के कितने ही रंग सिमटे हुए हैं।
जमी हुई नदी पर पिकनिक
पारा इतना लुढ़क चुका था कि ज़ंस्कार नदी पर चादर ट्रैक शुरू हो चुका था। हम ट्रैकर न सही, मगर उस जम चुकी नदी का दीदार करने को उतावले हुए जा रहे थे, जो सर्दी में ज़ंस्कारियों के लिए हाईवे बन जाती है। लेह से करीब 35 किलोमीटर दूर निम्मू पर सिंधू और जंस्कार के संगम दर्शन कर, हम लेह-श्रीनगर हाइवे पर बढ़ चले थे। कुछ आगे जाकर जंस्कार नदी का बर्फीला तट, किसी मेज की सपाट सतह की तरह बिछा मिला और उस रोज़ हमारी महफिल यहीं जम गई। रुके तो थे फोटोशूट करने, मगर हमारे ड्राइवर अब्दुल ने कब चुपके से बर्फ पर ही पूरी पिकनिक का इंतज़ाम कर डाला, हमें पता भी नहीं चला। यह होटल वालों की कारस्तानी थी, जो उन्होंने लद्दाखी विंटरलैंड को वंडरलैंड में बदल डाला था।
पैंगोंग-त्सो और खारदूंगला जैसे आकर्षण यात्रियों के लिए खुले
लद्दाख-चीन सीमा पर स्थित खूबसूरत पैंगोग झील जनवरी 2021 से सैलानियों के लिए खुल चुकी है। इनर-लाइन परमिट लेकर आप झील का दीदार कर सकते हैं। परमिट, टूर ऑपरेटर के जरिए डीसी ऑफिस से आसानी से मिल जाता है। इसके लिए आपके पास आधार कार्ड/ वोटर पहचान पत्र/ ड्राइविंग लाइसेंस/ पासपोर्ट में से कोई भी एक सरकारी पहचान पत्र होना चाहिये।
दुनिया की सबसे ऊंची मोटरेबल (वाहन चलाने योग्य) सड़क, यानी 18380 फीट की ऊंचाई पर स्थित खारदूंग-ला के लिए भी इनर-लाइन परमिट जरूरी है।
बर्फानी मंज़र के लिए चेकलिस्ट
एक तो लद्दाख का भूगोल और उस पर हाड़-मांस गलाने वाली सर्दी, यह मेल बहुत आसान नहीं है। दिसंबर-मार्च के दौरान ‘लद्दाख इन विंटर’ वाला अनुभव लेना है, तो सूटकेस सावधानी से पैक करें और यह सब साथ ले जाना न भूलें। अगर कुछ भूल जाएं तो लेह के बाज़ार में धावा बोलें:
- विंडचीटर, डाउन जैकेट/ स्नो जैकेट, ऊनी कोट
- नैक वॉर्मर, टोपियां, मफलर, ग्लव्स (गरम दस्ताने)
- ऊनी इनर, फुल स्लीव्स टी-शर्ट (ऊनी और सूती), स्वेटर
- ऊनी जुराब, लैग वॉर्मर, स्नो बूट्स, नी हाई लैदर बूट्स
- सनग्लास
- लिप ग्लॉस, सन ब्लॉक क्रीम (50+एसपीएफ), मॉयश्चराइज़र, फेस स्क्रब
कोविड नेगेटिव रिपोर्ट
लद्दाख सैलानियों के लिए खुल चुका है लेकिन, कोविड टेस्ट्स जरूरी है। लेह हवाईअड्डे पर मुफ्त कोविड जांच के लिए कतार से बचना हो, तो अपनी ‘कोविड नेगेटिव रिपोर्ट’ साथ लेकर जाएं। याद रखें, यह रिपोर्ट 72 घंटे से ज्यादा पुरानी नहीं होनी चाहिए।
तो चलें! उस वंडरलैंड के सफर पर, जिसके आगे सर्दी के मौसम में ‘व्हाइट यूरोप’ भी उन्नीस ही ठहरता है!
संपादन – प्रीति महावर
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