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feeding stray animals

100 रोटी सुबह और 100 रोटी शाम को बनाकर, हर दिन जानवरों का पेट भरती हैं कोटा की सोनल गुप्ता

By सुजीत स्वामी

एक दिन एक छोटे से कुत्ते की जान बचाने के बाद, कोटा की सोनल गुप्ता की जैसे ज़िंदगी ही बदल गई। उन्होंने बेज़ुबानों के दर्द को महसूस किया और लॉकडाउन में उनका सहारा बनीं। इसके बाद वह शहर में श्वानों की सेवा करने के लिए जानी जाने लगीं। आज वह ‘GSM स्क्वाड’ नाम से अपना NGO चलाती हैं और अब तक 5000 से ज़्यादा पशुओं की जान बचा चुकी हैं।

कुएं में उतरकर, दीवारें चढ़कर बचाती हैं जानवरों को, रोज़ भरती हैं 800 बेजुबानों का पेट

By प्रीति टौंक

मंगलुरु की रहनेवाली रजनी शेट्टी, रोज़ 800 से ज्यादा सड़क पर रहनेवाले जानवरों के लिए खाना बनाती हैं। पढ़ें उनकी प्रेरक कहानी।

21 सालों से कर रही हैं सेवा, हर महीने रु. 20,000 खर्च कर, भरती हैं सैकड़ों बेजुबानों का पेट

By प्रीति टौंक

अहमदाबाद की 45 वर्षीया झंखना शाह पिछले 21 सालों से अपने आस-पास के इलाके के सैकड़ों कुत्तों और दूसरे जानवरों के लिए काम कर रही हैं।

गायों की तो सब सेवा करते हैं, पर ये युवक 2000 बैलों तक रोज़ पहुंचाते हैं खाना

By प्रीति टौंक

गाज़ियाबाद के यूथ नेटवर्क के युवाओ की पहल से आज, 10 हजार घरों से रोटियां और फल-सब्जियों के छिलके आदि कचरे में नहीं, बल्कि तीन चारा कार के माध्यम से सीधे नंदीगृह में जा रहे हैं।

हर दिन 25 किलो आटे की रोटियां बनाकर, भरते हैं 300 से ज़्यादा बेसहारा कुत्तों का पेट

By प्रीति टौंक

कच्छ के जशराज चारण, पिछले 25 सालों से सड़क पर फिरते कुत्तों और दूसरे जानवरों का पेट भरते आ रहे हैं। उनके घर पर हर रोज़ तक़रीबन 25 किलो आटे का इस्तेमाल करके, इन जानवरों के लिए खाना तैयार किया जाता है। उनका पूरा परिवार इस काम में उनका साथ देता है।

जानवरों के लिए खर्च करते हैं आधी से ज्यादा कमाई, जंगलों में भी जाकर खिलाते हैं खाना

By निशा डागर

आंध्र प्रदेश के कडप्पा जिले में रहनेवाले बाशा मोहीउद्दीन, पिछले 10 सालों से बेजुबानों के लिए खाने और पानी का इंतजाम कर रहे हैं।

वीकेंड पर लेती हैं खाने के ऑर्डर, उन पैसों से खिलाती हैं बेसहारा जानवरों को खाना

By निशा डागर

लुधियाना में रहने वाली रूह चौधरी, पिछले कई सालों से इको-फ्रेंडली तरीकों से अपना जीवन जी रही हैं और साथ ही, वह हर दिन लगभग 75 बेसहारा जानवरों को खाना खिलाती हैं।

आमदनी बहुत नहीं, पर लावारिस बेज़ुबानों को 20 वर्षों से खाना खिलाते हैं सुजीत

बेजुबानों की भावना हम नहीं समझेंगे तो फिर कौन सुनेगा। हमने उन्हें प्रकृति के विपरित मनुष्य पर निर्भर बना दिया है। आवारा जैसा नाम दे दिए हैं, जो कि बहुत ही गलत भाव है।