साल 1950 में आई मिनाक्षी अम्मल की ‘कुक एंड सी (cook and see)’ नाम की किताब हर दक्षिण भारतीय घर में आपको मिल जाएगी। शादी के बाद, हर गृहिणी को यह किताब दी जाती थी, जिसमें कई पारम्परिक व्यंजनों की रेसिपी लिखी थी। लेकिन अगर आज हम उस किताब को उठाकर देखें, तो शायद उनमें से कई चीज़ें बनाना मुश्किल हो गया है। क्योंकि उनमें दी हुई कई रेसिपीज़ में उपयोग की हुई सब्जियां अब बाजार में मिलती ही नहीं हैं।
बेंगलुरु के बीज रक्षक डॉ. प्रभाकर राव, हमारे देश की उन्हीं पारम्परिक सब्जियों को फिर से हमारी थाली तक लाने के प्रयास में लगे हुए हैं। साल 2011 से वह देश के अलग-अलग गावों और आदिवासी इलाकों में जाकर इन बीजों को जमा कर रहे हैं। इतना ही नहीं वह इन बीजों को फिर से किसानों के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए भी हर मुमकिन प्रयास कर रहे हैं।
वह कहते हैं, “देश में बढ़ रहे कोल्ड स्टोरेज के कारण, आज हम मौसमी सब्जियों को भूल ही चुके हैं। अब देश में हर सब्जी हर मौसम में मिलती है, जितनी भी सब्जियां हम खा रहे हैं, सभी हाइब्रिड हैं, जिसमें गुणवत्ता की बेहद कमी है। जबकि देसी मौसमी सब्जियां सेहत के लिए ज्यादा फायदेमंद होती हैं।”
कभी हाइब्रिड बीज और हरित क्रांति के लिए करते थे काम
दरअसल, डॉ. प्रभाकर ने प्लांट ब्रीडिंग और जेनेटिक्स में पीएचडी की पढ़ाई की है, जिसके बाद वह देश में हरित क्रांति लाने वाले वैज्ञानिकों के साथ काम भी कर रहे थे।
वह बताते हैं, “मैं उस समय का कृषि वैज्ञानिक हूँ, जब देश में हाइब्रिड बीज, फ़र्टिलाइज़र और ड्रिप इर्रीगेशन जैसे मुद्दों पर काम हो रहा था। उस समय हमारा ध्यान सिर्फ उत्पादन बढ़ाने में था। क्योंकि सरकार उस समय देश में फ़ूड सिक्योरिटी लाना चाहती थी, ताकि देश में कोई इंसान भूख से न मरे।”
हालांकि, हरित क्रांति से देश में उत्पादन बढ़ा और देश में फ़ूड सिक्योरिटी की समस्या बिलकुल ख़त्म हो गई। लेकिन डॉ. प्रभाकर मानते हैं कि इन सारे कामों का फायदा होने के साथ कुछ नुकसान भी हुआ। इस वजह से हमारे देसी बीज खो ही गए। यह बात उन्हें काफी परेशान भी कर रही थी कि शायद हाइब्रिड बीज खेती को सस्टेनेबल नहीं बना सकते। इसलिए उन्होंने साल 1980 में खेती छोड़कर आर्किटेक्ट बनने का फैसला किया। उन्होंने लैंडस्केप आर्किटेक्चर की पढ़ाई की और बाद में दुबई चले गए।
आर्किटेक्ट रहते हुए भी देसी बीज बचाते रहे प्रभाकर
प्रभाकर जब दुबई में थे, तब भी वह खेती से अपने लगाव के कारण इससे हमेशा से जुड़े रहे। वह बताते हैं, “जब भी मैं किसी दूर-दराज़ के इलाके में जाता, तो वहां से दुर्लभ सब्जियों के बीज इकट्ठा करता रहता था और बाद में उसे इंटरनेशनल सीड एक्सचेंज में भेज देता।”
लेकिन प्रभाकर हमेशा सोचते थे कि भारत में भी एक से बढ़कर एक सब्जियां हैं। हमारे देश में तो पंचांग के हिसाब से सब्जियां खाने की प्रथा रही है। क्योंकि समय के हिसाब से खाई जाएं, तो ये सब्जियां हमारे स्वास्थ्य के लिए काफी अच्छी होती हैं।
प्रभाकर बताते हैं कि सालों पहले दक्षिण भारत के प्रसिद्ध व्यंजन रसम को 60 अलग अलग तरीकों से बनाया जाता था। इन सभी में अलग-अलग पत्तेदार सब्जियों का उपयोग होता था। लेकिन आज हम टमाटर से बने रसम के अलावा और कुछ नहीं पकाते।
इसलिए प्रभाकर हमेशा अपने देश की उन देसी सब्जियों को याद करते और उन्हें फिर से किसानों के बीच लोकप्रिय करने के बारे में सोचते रहते थे। इसी सोच के साथ वह 2011 में काम छोड़कर दुबई से वापस भारत आ गए।
अर्बन गार्डनर के जरिए सब्जियों को फिर से लोकप्रिय करने का काम कर रहे हैं डॉ. प्रभाकर
वापस भारत आने के बाद, उन्होंने बेंगलुरु के पास करीबन ढाई एकड़ खेतों में गाय आधारित खेती की शुरुआत की। उन्होंने कुछ देसी बीज उगाना शुरू किया। देशभर के दूर-दराज़ के किसानों के पास जाकर वह देसी बीज इकट्ठा करने के काम में लग गए।
उनका मकसद, एक एकड़ से ज्यादा मात्रा में उत्पाद लेने के बजाय, अच्छी क्वालिटी की सब्जियां उगाना था। डॉ. प्रभाकर बताते हैं कि हमारे पास कई ऐसे अनाज हैं, जो कम मात्रा में भी शरीर के लिए ज्यादा फायदेमंद होते हैं।
एक उदाहरण देते हुए वह कहते हैं, “मैंने सोना मोती नाम की एक गेंहू की किस्म को फिर से किसानों के बीच लोकप्रिय बनाने का काम किया है। यह 2000 साल पुरानी किस्म के गेंहू हैं। इसका दाना गोल होता है और इसका रंग पीला होता है। मैंने इसे लुधियाना के पास के एक आश्रम से लिया था, जिसके बाद मैंने इसकी व्यवसायिक खेती शुरू कराई और अपने स्वास्थ्य लाभ के कारण यह 75 रुपये MSP में बिकने लगा। अगर एक इंसान छह रोटी खाता है, तो सोना मोती की दो रोटियां खाकर ही उसका पेट भर जाएगा और स्वास्थ्य लाभ भी अच्छा मिलेगा।”
सोना मोती के जैसे और हेल्दी बीजों को डॉ. प्रभाकर लोगों के बीच लाने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि कम जगह में ज्यादा स्वास्थ्यवर्धक चीजों की खेती को बढ़ावा मिले।
साल 2015 में उन्होंने ही एक बार फिर से लाल भिंडी की किस्म को जीवित करने में अहम भूमिका निभाई थी और आज देश के कई इलाकों, यहां तक कि होम गार्डन में भी लाल भिंडी उगाई जा रही है। डॉ. प्रभाकर मानते हैं कि उनके इस मिशन में अर्बन गार्डनर एक बेहद अहम भूमिका निभा सकते हैं।
जब लोग अपने गार्डन में इन दुर्लभ सब्जियों को उगाकर सोशल मीडिया में इसके बारे में बात करेंगे, तभी किसान भाइयों की रुचि इसमें बढ़ेगी और इसकी व्यवसायिक खेती शुरू हो पाएगी।
अगर आप भी अपने घर में सब्जियां उगा रहे हैं, तो डॉ. प्रभाकर से दुर्लभ बीज लेकर ज़रूर कुछ सब्जियां उगाने का प्रयास करें। आप डॉ. प्रभाकर के हरियाली सीड से संपर्क करने के लिए यहां क्लिक करें।
संपादन- अर्चना दुबे
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