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प्रेरणा देने वाली यह कहानी सेना से स्वेच्छिक़ सेवानिवृत्ति (Voluntary Retirement Scheme (VRS)ले चुके लेफ्टिनेंट कर्नल अनुराग शुक्ला की है, जो पिछले 15 सालों से जीवन को एक नई दिशा देने में जुटे हैं। इंदौर से थोड़ी ही दूर महू गांव में वह खेत में ही घर बनाकर रहते हैं। उनका जीवन अन्य लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बन चुका है।
अनुराग शुक्ला ने द बेटर इंडिया को बताया,“2005 में 43 वर्ष की उम्र में सेवानिवृत्ति लेकर इंदौर लौट आया। शहर से लगभग 30 किलोमीटर दूर महू छावनी के पास अपने डेढ़ बीघे के खेत में अपना आशियाना बनाकर रहता हूँ। अपने खेत को मैंने ‛आश्रय’ नाम दिया है।यहां हमने केवल मूलभूत सुविधाओं का ध्यान रखा है।”
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अनुराग शुक्ला का जन्म झारखंड के धनबाद में हुआ। उनके पिता पीएसयू सीआईएल (PSU CIL) में अधिकारी थे। खदान और दूर दराज़ तक फैले जंगलों के बीच रहने से प्रकृति से निकटता और प्रेम शुरू से ही रहा।
11वीं के बाद उन्हें एनडीए खड़कवासला में दाखिला मिल गया। पढ़ाई पूरी करने के बाद पहली पोस्टिंग सूरतगढ़, राजस्थान और आखिरी शिवपुरी, मध्य प्रदेश के NCC बटालियन में रही। इस दौरान समस्त भारत देखने का उन्हें अवसर मिला। 21 वर्षों की इस सेवा में उन्होंने 19 महीने तक श्रीलंका-भारतीय शांति रक्षक दल के रूप में सेवा दी, जहां सक्रिय गुरिल्ला युद्ध का सामना करना पड़ा। इस उपलब्धि के लिए उन्हें ‛मेंशन इन डिस्पैच’ वीरता पुरस्कारमिला। इसके अलावा उन्होंने महू के इन्फेंट्री स्कूल में बतौर ट्रेनर सेवाएं भी दी और अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र में भी काम किया।
लौट आए घर
अनुराग बताते हैं कि आर्मी का जीवन जीते हुए चुनौतियों का सामना करने की आदत हो गई थी। जब लगा कि अब आगे पदोन्नति नहीं होगी तो लगाचुनौतियां भी नहीं रही। इसी के मद्देनजरउन्होंने वीआरएस लेकर पर्यावरण के लिए कुछ करने की ठानी और खेती की शुरुआत की।
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इन दिनों वह प्राकृतिक खेती से जुड़े हैं, जिसे कृषि वानिकी अथवा ‛भोजन वन’ भी कहा जाता है। अपने खेत ‛आश्रय’ में उन्होंने लगभग 60 प्रकार के फल एवं लकड़ी के पेड़ लगाए हैं। इसके नीचे वह खेती भी कर रहे हैं, जहाँ 300 से ऊपर पेड़ हैं। वह बिना किसी रसायन की खेती करते हैं जोपर्यावरण के लिए हितकारी है। खेत से प्राप्त उपज का अधिकतम हिस्सा वह अपने घर में ही रखते हैं और इनसे अचार, जैम, जेली, बड़ियां, पापड़, चिप्स भी बनाते हैं। सब्ज़ी और फल को सोलर ड्राई कर रखते हैं। इसके अलावा शुक्ला लोगों को मुफ्त में पौधे भी देते हैं। फिर भी खेती में जो उपज होती है, उससे उन्हें साल में करीब ढाई लाख रुपये की आमदनी हो जाती है।
आसान नहीं रहा‛आश्रय’ बनाना
अनुराग शुक्ला बताते हैं कि आज जिस ज़मीन पर उनका आश्रय है, खेत-खलिहान है, वह कभी बंजर हुआ करता था। इसी वजह से एक किसान ने अपने बड़े भूखंड से इस हिस्से को बेच दिया। पूरी ज़मीन ‛कांसला’ नामक घास सेभरी हुई थी, जिसकी जड़ें एक फुट तक अंदर जाती हैं। ज़मीन को साफ करने में दो-तीन साल लग गए। पेड़ लगाए और टुकड़ों में उपज लेने का दौर शुरू हुआ। यहाँ पर भूमिगत जल का स्तर भी बहुत नीचे था। लेकिन शुक्ला के लगाए पेड़ों के कारण अब वह भी सुधर गया है।
कर रहे हैं पर्यावरण संरक्षण
शुक्ला का पूरा घर ही ऊर्जा में स्वावलम्बी है। सौर ऊर्जा से बिजली, खाना पकाना और फल सब्ज़ी सुखाने जैसे काम होते हैं। एक छोटी कार भी है, पर तभी काम आती है जब पूरा परिवार एक साथ कहीं जा रहा हो। 20 किलोमीटरदूरी के लिए वह साइकिल का उपयोग करते हैं।
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अनुराग शुक्ला बताते हैं, “हम लोग बाजार से कम ही सामान खरीदते हैं जिस वजह से बहुत कम प्लास्टिक हमारे घर आता है। जो भी आता है उसका उपयोग करते हैं। प्लास्टिक के पैकेट में पौधे तैयार किये जाते हैं। कांच की बोतलों का पेय पदार्थ भंडारण में उपयोग होता है। इसके अलावा नहाने, कपड़े धोने और रसोई के पानी को छोटे तालाब मेंइकट्ठा किया जाता है, जिसका उपयोग पेड़ों की सिंचाई में होता है। मल से घर के पास निर्मित स्पेटिक टैंक में खाद बनता है, जिसे समय समय पर निकालकर खेत में उर्वरक के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।"
शुक्ला ने अपनी बेटी की शादी में भी पर्यावरण मुद्दों का विशेष ख्याल रखा। उन्होंने वैवाहिक कार्यक्रम अपने खेत परिसर में ही संपन्न किया। पूरे कार्यक्रम में किसी भी तरह के प्लास्टिक का उपयोग नहीं किया। यहां तक की वैवाहिक निमंत्रण व्हाट्सएप और फ़ोन से दिए गए।बैंड-बाजा या फिर पटाखों का उपयोग नहीं किया गया। मेहमानों को पत्तों की प्लेट में भोजन परोसा गया और पानी के लिए मिट्टी के कुल्हड़ और लोटे प्रयोग किए गए।
रोज़गार के खोजे विकल्प
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पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ शुक्ला छोटी नर्सरी भी चला रहे हैं। उन्होंने गाय के गोबर से चौकोर गमले विकसित किए हैं, ताकि परिवहन में आसानी हो। पानी संभाल कर डाला जाए तो पेंदा भी नहीं गलता और गमले सालों साल चल सकते हैं। अगर वृक्षारोपण में उपयोग करना है तो गमलों को सीधा ज़मीन में रखकर पानी देने से वहीं जड़ें जमा लेते हैं, गड्ढे खोदने की भी आवश्यकता नहीं होती।
ये गमले हाथ से चलने वाली एक मशीन से बनते हैं। एक व्यक्ति दिन में औसतन 30 गमले बना सकता है और एक गमले की कीमत 40 रुपये है। मशीन में जनवरी से अब तक 1000 गमले बन चुके हैं और 250 गमले बिक भी चुके हैं। स्थानीय रोज़गार के लिए यह एक अच्छा विकल्प बन गया है।
अनुराग शुक्ला से उनके काम के बारे में और जानने के लिए आप उन्हें 07354130846 पर कॉल कर सकते हैं या anurag[email protected] पर ईमेल कर सकते हैं।
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