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मूल रूप से छत्तीसगढ़ के रहने वाले सुबोध भोई और उनकी पत्नी ईश्वरी भोई, पेशे से शिक्षक हैं। लेकिन, पिछले 8 वर्षों से, अपनी व्यस्त दिनचर्या के बीच, दोनों अपनी छत पर जैविक सब्जियाँ उगाकर, बागवानी की रुचि को एक नया आयाम दे रहे हैं।
आज यह दंपति अपने घर में लौकी, करेला, गोभी, खीरा, तोरई, भिंडी, मिर्च बैंगन, शिमला मिर्च, टमाटर, आलू, मेथी, पालक जैसे कई साग-सब्जियों से लेकर अमरूद, आँवला, अनार, पपीता, आम, जैसे कई पेड़-पौधों की बागवानी कर रहे हैं।
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उनके पास तुलसी, गिलोय, पुदीना जैसे कई औषधीय पौधे भी हैं। इसके अलावा, उन्होंने बरगद, पीपल, नीम के बोनसाई पेड़ भी लगाएं हैं।
इस तरह, उनके पास 200 से अधिक पेड़-पौधे हैं।अपनी छत पर इतने बड़े पैमाने पर सब्जियों की खेती करने के कारण, बाजार पर उनकी निर्भरता 75 प्रतिशत तक कम हो गई है।
कैसे मिली बागवानी की प्रेरणा
इस कड़ी में ईश्वरी ने द बेटर इंडिया को बताया, “दरअसल, यह बात 2012 की है। मैं और मेरे पति, सब्जियों की खेती में रासायनिक उर्वरकों के व्यवहार को लेकर चर्चा कर रहे थे। इसी दौरान, मेरे तीनों बेटों ने एक सुर में कहा कि इससे निपटने के लिए, क्यों न हमे घर में बागवानी शुरू करें? इसके बाद, हमने बड़े पैमाने पर टैरेस गार्डनिंग शुरू करने का फैसला किया।”
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इस तरह, जब उनके बच्चे अपने आगे की पढ़ाई के लिए शहर चले गए, तो दोनों को अपनी रुचियों पर और अधिक ध्यान देने का मौका मिला।
इसके लिए उन्हें कड़ी मेहनत की जरूरत थी, लेकिन एक बार फैसला कर लेने के बाद, उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
कैसे करते हैं बागवानी
ईश्वरी बताती हैं, “मेरा टैरेस गार्डन घर के दूसरे मंजिल पर है। हमने अपनी छत के आधे हिस्से में पौधे लगाएं हैं। मैं और मेरे पति स्कूल से आते ही, अपने पौधों की देखभाल में लग जाते हैं।”
वह आगे बताती हैं, “हम अपने बागवानी कार्यों के लिए किचन वेस्ट और सूखे पत्तों से बने खाद का इस्तेमाल करते हैं। इस तरह, हम अपने बागवानी में जरा-सा भी रसायन इस्तेमाल नहीं करते हैं।”
एक और खास बात है कि दोनों को टैरेस गार्डनिंग का कोई खास अनुभव नहीं था। और, उन्होंने इससे संबंधित जानकारी हासिल करने के लिए यूट्यूब का सहारा लिया।
बदली दिनचर्या
ईश्वरी बताती हैं, “पेशे से हम शिक्षक हैं। हमें बागवानी के लिए अपनी दिनचर्या को बदलना पड़ा। शुरुआती दिनों में हर सुबह 4 बजे उठना और 40 सीढ़ियाँ चढ़ कर पौधों की देखभाल करना कठिन था। लेकिन, धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया।”
2002 से कर रहे थे बागवानी
ईश्वरी बताती हैं, “हम खेती-किसानी करने वाले परिवार से आते हैं और हमें बचपन से ही पेड़-पौधों से खास लगाव रहा है। हम 2002 से ही, कुछ फलों और फूलों की देखभाल कर रहे थे। जिससे हमें व्यवस्थित रूप से बागवानी करने में मदद मिली।”
क्या होती है समस्या
ईश्वरी को बागवानी में बंदरों से काफी दिक्कत होती थी। इससे निपटने के लिए उन्होंने एक तरीका अपनाया कि, जैसे ही फल या सब्जी खाने योग्य हो जाते हैं। वह उन्हें कपड़े से ढक देती हैं।
इसके अलावा, शुरुआती दिनों में कीट-पतंगों से भी काफी दिक्कत होती थी। इससे छुटकारा पाने के लिए उन्होंने नीम, हल्दी का उपयोग कर, कीटनाशक बनाने का तरीका सीखा।
दूसरों को भी किया प्रेरित
सुबोध और ईश्वरी के बागवानी कार्यों से प्रेरित होकर, उनके कई रिश्तेदारों, छात्रों और पड़ोसियों ने भी बागवानी शुरू कर दी और वे एक-दूसरे से अपना अनुभव भी साझा करते हैं। छात्रों के लिए उनका घर किसी जैविक क्लास से कम नहीं है।
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क्या देते हैं सीख
सुबोध कहते हैं, “जब हम बड़े हो रहे थे, जलवायु परिवर्तन कभी हमारे विमर्श का हिस्सा नहीं था। लेकिन, आज की पीढ़ी को न सिर्फ अपने परिवार के भरण-पोषण के बारे में सोचना होगा, बल्कि पर्यावरण की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठाने होंगे। इस दिशा में, जैविक खेती की महत्वपूर्ण भूमिका होगी।”
वह बताते हैं, “एक गाँव में एक शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए, कार्बन फुटप्रिंट या ग्रीनहाउस गैसों को कम करने की दिशा में अपनी भूमिका निभाएं, हमें कभी ऐसे ख्याल नहीं आए। हम परिस्थितियों से अवगत थे, लेकिन कभी गंभीरता से नहीं सोचा। लेकिन, बागवानी शुरू करने के बाद, हमें इसके महत्व का एहसास हुआ।”
वहीं, ईश्वरी अंत में कहती हैं, “यदि कोई इस तरीके से बागवानी करना चाहता है, तो इससे संबंधित जानकारियों को हासिल करने के लिए कई ऑनलाइन साधन उपलब्ध हैं। इस क्षेत्र में कोई विफलता नहीं है, केवल और केवल सीखना है। सिर्फ किसी को प्रभावित करने के लिए बागवानी शुरू न करें, बल्कि खुद को प्रेरित करने और प्रकृति से जुड़ाव के लिए यह प्रयास करें।”
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संपादन: जी. एन. झा
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