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पढ़िए 76 साल की इस दादी की कहानी जिसने 56 की उम्र में की बीएड, खोला खुद का स्कूल!

''माँ के देहांत के कारण बचपन में ही नन्हें कंधों पर रसोई और घर के कामों की जिम्मेदारी आ गई। 15 वर्ष की उम्र तक स्कूल का दरवाजा नहीं देखने वाली इस महिला के लिए काला अक्षर भैंस बराबर था। ज़िद करते हुए नन्हीं बच्चियों के साथ साड़ी पहने हुए ही स्लेट पकड़कर अक्षर ज्ञान लिया। 18 वर्ष की होने तक शादी कर दी गई। ससुराल में पढ़ाई-लिखाई पर पाबंदी के बावजूद पढ़ाई का क्रम जारी रखा। प्राइवेट कैंडिडेट के तौर पर घर पर पढ़ाई कर किसी तरह ग्रेजुएशन और फिर अपनी बेटी के साथ ही बीएड किया। आज खुद का स्कूल चला रही है। शिक्षा के क्षेत्र में एक मिसाल बनकर उभरी है।''

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अयोध्याकुमारी गौड़।

काला अक्षर भैंस बराबर! यह कहावत तो आपने जरुर सुनी होगी! आपके और हमारे लिए तो बस यह एक कहावत है, लेकिन जोधपुर में रहने वाली 76 वर्षीय अयोध्याकुमारी गौड़ के जीवन की सच्चाई रही है।

‛द बेटर इंडिया’ से बात करते हुए वह अपने जीवन के रोचक खुलासे करती है। वह कहती हैं, “जब मैंने अपना 15वां जन्मदिन मनाया, तब तक काग़ज़ों या कहीं पर भी लिखे शब्दों को पढ़ या समझ नहीं पाती थी। मेरे लिए काले अक्षर भैंस के बराबर ही थे। लिखे को समझ पाना मेरे बूते की बात नहीं थी। लेकिन आज हालात बदल गए है। मैंने अपने जुनून के बल पर अज्ञानता के दौर से निजात पा ली है। आज मैं सैंकड़ों बच्चों की ज़िंदगी में शिक्षा का उजियारा लाने का कार्य कर रही हूँ।”

जोधपुर के प्रतापनगर में 8वीं तक के बच्चों के लिए स्कूल चलाकर उन्हें शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने वाली अयोध्याकुमारी जब छोटी थी, तब उनकी माँ का निधन हो गया। परिवार की स्थिति भी ऐसी नहीं थी कि घर की बच्चियों को शिक्षा के लिए स्कूल भेजा जा सके।

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अपने पिता और पुत्री के साथ आयोध्याकुमारी।

पिता जगदीश नारायण शर्मा जयपुर में अपने निजी मंदिर में पुजारी का काम करते हुए परिवार का भरण-पोषण कर रहे थे। अयोध्या अपनी बहनों के साथ घर का कामकाज संभालने में पिता को मदद कर रही थी। वक़्त ने करवट ली। जब वे 15 साल की हुई तो उनके लिए वर की तलाश की जाने लगी। पड़ोस की एक महिला ने उनके पिताजी को जो समझाया, उसने अयोध्या के भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया।

महिला ने अयोध्या के पिता को कहा कि, “शादी के बाद यदि ससुराल वाले आपकी बेटी को परेशान करे तो आपको अपनी बेटियों को इस लायक तो बनाना ही चाहिए कि वे अपनी व्यथा को एक पोस्टकार्ड पर लिखकर पीहर तक भेज सके।” इस बात ने उनके पिताजी को भीतर तक झकझोर दिया और अयोध्या को शिक्षा हासिल करने के लिए विद्यालय भेजा गया।

वे बताती हैं, “मैं साड़ी पहनकर पहली बार उन छोटी बच्चियों के बीच शिशुशाला में पढ़ने के लिए गई। यहीं मुझे पहली बार अक्षरज्ञान हुआ।”

बड़ी मुश्किलों से शुरु हुई इस शिक्षा यात्रा में पहला व्यवधान उस समय आया, जब 1962 में उनकी शादी एक रूढ़िवादी परिवार में कर दी गई। 18 की उम्र में उनकी पढ़ाई थोड़ी आगे बढ़ी ही थी कि शादी के बाद उनका आगे पढ़ना-लिखना भी बंद करवा दिया गया।

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स्कूल में बच्चों के साथ आयोध्याकुमारी।

पहले माँ का निधन और अब शादी,  उनकी जिंदगी अलग ढर्रे पर चल पड़ी। भले ही उनकी उम्र कम थी, लेकिन जो सबक उनको मिल रहे थे, बेहद कड़वे थे। अयोध्याकुमारी के मन में अभी भी आगे पढ़ने की इच्छा हिलोरें मार रही थी। उनका कोई भी प्रयास रंग लाता नजर नहीं आ रहा था, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और प्रयास करती रही।

कहते हैं न ईश्वर भी उनकी मदद करते हैं, जो खुद अपनी मदद करना चाहते हैं। आखिरकार उन्हें अपने मकान मालिक के बेटों से सहयोग मिला, जिन्होंने उन्हें सुझाया कि यदि वे घर बैठे ही प्राइवेट स्टूडेंट की हैसियत से पढ़ाई करे और 10वीं कक्षा की परीक्षा दे तो कैसा रहे?

कई सालों तक छुपते-छिपाते, छिपाकर रखी गई किताबों के सहारे देर रातों को जागकर उन्होंने अपनी पढ़ाई को आगे बढ़ाया। 1976 में उन्होंने दसवीं की परीक्षा तब दी, जब उनके बच्चे स्कूल जाने लायक हो चुके थे।

उनके परीक्षा देने की बात जब ससुराल वालों को पता चली, जोरदार विरोध हुआ। कई बार तो बात इतनी बढ़ जाया करती कि वे घर वालों को भरोसा दिलाने के लिए, मांग कर लाई गई पुस्तकों तक को फाड़ देती थी।

अयोध्या कुमारी को घर वालों के विरोध के बावजूद पति का भरपूर सहयोग मिला। जब उनके पति बीकानेर में पोस्टेड थे तब उन्हीं के कहने पर अयोध्या कुमारी ने जोधपुर से 70 किलोमीटर दूर ओसियां गाँव से दसवीं का फॉर्म भरा था। इम्तिहान के दिनों में वे बच्चों से 15 दिन दूर भी रही थी। (यह बात कहते हुए उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं )

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अपने स्कूल के ओपनिंग के समय आयोध्याकुमारी।

अड़चनों का दौर अनवरत चलता रहा। भारी विरोधों और बार-बार के अंतराल के बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। 1979 में 12वीं, 1983 बीए की डिग्री हासिल की। सरकार द्वारा प्रौढ़ शिक्षा के लिए चयनित कुछ शिक्षिकाओं में वे भी शामिल रही और साल भर तक 30 से 35 साल की प्रौढ़ महिलाओं को पढ़ाया भी ।

उन दिनों को याद करते हुए वे कहती हैं, “इतना सब हो जाने के बाद मेरे पति रामप्रसाद गौड़, जो नायब तहसीलदार थे, उन्होंने कहा, यदि मेरी मंशा नौकरी करने की नहीं है तो मुझे अपनी पढ़ाई को रोक देना चाहिए।''

लेकिन एक बार फिर मैंने अपनी पढ़ाई को आगे ले जाने की इच्छा जताई और बेटी संगीता, जो उस वक्त बीएड में प्रवेश की तैयारी कर रही थी, के साथ मिलकर 1990 में बीएड की डिग्री भी हासिल कर ली।”

कुछ सालों तक घर के पास ही चल रही शिव बालिका माध्यमिक विद्यालय में शिक्षिका के रूप में सेवाएं देने के बाद उन्होंने तय किया कि वह अब उन बच्चों को शिक्षित करने का काम करेगी, जो अपने परिवार की आर्थिक या अन्य स्थितियों के कारण पढ़ाई नहीं कर पाते हैं।

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क्लास में बच्चों को पढ़ाते हुए अयोध्याकुमारी।

इसी लक्ष्य के साथ उन्होंने 2001 में अपने घर में ही खुद का ‛महर्षि पब्लिक स्कूल’ शुरू किया, जहां आज वे न्यूनतम (250 से 400 रुपये) फीस में सम्पूर्ण सुविधाओं के साथ प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर के बच्चों को पढ़ा रही है। साथ ही जिन विद्यार्थियों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर है, वह उनकी किताबों, फीस और यूनिफॉर्म की व्यवस्था स्थानीय दानदाताओं से करवाती है।

हालातों से लड़कर शिक्षिका के रूप में पहचान बनाने वाली अयोध्याकुमारी को कई बड़े मान-सम्मान मिल चुके हैं, जिनमें दैनिक भास्कर का ‛वुमन प्राइड ऑफ द ईयर- 2015’ प्रमुख है।

अयोध्याकुमारी अपनी स्कूल में सचिव है और कक्षा 6 से 8 तक के बच्चों को हिंदी पढ़ाती है। आज दादी-नानी हो चुकी है।अपने खुशहाल परिवार के साथ जीवनयापन के बीच में से अभी भी खाली समय निकालकर प्रतापनगर क्षेत्र की कच्ची बस्तियों में घूम-फिरकर अभिभावकों को बच्चों को स्कूल भेजने के लिए जागरूक करती रहती है।

आयोध्याकुमारी के स्कूल में आप किसी तरह का सहयोग करना चाहते हैं या उनसे संपर्क करना चाहते हैं तो 09414127786 पर बात कर सकते हैं।

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