प्राइमरी टीचर के एक इनोवेशन से बची हैदराबाद की 9 झीलें, केन्या से भी मिला 10 मशीनों का ऑर्डर!

60, 000 रुपए की लागत से उन्होंने यह मशीन बनाई जो कामयाब रही। उन्होंने अपने गाँव के साथ-साथ दूसरे गाँवों के तालाबों को भी साफ़ किया।

आंध्र प्रदेश का पोचमपल्ली गाँव साड़ियों के लिए काफ़ी प्रसिद्ध है। यहाँ से सिर्फ़ एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है मुक्तापुर गाँव। मछली पकड़ना इस गाँव के लोगों का मुख्य पेशा है। स्थानीय तालाबों से यहाँ के मछुआरे मछलियाँ पकड़कर बेचते हैं और अपना घर चलाते हैं।

लेकिन इन तालाबों में बरसात के मौसम में उग आने वाले खर-पतवार से यहाँ के मछुआरे काफी परेशान थे। ये खर-पतवार इतनी तेजी से बढ़ते कि दो-तीन दिन में ही पूरे तालाब को ढक लेते थे। इसके चलते मछलियों तक न तो सूर्य की रोशनी पहुँच पाती और न ही उन्हें पर्याप्त ऑक्सीजन मिल पाता। खर-पतवार हटाने के लिए इन मछुआरों को साल के 3 महीने लगातार तालाब की साफ़-सफाई करनी पड़ती।

गाँव के लगभग 100 आदमी हर दिन 150 एकड़ के तालाब की सफाई के लिए जाते और इस वजह से उनके रोज़मर्रा के दूसरे सभी काम रह जाते। यदि यह काम मज़दूर लगवाकर करवाया जाता तो कम से कम 3 लाख रुपए का खर्च होता। खर-पतवार निकालते समय गंदे पानी में जाने की वजह से गाँव के लोगों को कभी सांप काट लेते, तो कभी उन्हें त्वचा से संबंधित बीमारियाँ हो जातीं।

यह सिलसिला साल 2012 तक चला और फिर गाँव के ही एक मछुआरे ने खर-पतवार को हटाने के लिए एक मशीन बना दी। इसी गाँव के रहने वाले गोदासु नरसिम्हा मछुआरा होने के साथ-साथ एक प्राइमरी स्कूल में टीचर भी थे। तालाब साफ़ करने के लिए अक्सर उन्हें स्कूल से छुट्टियाँ लेनी पड़ती थीं और इस वजह से उन्हें स्कूल से नोटिस मिला कि अगर उन्होंने ज़्यादा छुट्टी ली तो उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ेगी।

गोदासु नरसिम्हा

द बेटर इंडिया से बात करते हुए नरसिम्हा ने कहा, “मेरे परिवार में मैं, मेरी पत्नी और दो बच्चे हैं। स्कूल से जो भी तनख्वाह मिलती, कम से कम उससे थोड़ी तो मदद हो जाती। मछलियाँ बेचने से कोई ख़ास कमाई नहीं हो रही थी, क्योंकि मछलियों की तादाद खर-पतवार के कारण कम हो गई थी। तब मुझे लगा कि इस समस्या का कोई स्थाई समाधान ढूँढना पड़ेगा।”

उन्होंने एक ऐसी मशीन का प्रोटोटाइप तैयार किया, जिससे खर-पतवार को न सिर्फ़ बाहर निकाला जा सकता था, बल्कि उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा भी जा सकता था, ताकि वह दोबारा न उग आए। एक मछुआरे का इस तरह मशीन बना देना शायद आश्चर्य की बात लगे, लेकिन नरसिम्हा की रुचि शुरू से ही इनोवेशन में थी।

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सिर्फ़ 9 साल की उम्र में अपने माता-पिता को खो देने वाले नरसिम्हा को उनके बड़े भाई ने पाला। उनका भाई उनसे छह साल बड़ा था। उसे पिता की जगह पी.डब्ल्यू.डी. विभाग में चौकीदार की नौकरी मिल गई थी। नरसिम्हा हमेशा से ही पढ़ाई में तेज थे और साथ ही उन्हें मशीनों से खेलने का बहुत शौक था। जो भी उन्हें जरा-सी देर में कोई मशीन खोलकर ठीक करते हुए देखता, वह यही कहता कि तुम बड़े होकर मैकेनिकल इंजीनियरिंग करना।

इसलिए नरसिम्हा ने अपने भाई से कहा कि वो उन्हें प्राइवेट स्कूल-कॉलेज में पढ़ाए। पर इस बात की तरफ उनके भाई ने कोई ध्यान नहीं दिया। इसलिए वे अपने एक रिश्तेदार के यहाँ रहने लगे। वहाँ वे उनके घर का काम करते थे और बदले में जो भी पैसे मिलते, उससे अपने स्कूल की फीस भरते।

10वीं कक्षा के बाद उन्होंने डिप्लोमा करने का फ़ैसला किया और टेस्ट भी क्लियर कर लिया। सब ने उन्हें मैकेनिकल इंजीनियरिंग करने के लिए ही कहा। पर सरकारी कॉलेज में उन्हें सिविल इंजीनियरिंग में दाखिला मिला और प्राइवेट से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में दाखिला लेने में उनके भाई ने उनका साथ नहीं दिया।

डिप्लोमा के पहले साल में ही दिलचस्पी नहीं होने के कारण उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और अपने गाँव में ही रहकर छोटा-मोटा काम करने लगे। उन्होंने गाँव के ही प्राइमरी स्कूल में बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। उनकी शादी करवाने के बाद उनके भाई अपने परिवार के साथ हैदराबाद चले गए और नरसिम्हा गाँव में ही रह गए।

जैसे-तैसे वे अपना गुज़ारा कर रहे थे। पर जब तालाब से उनकी आय का ज़रिया खत्म होने लगा, तो उनके भीतर जो एक इनोवेटर छिपा बैठा था, वह सामने आ गया। मशीन का प्रोटोटाइप तो तैयार था, लेकिन मशीन बनाने के लिए उन्हें पैसों की ज़रूरत थी।

नरसिम्हा द्वारा बनाई गयी मशीन

नरसिम्हा ने बताया,

“ऐसे में, हमारे गाँव के सरपंच और बाकी लोगों ने मदद की। उन्होंने 20, 000 रुपए इकट्ठा करके दिए। सबसे ज़्यादा साथ मुझे मेरी पत्नी का मिला। दिन भर हम लोग तालाब की साफ़-सफाई में हाथ बंटाते और छोटे-मोटे काम करते। रात में वो मशीन बनाने में मेरी मदद करती।”

उन्होंने सबसे पहले ‘कटिंग मशीन’ बनाई, जिसकी मदद से वे चाहते थे कि तालाब में ही खर-पतवार को काटा जा सके। लेकिन यह मशीन तालाब के बाहर ही कामयाब थी। पानी में इसके ब्लेड काम नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में, उन्होंने तय किया कि एक और मशीन बनानी होगी जो खर-पतवार को बाहर भी निकाले। लेकिन फिर वही पैसों की समस्या आ खड़ी हुई।

इस बार तो गाँव के लोगों ने भी उनका सहयोग करने से मना कर दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि उनका पैसा बर्बाद हुआ है। ऐसे में, उन्होंने इधर-उधर से पैसे इकट्ठे करने की कोशिश की और आखिरकार उनके एक रिश्तेदार ने उन्हें 30,000 रुपए का कर्ज दिया। इससे उन्होंने लिफ्टिंग मशीन तैयार की।

वह बताते हैं, “मशीन तो तैयार थी और कामयाब भी, पर इसको अंतिम रूप देने के लिए 10, 000 रुपए की और ज़रूरत थी। इसके लिए मैं आस-पास के गाँवों में गया और वहाँ के लोगों को बताया कि अगर वे कुछ पैसे दें, तो मैं उनके गाँव के तालाब भी साफ़ कर दूंगा। पूरे इलाके में यह समस्या थी। इस तरह मैंने 10, 000 रुपए का जुगाड़ कर लिया।”

60, 000 रुपए की लागत से उन्होंने यह मशीन बनाई जो कामयाब रही। उन्होंने अपने गाँव के साथ-साथ दूसरे गाँवों के तालाबों को भी साफ़ किया। उनके बारे में जब स्थानीय अखबार में खबर आई, तो ‘पल्ले सृजना’ नामक एक संगठन ने उनसे संपर्क किया। यह संगठन नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन की ही एक इकाई है, जो ग्रामीण और ज़मीनी स्तर पर होने वाले इनोवेशन को सपोर्ट करती है।

मशीन की मदद से तालाब को साफ़ किया गया

‘पल्ले सृजना’ की मदद से नरसिम्हा को अपना यह इनोवेशन राष्ट्रीय मंच पर दिखाने का मौका मिला। इसके बाद, हैदराबाद नगर निगम ने उन्हें हैदराबाद के कई तालाब और झीलों की साफ़-सफाई का कार्यभार सौंपा। आर.के पुरम लेक, तौलीचौकी का तालाब सहित उन्होंने अब तक लगभग 8-9 झीलों की सफाई की है।

इसके अलावा, उनका इनोवेशन कार्य भी चलता रहा। उनके और उनकी मशीन के बारे में पढ़कर और भी कई लोगों ने उनसे संपर्क किया और मदद मांगी। नरसिम्हा ने बताया, “अब तक मैंने ओडिशा के एक पॉवर प्लांट के लिए मशीन बनाई है और किसानों के लिए कई मशीनें बनाई हैं। खर-पतवार हटाने की अपनी पहली मशीन में भी मैंने बहुत से बदलाव किए हैं। अब एक अच्छी क्वालिटी की मशीन की कुल लागत लगभग 30 लाख रुपए है। अगर इस तरह की मशीन आप विदेशी बाज़ारों से खरीदें तो लागत कम से कम 1 करोड़ रुपए पड़ेगी।”

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नरसिम्हा और उनकी मशीन के बारे में यूट्यूब चैनल पर देखकर केन्या के जल, पर्यावरण एवं सिंचाई मंत्री सलमों ओरिम्बा ने भी उन्हें खर-पतवार हटाने की 10 मशीनें बनाने का ऑर्डर दिया है। ओरिम्बो ने भारतीय प्रशासन से संपर्क किया और फिर अपने कुछ अधिकारियों के साथ भारत आकर नरसिम्हा की मशीन का जायजा लिया।

उनकी मशीन देखने के लिए ख़ास तौर पर केन्या के अधिकारी आये

नरसिम्हा ने कहा, “उनके मुताबिक, केन्या में भी लोग यह परेशानी झेल रहे हैं और इसलिए वे चाहते हैं कि मैं उन लोगों के लिए भी इस तरह की मशीन तैयार करूँ। मुझसे मशीन बनवाने की वजह है ‘कम लागत’। अगर वे यही मशीन बाहर से लेंगे तो उन्हें करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ेंगे।”

अपने इन कार्यों के लिए नरसिम्हा को भारत सरकार और राज्य सरकार से काफ़ी सराहना मिली है। साल 2015 में उनकी मशीन को राष्ट्रपति भवन में लगी प्रदर्शनी में दिखाया गया था। उन्हें नेशनल इनोवेशन अवॉर्ड से भी नवाज़ा गया है।

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उन्हें पुणे, चेन्नई और विशाखापट्टनम से भी मशीन बनाने के ऑर्डर मिले हैं। केन्या के प्रोजेक्ट के लिए वे जुलाई में वहां जाएंगे और वहाँ के तालाबों और झीलों का निरीक्षण करेंगे, ताकि उसी हिसाब से मशीन बना सकें।

अपनी इस सफलता का श्रेय वे अपने गाँववालों, अपनी पत्नी-बच्चे और पल्ले सृजना को देते हैं, जिन्होंने हर संभव तरीके से उनका साथ दिया। उनका कहना है कि वे आगे भी इसी तरह लोगों की समस्याओं को दूर करने के लिए मशीन बनाते रहना चाहते हैं। उनका सपना है कि वे गाँव में ही एक वर्कशॉप स्थापित करें।

यदि आपको इस कहानी ने प्रेरित किया है तो गोदासु नरसिम्हा से संपर्क करने के लिए 9492558698 पर डायल करें।


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