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तमिलनाडु में तिरुवन्नामलाई से संबंध रखने वाले 29 वर्षीय सतीश कुमार चेन्नई में रहते हैं। एक छोटे किसान परिवार से आने वाले सतीश आईटी सेक्टर में काम करते हैं। उन्होंने डिप्लोमा किया है और फ़िलहाल, अनुंता टेक्नोलॉजी कंपनी में बतौर मैनेजर काम कर रहे हैं।
इसके साथ-साथ, उनकी एक और पहचान है और वह है 'पनाई' सतीश के रूप में। उन्होंने बताया कि ताड़ के पेड़ को तमिल भाषा में 'पनाई' कहते हैं। सतीश ने पिछले 3-4 सालों में पर्यावरणविदों के साथ मिलकर शहर भर में ताड़ के पेड़ लगाए हैं।
सतीश कहते हैं, "पेड़-पौधों के प्रति या फिर प्रकृति के प्रति मुझमें हमेशा से इतनी जागरूकता नहीं थी। मेरी ज़िंदगी काफी सामान्य थी जैसी कि किसी भी आईटी सेक्टर में काम करने वाले की होती है। लेकिन फिर जब तमिलनाडु में जल्लीकट्टु को लेकर विवाद हुआ तो मेरी ज़िंदगी बिल्कुल बदल गई। दरअसल उस घटना के बाद मैंने हमारे राज्य की संस्कृति और पारंपरिक इतिहास को पढ़ना शुरू किया।"
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उन्होंने बताया कि इस सबके दौरान ही उन्हें पता चला कि तमिलनाडु में तमिल साहित्य लिखना शुरू हुआ तो उसे ताड़ के पत्तों पर लिखा गया। तमिल साहित्य में ताड़ के पत्तों का काफी योगदान है। वह कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं के संपर्क में आए और उनसे उन्हें पता चला कि ताड़ के पेड़ प्राकृतिक आपदाएं जैसे सुनामी और सायक्लोन के वक़्त में भी काफी सुरक्षा प्रदान करते हैं।
"बहुत से तटीय क्षेत्रों में लोग अपने घरों के बाहर ताड़ के पेड़ कतार में लगाते हैं और तूफ़ान के समय यही ताड़ के पेड़ मजबूत दीवार का काम करते हैं। क्योंकि इनकी जड़ें मिट्टी में काफी गहराई तक जाती हैं और ये आसानी से नहीं उखड़ते। साथ ही, अपने आस-पास की मिट्टी को बाँध कर रखते हैं। पूरे संसार में लगभग 5 करोड़ ताड़ के पेड़ हैं और इनमें से लगभग 60% सिर्फ तमिलनाडु में है। लेकिन समस्या यह है कि लोग इनका महत्व नहीं समझ रहे हैं और इस वजह से इनकी संख्या लगातार गिर रही है। लोग इन्हें काटने से पहले सोचते ही नहीं है और चंद रुपयों में बेच देते हैं," उन्होंने कहा।
सतीश के मुताबिक, दशकों पहले राज्य में ताड़ से बनने वाली टॉडी पर बैन लग गया था और इसके बाद लोगों ने ताड़ की चिंता करना छोड़ दिया। उन्हें लगा कि अब वह उनके किसी काम के नहीं रहे। लेकिन सही से आंकलन किया जाये तो ताड़ का पेड़ जड़ से लेकर पत्तों तक, हर तरह से काम आता है। एक वक़्त था जब ताड़ से बनने वाले सैकड़ों उत्पाद हुआ करते थे तमिलनाडु में। लेकिन आज लोग दस भी नहीं गिन सकते। वक़्त के साथ-साथ आधुनिकता में हमने अपनी संस्कृति के इस हिस्से को जैसे खो ही दिया है।
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ताड़ के पत्तों से आप टोकरी, चटाई आदि बना सकते हैं और बहुत-सी हैंडीक्राफ्ट वस्तुएं भी, इसके फल से आप मिठाई बना सकते हैं। पहले तमिलनाडु में ताड़ के पेड़ से ही चीनी भी बनाई जाती थी। इसके अलावा, इसका इस्तेमाल औषधीय पेड़ के रूप में भी होता था।
ताड़ के पेड़ का सही महत्व लोगों को समझाने के लिए सतीश ने पर्यावरण पर होने वाली गोष्ठियों और आयोजनों में भाग लिया। उन्होंने पहले खुद अपने ज्ञान को संचित किया और अब वह पर्यावरणविदों के साथ मिलकर लोगों को जागरूक कर रहे हैं। पिछले चंद सालों में इन आयोजनों में अन्य लोगों के साथ मिलकर वह लगभग 1 लाख ताड़ के पेड़ लगा चुके हैं। सतीश यह सब अपनी नौकरी के साथ-साथ कर रहे हैं।
"अक्सर मेरे परिवारवाले और बहुत बार दोस्त पूछते हैं कि तुम्हे एक दिन मिलता है छुट्टी का और उसमें भी तुम इस तरह के इवेंट्स में चले जाते हो। पर मैं उन्हें बस यही कहता हूँ कि हर चीज़ आप पैसे के लिए नहीं करते। यह मेरा पैशन है और जब मैं प्रकृति और पर्यावरण को समझने लगा हूँ तो मेरी ज़िम्मेदारी है कि मैं अपना कर्तव्य निभाऊं। मैं अपनी जॉब नहीं छोड़ सकता क्योंकि मुझे और मेरे परिवार को इसकी ज़रूरत है। लेकिन इसके साथ मैं जो कुछ कर सकता हूँ, ज़रूर कर रहा हूँ," उन्होंने आगे बताया।
ताड़ के पेड़ों को बहुत रख-रखाव की ज़रूरत नहीं होती लेकिन इन्हें उगने के लिए वक़्त चाहिए होता है। इनकी उम्र काफी होती है। सतीश कहते हैं कि ताड़ के पेड़ 100 साल से ज्यादा जी सकते हैं। तमिलनाडु में ताड़ के पेड़ों की लगभग 30 किस्में मिलती थीं, लेकिन आज यह स्थानीय किस्में दुर्लभ हो गयी हैं।
"लेकिन आपको आज भी कुछ जगहों पर ताड़ के देशी बीज मिल जाएंगे। हम आज जो पेड़ लगा रहे हैं वह हमारी अगली पीढ़ी के लिए काम आयेंगे। जिस तरह हमारे पूर्वज हमारे लिए यह विरासत छोड़कर गए, अब ज़रूरत है कि हम भी इस विरासत को अपनी आगे की पीढ़ियों के लिए सहेजें।"
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अंत में सतीश सिर्फ इतना कहते हैं कि भारत में हर एक कोने की अपनी एक संस्कृति और धरोहर है। ऐसे सैकड़ों पेड़-पौधे होंगे, जो सदियों की विरासत हैं और जिन्हें सहेजे जाना उतना ही ज़रूरी है, जितना कि हमारे लिए अपनी परम्पराओं और त्योहारों को मनाना। अब वक़्त है कि राज्य और केंद्र सरकार भी इस बारे में गौर करे और सामान्य लोगों को इस तरह की स्थानीय प्रजातियों की जानकारी दे। ताकि हमारे युवा इन पेड़-पौधों के महत्व को समझें और इन्हें बचाने की कोशिश करें!
सतीश कुमार से संपर्क करने के लिए आप उन्हें [email protected] पर ईमेल कर सकते हैं!
संपादन - मानबी कटोच