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37 वर्षीया शालू सैनी का नाम आज मुजफ्फरनगर शहर के हर एक थाने और प्रशासनिक अधिकारोियों के बीच काफी लोकप्रिय हो गया है। वैसे तो वह पिछले 15 सालों से समाज सेवा से जुड़ी हुई हैं और समय-समय पर महिलाओं को आत्मनिर्भर और आत्मरक्षा के लिए तैयार करने के लिए कैंप आदि का इंतजाम करती रहती हैं। वह साक्षी वेलफेयर ट्रस्ट नाम से एक NGO चलाती हैं और अपना परिचय क्रांतिकारी शालू सैनी के नाम से देती हैं।
लेकिन उनके काम को एक अलग पहचान तब मिली, जब उन्होंने कोरोना के समय मरने वाले कई लावारिस लोगों को अपना परिवार समझकर उनका अंतिम संस्कार करना शुरू किया।
कोरोना में शुरू हुआ यह काम अब उनके जीवन का एक लक्ष्य बन गया है।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए शालू कहती हैं, “जब मैंने यह काम शुरू किया था, तब हालात बिल्कुल अलग थे। लेकिन आज भी हमारे पास हर दूसरे दिन किसी न किसी लावारिस शव के बारे में खबर आती है, इसलिए मैंने इसे अब अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है।"
साल 2020 से अब तक वह 500 से ज्यादा ऐसे लोगों का अंतिम संस्कार कर चुकी हैं, जिसका कोई अपना नहीं था या उसके अपने इतने सक्षम नहीं थे कि अंतिम संस्कार का खर्च उठा सकें। उनके इस काम के लिए उनका नाम इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज किया गया है।
जीवन की कठिन परिस्थिति ने दी समाज सेवा से जुड़ने की प्रेरणा
मूल रूप से गढ़ मुक्तेश्वर, उत्तरप्रदेश की रहने वाली शालू, शादी के बाद मुजफ्फरनगर आकर बस गई थीं। लेकिन निजी जीवन में मुश्किलों के कारण वह अपने पति से अलग हो गईं, जिसके बाद वह अकेले ही अपने दोनों बच्चों की परवरिश भी कर रही हैं।
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शालू कहती हैं, “मैंने अपने जीवन के संघर्ष को देखते हुए फैसला किया कि मैं दूसरी ज़रूरतमंद महिलाओं की मदद करके अपना जीवन बिताऊंगी।"
इसके बाद उन्होंने निजी तौर पर छोटी सी शुरुआत करने का फैसला किया। वह ज़रूरतमंद महिलाओं को वोकेशनल ट्रेनिंग दिलवातीं और उन्हें रोज़गार से जोड़ने की कोशिश करतीं। वह खुद भी ठेले पर कपड़े बेचने का काम करती थीं। लेकिन बावजूद इसके उन्होंने लोगों की मदद करने का सिलसिला जारी रखा।
इस तरह समय के साथ कुछ और लोग भी उनसे जुड़ने लगे। पहले उनका कोई NGO या ट्रस्ट नहीं था, लेकिन छह साल पहले उन्होंने साक्षी वेलफेयर ट्रस्ट नाम से अपनी संस्था रजिस्टर करवाई, जिसके बाद उन्हें लोगों की ज्यादा मदद मिलने लगी।
शालू कहती हैं, “कोरोना के समय हमें खबर मिली कि लोग अपनों का अंतिम संस्कार करने नहीं जा रहे और एक बार संस्कार कर भी लें , तो उनकी अस्थियां लने भी कोई श्मशान नहीं जा रहा। फिर मैंने खुद जाकर लोगों की अस्थियां विसर्जित करने और अंतिम संस्कार करने का फैसला किया। हमने एक इस्तेहार दिया मेरे नंबर के साथ, जिसके बाद मुझे हर दिन ढेरों कॉल्स आने लगीं।"
कई लोग कोरोना के समय शालू को ऐसे काम करता देख कहते कि ऐसे समय में जब अपने लोग भी श्मशान नहीं जा रहे, तो ये लोगों का अंतिम संस्कार करने जा रही है, यह तो मरेगी। लेकिन शालू बड़ी ख़ुशी के साथ कहती हैं कि न तो उन्हें और न ही उनके बच्चों को कभी कोरोना हुआ।
दूसरों के लिए कुछ करने वाले लोग इस दुनिया में कम ही होते हैं। लेकिन जो भी लोग ऐसा कुछ करते हैं, वही इंसानियत की सच्ची मिसाल होते हैं
संपादन-अर्चना दुबे
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