देश की राजधानी दिल्ली की सर्द सुबह में अनीता हमेशा की तरह सूरज उगने से पहले उठकर, जल्दी-जल्दी अपने तीनों बच्चों का खाना बनाती हैं और फिर सारा काम 8:30 बजे तक खत्म करके, वह अपने काम पर निकल पड़ती हैं। हां, इस बीच वह अपनी बड़ी बेटी को घर की जिम्मेदारी सौंपना नहीं भूलतीं, जिसकी उम्र बमुश्किल 10-12 साल के बीच होगी।
इसके बाद, सड़क के किनारे-किनारे चलते हुए, वह मेन रोड के सिग्नल पर खड़ी हो जाती हैं और अपना पूरा दिन भीख मांगते हुए बिताती हैं। जब हमने उनसे पूछा कि वह नौकरी क्यों नहीं ढूंढतीं? तो उन्होंने तपाक से कहा, “कौन नौकरी देगा, दीदी? हम तो कुष्ठ रोगी हैं। अगर दिन अच्छा रहा, तो भीख मांगकर सौ रुपये तक कमा लेंगे।”
यह कहानी सिर्फ अनीता की ही नहीं है, कुष्ठ रोग से पीड़ित परिवारों के साथ समाज का व्यवहार हमेशा से ऐसा ही रहा है। उन्हें नौकरी पाने के लिए झूठ बोलना पड़ता है या फिर भीख मांगकर गुजारा करना पड़ता है। लोग उनसे दूर भागते हैं। उनसे बात करना पसंद नहीं करते और न ही उनके साथ रहना चाहते हैं। कुष्ठ रोग से पीड़ितों के साथ हर तरह का संपर्क खत्म कर दिया जाता है। क्या आप सोच सकते हैं कि ये सब 21वीं सदी के भारत में हो रहा है?
“जया (Jaya Reddy) दीदी हमारे लिए मसीहा हैं”
भले ही समाज इनके साथ कैसा भी व्यवहार क्यों न करता हो, लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जो पुरानी सोच की परवाह नहीं करते। उनके लिए लोगों की दुख-तकलीफों को दूर करने से बड़ा काम कोई नहीं है। ऐसी ही एक महिला हैं, दिल्ली की रहनेवाली जया रेड्डी (Jaya Reddy), जो इन लोगों के लिए किसी देवदूत से कम नहीं हैं। वह इन लोगों के साथ पिछले दो दशकों से एक अभिभावक की तरह जुड़ी हुई हैं।

अनीता कहती हैं, “मेरे पति नहीं रहे। तीनों बच्चों की जिम्मेदारी अकेले मेरे ऊपर है। रोजाना भीख मांगकर अपना गुजारा कर रही हूं। लेकिन जिस दिन ऐसा नहीं कर पाती, उस दिन जया दीदी हमारे लिए खाने का इंतजाम करती हैं। यहां तक कि मेरे बच्चों को स्कूल के लिए जिन किताबों की जरूरत होती है, वह भी जया दीदी ही मुहैया कराती हैं। वह हमारे लिए मसीहा हैं।”
अनीता दिल्ली के आनंद पर्वत इलाके के उन 52 परिवारों में शामिल हैं, जहां कुष्ठ रोग से प्रभावित 30 के करीब लोग रहते हैं।
बचपन की तकलीफ ने को दिखाई लोगों के मदद की राह
दिल्ली की जया रेड्डी (Jaya Reddy) ने हमसे बात करते हुए बताया, “यह मेरी जिंदगी है और लोगों की सेवा करना ही मेरा मकसद है। मैं काफी खुश हूं और मरते दम तक यह काम करना नहीं छोड़ूंगी।” दरअसल, जया का बचपन भी समाज में होने वाले इस भेदभाव के साथ गुजरा था। उनके माता-पिता कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। जिन समस्याओं को ये लोग आज झेल रहे हैं, उस राह से जया पहले ही गुजर चुकी हैं। वह उनके दुख-दर्द और समस्याओं को बखूबी जानती और समझती हैं।

जया के पिता भी मरते दम तक कुष्ठ रोगियों की सेवा में जुटे रहे थे। जया ने कहा, “मैंने वहीं से शुरुआत की जहां से उन्होंने छोड़ा था। इस कॉलोनी में 30 साल तक के और उसके ऊपर की उम्र के कई कुष्ठ रोगी हैं, जिनमें इस बीमारी के चलते कई तरह की विकलांगता आ गई है।”
वह अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहती हैं, “बचपन से लेकर बड़े होने तक मैंने काफी तकलीफें झेली हैं। लोग मुझे ऐसे देखते थे, मानो मैं कोई अजीब चीज़ हूं। जब मेरे माता-पिता को अपने घावों पर मरहम पट्टी की जरूरत होती थी, तो उन्हें अस्पताल और क्लीनिक से दूर भगा दिया जाता था।” यहां तक कि स्कूल में जब टीचर्स को यह पता चला कि उनके माता-पिता को कुष्ठ रोग है, तो उन्होंने जया के साथ अलग तरह का व्यवहार करना शुरू कर दिया।
स्कूल में Jaya Reddy को अलग बैंच पर बैठाते थे
जया बताती हैं, “स्कूल में मुझे एक बेंच पर अकेले बैठाया जाता था। छात्रों को मेरे साथ घुलने-मिलने या मेरे करीब आने तक से मना कर दिया गया। मेरे साथ ऐसा व्यवहार करते थे, जैसे मैं अपने साथ कोई बैक्टीरिया लेकर घूम रही हूं और उन पर छोड़ दूंगी। ऐसे माहौल में मेरा दम घुट रहा था।”
वह मानती हैं कि आज के समय में स्थिति पहले से थोड़ी बेहतर हुई है, लेकिन जागरूकता की अभी भी काफी कमी है। वह अपना पूरा दिन कॉलोनी के लोगों के लिए काम करने में बिताती हैं। उन्होंने (Jaya Reddy) कहा, “ऐसा नहीं है कि मैं किसी संगठन के लिए काम करती हूं और इसके लिए मुझे वेतन मिलता है। मैं ये सब इसलिए करती हूं, क्योंकि मैंने उनका जीवन जिया है। मैं जानती हूं कि कुष्ठ रोग होना शारीरिक और मानसिक रूप से कितना तकलीफ भरा होता है।”
सरकारी कार्यालयों में भी किया जाता है परेशान
जया का दिन जल्दी शुरू हो जाता है। मरीजों को प्राथमिक उपचार में मदद से लेकर पेंशन के लिए कागजी कार्रवाई या फिर मतदाता पहचान पत्र बनवाने तक जैसे कई कामों में उनकी मदद करने के लिए वह सुबह-सुबह उनके पास पहुंच जाती हैं।
वह बताती हैं, “अगर वे सरकारी कार्यालयों में लाइन लगाकर खड़े भी हो जाएं, तो भी अपना काम नहीं करवा पाते। कर्मचारी उन्हें एक डेस्क से दूसरे डेस्क पर भगाते रहते हैं। उनकी शारीरिक तकलीफें उन्हें ज्यादा देर तक खड़े नहीं होने दे सकतीं, फिर भी वे इस दर्द को झेलने के लिए मजबूर हैं।”
जया ने दसवीं कक्षा तक पढ़ाई की है। पहले वह मरीजों की केयरटेकर के रूप में काम करती थीं और वही उनकी आमदनी का जरिया भी था। लेकिन कोविड-19 के बाद, उन्होंने मरीजों के घर जाना बंद कर दिया है। उन्होंने कहा, “इसका मतलब यह नहीं है कि हम घर खर्च के लिए किसी पर निर्भर हैं। मेरा बेटा एक संस्थान में नौकरी करता है। उसी से हमारा घर चलता है।”
कोई उन्हें नौकरी तक नहीं देता
कुष्ठ रोग को कलंक मानने वाली सोच को समाज से मिटाना काफी मुश्किल काम है। जया (Jaya Reddy) कहती हैं, “अगर लोगों को पता चल जाए कि वे कुष्ठ कॉलोनी से हैं, तो कोई उन्हें नौकरी भी नहीं देता है। ये लोग झूठ बोलने के लिए मजबूर होते हैं।”
हालांकि मौजूदा समय में कुष्ठ रोगियों के पुनर्वास के लिए कई संगठन काम कर रहे हैं। लेकिन उन्हें अभी एक लंबा रास्ता तय करना है। ‘रोटरी क्लब एलायंस फॉर लेप्रोसी कंट्रोल’ के प्रमुख, दीपक कपूर ने विश्व कुष्ठ दिवस (30 जनवरी 2022) पर कुष्ठ रोगियों के लिए सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समानता की अपील की थी। उन्होंने इस रोग से जूझ रहे लोगों को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए उन्हें सशक्त बनाने पर जोर दिया।
संगठन तो अपना काम करते रहेंगे। उनके पास आर्थिक मजबूती भी है और काम करने के लिए पूरी एक टीम भी। लेकिन जया जैसे लोग कम ही मिलते हैं, जो एक अकेले अपने दम पर, बिना किसी के सहयोग से अपने प्रयासों को जारी रखे हुए हैं। ऐसे निस्वार्थ भाव से सेवा करने वालों को एक सलाम तो बनता है।
अगर आप उनसे संपर्क करना चाहते हैं या सहयोग करना चाहते हैं तो +91-9717924057 पर कॉल करें।
मूल लेखः विद्या राजा
संपादनः अर्चना दुबे
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