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Home केरल आर्किटेक्ट ने 10 एकड़ की बंजर ज़मीन को बना दिया 100 प्रकार के फलों का जंगल!

आर्किटेक्ट ने 10 एकड़ की बंजर ज़मीन को बना दिया 100 प्रकार के फलों का जंगल!

केरल में स्थित एलधो का 'स्वर्ग मेडू' 20 किस्म के सेबों का घर है और यहाँ 6-7 प्रकार के संतरे, अंगूर, लीची, और स्ट्रॉबेरी भी हैं!

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आर्किटेक्ट ने 10 एकड़ की बंजर ज़मीन को बना दिया 100 प्रकार के फलों का जंगल!

कोट्टायम के एलधो पचिलाक्कदन ने अपनी 15 साल की आर्किटेक्ट की नौकरी सिर्फ इसलिए छोड़ दी ताकि प्रकृति से जुड़ कर एक सरल जीवन जी पाएं। 42 साल के एलधो ने अपना सपना पूरा किया सेनापथी की अपनी 10 एकड़ बंजर ज़मीन को ‘स्वर्ग’ में बदल कर।

आज यहां अनेक प्रजाति के फल और सब्जियां उगती हैं। यह कारनामा उन्होंने कर दिखाया महज़ तीन साल के अंतराल में!

आज इनके इस खूबसूरत वन ‘स्वर्ग मेडु’ में लोग ट्रेकिंग जैसे अनुभवों का लाभ उठा सकते हैं।

आर्किटेक्ट से प्रकृति प्रेमी बनने तक का सफर

Architect turned fruit king
The trek to ‘Swarga Medu’.

अडूर के सरकारी पॉलिटेक्निक कॉलेज से पढ़ाई पूरी करने के बाद एलधो नौकरी करने लगे। इस नौकरी के अलावा उन्होंने कई और व्यवसायों में अपना हाथ आज़माया। रेस्तरां चलाने से ले कर कपड़ों की दुकान खोलने तक और यहां तक कि आर्ट गेलेरी की शुरुआत करने जैसे कई कामों को किया।

एलधो एक स्वयंसेवी संस्थान के साथ भी जुड़े जहां सरकार के साथ ‘फॉरेस्ट सर्विस’ के लिए काम किया। ट्रेक, हाइक और प्रकृति से जुड़ने के इस तरीके ने एलधो को कुछ अलग करने के लिए प्रोत्साहित किया।

एलधो बताते हैं, “ इडुक्की के एक ट्रेक के दौरान हमने एक ज़मीन देखी जिससे पहली बार में जुड़ाव हो गया। वह ज़मीन बंजर थी, इसलिए मुझे शंका थी कि मैं इसे बदल पाऊंगा या नहीं।”
2009 में इन्होंने अपने दोस्त विवेक विलासनी के साथ मिल कर इस ज़मीन को खरीद लिया और धरती के इस बंजर टुकड़े को “स्वर्ग” बनाने में लग गए ।

उन्होंने कहा, “हमारी योजना थी एक आत्मनिर्भर इको-सिस्टम के निर्माण की । वैज्ञानिक तकनीक की बजाय मैंने पारंपरिक तरीका अपनाया और कचरों में बीजों को खुद ही विकसित होने को छोड़ दिया।”

10 एकड़ में फैली सुंदरता

Architect turned fruit king
The view from Swarga Medu.

इडुक्की के पहाड़ों में बसे इस भूमि के कई आकर्षण केंद्र हैं और उन्हीं में से एक है यहां मौजूद फलों के जंगल, जिसमें 20 से अधिक प्रजाति के सेब, 6-7 प्रकार के संतरे, अंगूर, लीची, स्ट्रॉबेरी आदि शामिल हैं।

उन्होंने बताया, “ये बीज आसानी से नहीं मिले। मैंने देश विदेश घूम कर ऐसे पौधों को खोजा जो केरल की मिट्टी व मौसम के अनुरूप हो। मैं बताना चाहूंगा कि यह सबसे मुश्किल काम था।”

एलधो हर शाम पास की दुकान से फलों के कचरे बटोर लाते हैं और इसे प्रयोग कर मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाते हैं।

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एलधो बताते हैं, “ फलों के पोषण के लिए रासायनिक खाद नहीं डालता हूं। मेरा मानना है कि प्रकृति खुद में ही आत्मनिर्भर है। मानव जाति का काम सिर्फ बीज बोना है और मेरे हिसाब से हम सभी को प्रकृति चक्र के साथ छेड़-छाड़ नहीं करनी चाहिए।”

फलों के इस जंगल के अलावा, इस जगह को एलधो ने पर्यटकों एवं कृषि विशेषज्ञों के लिए खुला छोड़ा हुआ है। यहां पर्यटकों के रुकने कि व्यवस्था नहीं है पर वे एक रात के लिए टेंट में रुक कर, इन पहाड़ों में ट्रेकिंग करने के अलावा यहां के फलों का स्वाद भी ले सकते हैं।

उन्होंने बताया, “ स्वर्ग मेडु के निर्माण के पीछे कोई आर्थिक कारण नहीं था। मुझे प्रकृति के पास, एक शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करना था और यही मैंने किया। जहां तक पैसे की बात है तो इतनी आय हो जाती है जिससे मेरे परिवार का काम चल जाता है और साथ ही इन खेतों की देखभाल भी हो जाती है।”

फलाहार को बनाया जीवन का हिस्सा

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एलधो आज फलाहारी बन चुके हैं। इनके अपने खान पान में 90 प्रतिशत हिस्से में फल को शामिल किया है जो ‘स्वर्ग मेडु’ से आते हैं। वह बताते हैं, “ तीन साल हो चुके हैं और मेरे खान-पान में मुख्यतः यहां के फल शामिल हैं। मैंने जिस सिद्धान्त को अपनाया है उसके अनुसार मैं वही खाऊंगा जो मुझे प्रकृति देती है- न ज़्यादा, न कम। और अब तक इन फलों से मुझे पर्याप्त और अधिक पोषण मिल चुका है।”

एलधो की पत्नी बिंकी और इनके दोनों बच्चों ने भी इनकी जीवन शैली को अपना लिया है और इनके इस सफर में पूरा सहयोग देते हैं।

भविष्य की योजना

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Eldho with his family at Swarga Medu.

एलधो अभी कोट्टायम व एरनाकुलम में अपनी परियोजना ‘यूटोपिया’ पर काम कर रहे हैं। यहां ज़मीन के टुकड़ों को पट्टे पर दे कर इसपर आत्मनिर्भर इकोसिस्टम को तैयार करने की योजना है जहां इतनी फसल हो पाये कि इस पर एक परिवार निर्भर हो सके।

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उन्होंने कहा, “ अब जब लोग आत्मनिर्भर जीवनशैली की ओर वापस लौट रहे हैं, मैं उम्मीद करता हूं कि मैं हर किसी को ऐसा जीवन जीते देखूं जो प्रकृति से जुड़ा हुआ हो। मुझे उम्मीद है कि ‘यूटोपिया’ ऐसी जीवनशैली का सूत्रधार बन पाये।”

मूल लेख: सेरीन सारा ज़कारिया


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