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जब तक हम दूसरे किसी इंसान का दुख नहीं समझते, तब तक हमें अपना दुख ही सबसे बड़ा लगता है। लेकिन, इंसान को दूसरों की सेवा करके ही, अपनी कमजोरी और अपनी पीड़ा से लड़ने की शक्ति मिलती है। आज हम आपको जूनागढ़ की ऐसी दो बहनों के बारे में बताने जा रहे हैं, जो अपनी तकलीफ को भूलकर, पिछले 10 सालों से मानसिक रूप से कमजोर बच्चों की मदद के लिए काम कर रही हैं।
नीलम बेन और रेखा बेन परमार, यह काम अपनी संस्था ‘सांत्वन विकलांग विकास मंडल’ के जरिए कर रही हैं। खास बात यह है कि नीलम बेन खुद भी बचपन से 80 प्रतिशत दिव्यांग हैं। लेकिन बावजूद इसके, वह किसीका सहारा लेने के बजाय, 40 बच्चों का सहारा बनकर, काम कर रही हैं।
साल 2009 में, जब रेखा बेन अपनी बहन के इलाज के लिए राजस्थान में डेढ़ साल रुकी थीं, तभी इन दोनों बहनों ने हॉस्पिटल में दूसरों का दुख देखकर, इस सेवा के काम से जुड़ने का फैसला किया था।
दूसरों का दुख देखकर मिली संस्था शुरू करने की प्रेरणा
रेखा बेन, अपनी बड़ी बहन नीलम बेन के इलाज के लिए नारायण सेवा संस्थान राजस्थान में डेढ़ साल रुकी थी। जिसके बाद, उन्होंने सोशल सर्विस के बारे में ज्यादा जानने के लिए, साल 2011 में नागपुर के नागलोक सेंटर में आठ महीने की ट्रेनिंग की थी। जिसमें उन्हें बुद्ध की विचारधारा को करीब से जानने का मौका मिला।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए 35 वर्षीया रेखा बेन कहती हैं, "मैं बचपन से ही अपनी बहन की सेवा कर रही थी। ग्रेजुएशन के बाद, जब नीलम के ऑपरेशन के सिलसिले में हॉस्पिटल में थी, तब मुझे लगा कि मुझे जरूरतमंद लोगों की सेवा करनी चाहिए। जिसमें नीलम ने भी साथ देने की इच्छा जताई।"
राजस्थान से आने के बाद, उन्होंने अपने पिता हिरजी परमार से इस बारे में बात की। उनके पिता जूनागढ़ में एक गेराज चलाते हैं। दोनों ने मिलकर बिल्कुल छोटे स्तर पर काम करने की शुरुआत की। उन्होंने सबसे पहले जूनागढ़ शहर के दौलतपारा इलाके में संस्था की शुरुआत की।
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रेखा बेन ने बताया कि उन्होंने 3500 रुपये मासिक किराए पर एक कमरा लिया और दौलतपारा के स्लम एरिया से दो ऐसी लड़कियों को लेकर आई, जो मानसिक रूप से कमजोर थीं। उन दोनों लड़कियों के माता-पिता भी दिव्यांग थे। उस दौरान, नीलम घर पर ट्यूशन पढ़ाती थीं और रेखा जूनागढ़ की एक कम्पनी में काम करती थीं। दोनों बहन मिलकर महीने के 20 हजार रुपये कमाती थीं। उन्होंने अपने खर्च पर इन दो लड़कियों की सेवा का काम करना शुरू किया। उनके पिता भी, जरूरत पड़ने पर उनकी आर्थिक मदद किया करते थे।
उनके उनके पिता हिरजी भाई कहते हैं, "रेखा सेवा भाव वाली बच्ची है। उसने नीलम की एक माँ की तरह सेवा की है। मेरी बच्चियां लड़कों से कम नहीं हैं। जब उन्होंने इस काम से जुड़ने का फैसला किया तो मुझे बेहद ख़ुशी हुई।" साल 2012 में नीलम बेन और रेखा बेन ने घर छोड़कर इन लड़कियों के साथ रहना शुरू कर दिया।
धीरे-धीरे बढ़ने लगी लड़कियों की संख्या
तक़रीबन एक साल दौलतपारा में रहने के बाद उन्हें किसी कारणवश उस कमरे को खाली करना पड़ा, जिसे उन्होंने किराए पर लिया था। जिसके बाद इन दोनों बहनों में जूनागढ़ के पास वडाल गांव में किराए पर एक छोटा घर लिया। वडाल आने के बाद लड़कियों की संख्या भी बढ़कर पांच हो गई। वे वडाल में 5 साल रहीं। जैसे-जैसे लोगों को उनके काम के बारे में पता चला गांव के लोग मानसिक रूप से कमजोर लड़कियों को संस्था पहुंचाने लगे।
रेखा बेन कहती हैं, "हमने साल 2012 में ही अपनी संस्था को रजिस्टर करवा लिया था। हम इस काम के लिए किसी से पैसे नहीं मांगते थे। लेकिन जैसे-जैसे लोगों को हमारे काम के बारे में पता चलने लगा, कई लोग हमारी मदद के लिए सामने आने लगे।"
साल 2014 से उन्हें धीरे-धीरे डोनेशन मिलने लगा। सबसे पहले मुंबई की एक संस्था ने उन्हें 50 हजार रुपये का डोनेशन दिया था। जिसके बाद उन्होंने धोराजी रोड स्थित मखियाला गांव में फंड इकट्ठा करके 30 से 35 लोगों की रहने की व्यवस्था की और काम शुरू किया।
साल 2015 ने रेखा बेन ने नौकरी छोड़कर पूरी तरह से इन बच्चों की सेवा का काम शुरू किया। तब तक जूनागढ़ और सूरत के कुछ लोग और सामाजिक संस्थाएं उन्हें नियमित रूप से पैसों से मदद करने लगें थे। जिसमें कुछ एनआरआई लोग भी शामिल हैं।
रेखा बेन ने बताया कि दो साल पहले सूरत की संस्था हरिभाई गोटी चैरिटेबल ट्रस्ट ने करीबन 80 लाख रुपये से सेंटर के लिए भवन का निर्माण करवाया। इस निर्माण कार्य में इन दोनों बहनों ने भी सात लाख रुपये लगाए थे।
दो लड़कियों से शुरू करके 40 बच्चों तक का सफर
हालांकि नीलम बेन बचपन से ही रेखा बेन की मदद के सहारे बड़ी हुई, बावजूद इसके वह इन बच्चियों की देखभाल बड़े अच्छे ढंग से कर रही हैं।
नीलम बेन कहतीं हैं, "इन बच्चियों की सेवा करते हुए मैं अपनी तकलीफ भूल जाती हूं। मैं सुबह 6 बजे से देर रात तक इनके साथ रहती हूं और इनकी सेवा करती हूं। यहां रहने वाली ज्यादातर लड़कियां बेसहारा हैं।"
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रेखा बेन कहती हैं कि फिलहाल ‘सांत्वन विकलांग विकास मंडल’ में 40 लोग रहते हैं। जिसमें 9 साल की बच्ची से लेकर 51 साल तक की महिलाएं शमिल हैं। उन्होंने लोगों के डोनेशन की मदद से बच्चियों की पढ़ाई की व्यवस्था भी शुरू की हैं। संस्था का बाहर का काम रेखा बेन संभालती हैं, वहीं नीलम बेन संस्था में रहकर बच्चों का ख्याल रखती हैं।
साल 2017 से उन्होंने धीरे-धीरे कुछ महिलाओं को काम पर रखना शुरू किया। आज उनकी संस्था में 15 लोग काम कर रहे हैं। ये सभी इन लड़कियों के खाने-पीने और अलग-अलग एक्टिविटी जैसे नृत्य और क्राफ्टिंग आदि सिखाने में मदद करते हैं। हर महीने इस संस्था को चलाने में तकरीबन तीन लाख का खर्च आता है। कुछ लोग नियमित राशन देते हैं तो वहीं कुछ लोग दूध और सब्जियों का खर्च उठाते हैं।
लॉकडाउन में आई फंड की कमी
पिछले साल उन्हें लॉकडाउन में फंड की सबसे अधिक दिक्कत हुई थी। इसके बारे में रेखा कहती हैं, "हालांकि हमारे पास तक़रीबन आठ लाख रुपये की सेविंग थी, जिसे हमने बड़ी सावधानी से इस्तेमाल करके लॉकडाउन के दौरान इस्तेमाल किया। हमारे सभी स्टाफ ने सेवा भाव से इसमें अपना योगदान दिया और उनकी मदद से ही यह काम संभव हो पाया।"
वहीं इस साल से उन्हें फिर से नियमित डोनेशन मिलना शुरू हो गया है। दस साल पहले निस्वार्थ भाव से इन बहनों ने परिवार और समाज को छोड़कर इस नेक काम की शुरुआत की थी। यह उनकी निष्ठा ही है कि धीरे-धीरे उन्हें लोगों की मदद मिलने लगी है।
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मूल लेख- किशन दवे
संपादन- जी एन झा
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