हम अपने जीवन में प्लास्टिक के व्यवहार को कम करने के लिए कई प्रयास कर रहे हैं। इस कड़ी में हमने अपने दैनिक जीवन में कई बदलाव किए हैं।
हालांकि, एक चीज जिसे हम अभी तक नहीं बदल पाए, वह है सर्वव्यापी झाड़ू। अधिकांश झाड़ू के हैंडल प्लास्टिक के बने होते हैं और जब भी हम ऐसे झाड़ू को इस्तेमाल लायक न रहेने के बाद फेंकते हैं, तो हम प्रकृति में प्लास्टिक को बढ़ावा दे रहे होते हैं।
हालांकि, व्यक्तिगत रूप से इसके ज्यादा खतरे नजर नहीं आते हैं, लेकिन आँकड़े बताते हैं कि भारत में ऐसे करीब 40,000 मीट्रिक टन कचरे का उत्पादन होता है, जो अंततः हमारी जमीन को नुकसान पहुँचाते हैं।
इस खतरे से निपटने के लिए भारतीय वन सेवा के अधिकारी प्रसाद राव, जो कि फिलहाल त्रिपुरा में तैनात हैं, ने एक अभिनव तरीका सोचा है। जिससे कि इस भीषण समस्या का स्थायी समाधान हो सकता है।
प्लास्टिक की जगह बाँस का इस्तेमाल
प्रसाद राव और उनकी टीम ने अपनी कोशिश के तहत, झाड़ू के हैंडल के लिए प्लास्टिक की जगह, बाँस का इस्तेमाल किया। क्योंकि, भारत में न सिर्फ आसानी से उपलब्ध होता है, बल्कि यह पर्यावरण हितैषी भी है।
राव के अनुसार, ब्रूम-मेकिंग देश के कई हिस्सों में एक महत्वपूर्ण वानिकी उद्यम है और स्थानीय समुदायों की आय का एक बड़ा साधन है।
आदिवासी समुदायों को मदद
द बेटर इंडिया से बातचीत के दौरान, 2010 के आईएफएस अधिकारी ने कहा, “हमने इस पहल को करीब 7 महीने पहले, वन धन विकास कार्यकम के तहत शुरू किया। इसके जरिए हमारा उद्देश्य, आम वस्तुओं के उत्पादन में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करना है।”
उनकी पहल से करीब 1000 आदिवासी परिवारों को रोजगार मिला। आज वे सामग्री की खरीदने और असेंबल करने से लेकर पैकेजिंग तक की प्रक्रिया में शामिल हैं।
“क्षेत्र में आदिवासियों के उत्थान की दिशा में कार्य करना, मेरे काम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मुझे खुशी है कि हम जो कर रहे हैं, उससे लोगों की जिंदगी बदल रही है,” राव कहते हैं।
राव की टीम एक नाम के तहत काम कर रही है – त्रिपुरा पुनर्वास बागान निगम (TRPC)।
इसके तहत, उनका लक्ष्य इस साल तक 4 लाख झाड़ू बनाने का है और वह अगले साल इसमें दस गुना वृद्धि की उम्मीद कर रहे हैं।
राव कहते हैं, “हम अपने लक्ष्यों को पाने के लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन की तैयारी कर रहे हैं। हमें पहले कच्चे माल को प्रोसेसिंग के लिए बाहर भेजना पड़ता था, लेकिन अब हम खुद उत्पादन और प्रोसेसिंग करने के लिए तैयार हैं।”
कितनी है कीमत
आज बाजार में ब्रांड और जगह के हिसाब से, एक झाड़ू की कीमत 50 रुपये से लेकर 170 रुपये तक हो सकती है। लेकिन, इन झाड़ूओं की कीमत महज 35 से 40 रुपये के बीच है, जो प्लास्टिक का एक सस्ता और स्थायी विकल्प है।
झाड़ू बनाने वालों पर इसका क्या है प्रभाव?
राव झाड़ू बनाने के पीछे का गणित समझाते हुए कहते हैं, “यदि झाड़ू की कीमत 35 रुपए है, तो इसके कच्चे माल की लागत 15 रुपये आती है, बाँस के हैंडल को बनाने में 6 रुपए, जबकि इसे समुचित रूप देने में भी 6 रुपए खर्च होते हैं। इस तरह कुल 27 रुपए खर्च होते हैं। जो सीधा वैसे आदिवासियों को मिलता है, जो इसे बनाते हैं। जैसे-जैसे माँग बढ़ेगी, उनके लिए और अवसर बढ़ेंगे।”
इसके अलावा, झाड़ू हैंडल में बाँस का उपयोग करने के पीछे कई और कारण हैं:
- बांस सबसे तेजी से बढ़ने वाली घासों में से एक है। आप इसे जितना काटते हैं, यह उतनी तेजी से बढ़ता है।
- बाँस की एक प्रजाति एक दिन में 35 इंच यानी प्रति घंटे 1.5 इंच बढ़ सकती है।
- एक पेड़ को तैयार होने में कई साल लगते हैं, जबकि बाँस को पूरी तरह से विकसित होने में करीब 5 साल लगते हैं।
- धारणाओं की विपरीत बाँस का हैंडल काफी हल्का और सुविधाजनक होता है।
कैसे खरीदें?
राव कहते हैं, “हमारे पास पूरे देश से कई कॉल आ रहे हैं और हमें करीब 15,000 ऑर्डर मिले हैं।” हालांकि, इस वक्त यह उत्पाद केवल त्रिपुरा में उपलब्ध है और इसके लिए आप राव से +919402307944 पर संपर्क कर सकते हैं।
वह कहते हैं, “हम ई-रिटेल प्लेटफॉर्म के साथ बात कर रहे हैं और उम्मीद है कि जल्द ही हमारे उत्पाद को सूचीबद्ध किया जाएगा।”
इस सामाजिक पहल का उद्देश्य साधारण है – आदिवासी समुदायों को आर्थिक मजबूती देने के साथ-साथ पर्यावरण के अनुकूल व्यवहारों को बढ़ावा देना।
मूल लेख – VIDYA RAJA
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संपादन: जी. एन. झा
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