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केरल में अल्लेपी जिले के गाँव, मुहम्मा में 700 महिलाओं ने आगे बढ़कर सार्वजनिक तौर पर फैसला लिया कि अब वे माहवारी के दौरान सिंथेटिक सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल नहीं करेंगी। इनमें से 500 औरतें पहले से ही सुरक्षित विकल्प जैसे कि मेंस्ट्रुअल कप और कपड़े के बने पैड इस्तेमाल कर रही हैं और बाकी औरतें भी इन विकल्पों की तरफ बढ़ रही हैं।
सबसे अच्छी बात ये है कि महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ये अभियान मुहम्मा ग्राम पंचायत ने चलाया था और एक साल से भी कम समय में उन्हें सफलता मिली। उन्होंने अपने इस माहवारी स्वच्छता अभियान को 'मुहम्मोदायम' नाम दिया था।
इस प्रोजेक्ट को पिछले साल मार्च में एक नॉन-प्रॉफिट संगठन, अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड एनवायरनमेंट (ATREE) ने ग्राम पंचायत के साथ मिलकर शुरू किया था।
उनका आखिरी लक्ष्य, मुहम्मा को अगले छह महीनों में भारत की पहली सिंथेटिक सैनिटरी नैपकिन फ्री पंचायत बनाना है। पंचायत के16 वार्डों में लगभग 6 हज़ार महिलाएँ हैं, जिन्हें माहवारी होती है। इनमें से 3 वार्डों में उन्हें सिंथेटिक फ्री होने में सफलता मिली है।
ये पहल बहुत ही ख़ास और प्रभावशाली है क्योंकि इसे उस इलाके में सफलता मिल रही है, जहां 25 प्रतिशत औरतें आज भी माहवारी में कपड़ा आदि इस्तेमाल करती हैं। यहाँ माहवारी के बारे में बात करना अभी भी शर्म की बात मानी जाती है।
कैसे हुई शुरुआत:
बंगलुरु स्थित संगठन, ATREE बहुत ही प्रभावी तरीके से उन इलाकों में काम कर रहा है जहां पर पानी का प्रदुषण बहुत ज्यादा है। अपने काम के दौरान, उन्हें मुहम्मा में पानी प्रदुषण के मुद्दे के बारे में पता चला और बस फिर वे वहां मदद के लिए पहुँच गये।
उन्होंने मुहम्मा में जल-स्त्रोतों का मुआयना किया और वहां की नहर की कायाकल्प करने का प्रोजेक्ट शुरू किया।
"हमें नहर में डायपर्स और सैनिटरी नैपकिन के ढेर मिले, जो कि केरल की सबसे लम्बी झील, वेम्बनाड से जुड़ी हुई है। हमारे सर्वे के मुताबिक, हर महीने लगभग 1 लाख पैड यहां इस्तेमाल होते हैं। सैनिटरी नैपकिन के सिस्टेमैटिक डिस्पोज़ल पर फोकस करने की बजाय हमने सिंथेटिक नैपकिन से पूरी तरह से निजात पाने का फैसला किया।" ATREE की प्रोग्राम अफसर, रीमा आनंद ने द बेटर इंडिया को बताया।
जब ATREE ने पंचायत के अध्यक्ष जे. जयालाल से इस संदर्भ में बात की तो वह भी तुरंत मान गये।
"साफ़-सफाई के दौरान जब सैनिटरी नैपकिन के ढेर नहर से निकले तो हमें पता चला कि सैनिटरी पैड की वजह से कितना नुकसान हो सकता है। ये सिर्फ पर्यावरण के लिए ही नहीं बल्कि जानवरों के लिए भी खतरनाक है। ज़रूरी फण्ड और अनुमति देकर हम कम से कम बदलाव लेने के लिए कुछ तो कर सकते हैं," जयालाल ने बताया।
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पंचायत ने अपनी तरफ से एक लाख रुपये इस अभियान के लिए दिए और बाकी खर्च, ISRO के कमर्शियल विभाग अंतरिक्ष ने उठाया। इस पैसे को मेनस्ट्रुअल कप और कपड़े के पैड खरीदने पर खर्च किया गया और फिर ये सब्सिडी दर पर बांटे गये।
कपड़े के पैड का पैकेट 250 रुपये की जगह 80 रुपये का दिया गया और मेनस्ट्रुअल कप भी अपनी लागत से छह गुना कम रुपये में दिए गये।
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शर्म से बाहर आना:
माहवारी के लिए इको-फ्रेंडली विकल्पों को सस्ता करने से भी ज्यादा मुश्किल था लोगों के व्यवहार में बदलाव लाना। इसलिए कप और कपड़े के पैड लोगों को मुफ्त में देकर उन्हें इस्तेमाल करने के लिए कहने के बजाय ATREE ने सबसे पहले 30 स्थानीय आशा वर्कर और स्थानीय महिलाओं के साथ पिछले साल मार्च में अवेयरनेस वर्कशॉप की।
इस वर्कशॉप से रीमा और इन औरतों को बहुत-सी बातों का पता चला। "मैं बहुत हैरान थी कि इन इलाकों में हालातों कितना को अनदेखा किया जाता है। सबसे पहले तो कोई भी पीरियड्स के बारे में खुलकर बात नहीं करता। बहुत कहने पर, सिर्फ कुछ ने अपनी समस्याएँ बताईं। कप जैसी कोई चीज़ अपनी वेजाइना में डालने की बात बहुत-सी औरतों को सही नहीं लगी," रीमा ने कहा।
इस सबके बीच, 36 वर्षीया बिनिषा ने कई बार मेनस्ट्रुअल कप के इस्तेमाल के बारे में जानने के लिए अपना हाथ उठाया लेकिन फिर इस विषय पर शर्म के नज़रिये ने उन्हें चुप करा दिया।
यहाँ से उन्हें अंदाज़ा हो गया था कि बदलाव के लिए सिर्फ वर्कशॉप काफी नहीं है।
इसलिए, आशा वर्कर्स और ATREE की टीम ने घर-घर जाकर एक-एक महिला से बात की। इस बार बेझिझक होकर बिनिषा ने बताया-
"मेनस्ट्रुअल कप के फायदे जानने के बाद भी मुझमें इसे इस्तेमाल करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। लेकिन जब आशा वर्कर्स घर आयीं तो यह बहुत अच्छा लगा। इसे पहनने से लेकर निकालने की प्रक्रिया तक, मैं हर चीज़ के बारे में निश्चिन्त होना चाहती थी। जब मुझे पता चला कि ये बहुत आसान और सुरक्षित है तो मैंने खुद एक सैंपल प्रोडक्ट ट्राई करने के लिए कहा।"
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अच्छी बात ये थी कि उस समय बिनिषा के माहवारी के दिन थे। अपने आखिरी दिन पर उन्होंने आने वाले महीनों में भी कप इस्तेमाल करने की ठान ली। इस तरह बिनिषा अपनी पंचायत में पहली महिला बनी जिन्होंने सिंथेटिक पैड छोड़कर मेनस्ट्रुअल कप का इको-फ्रेंडली और सुरक्षित विकल्प अपनाया।
कप के इस्तेमाल के अनुभव के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा, "मुझे रेग्युलर पैड इस्तेमाल करने से स्किन पर दाने भी हो जाते थे। फिर हर छह घंटे में पैड बदलने के लिए साफ़-सुथरा शौचालय ढूँढना भी बहुत मुश्किल हुआ करता था। लेकिन कप, इको-फ्रेंडली और लागत में कम होने साथ-साथ इस्तेमाल करने में भी आसान है।
बिनिषा के अनुभव के बाद उनके घर की अन्य औरतें भी कप इस्तेमाल करने लगी हैं।
एक और गृहिणी, माया ने भी इस बदलाव को अपनाया और साथ ही, अपने घर की दो और महिलाओं को प्रेरित किया। बिनिषा और माया की तरह अब लगभग 700 महिलाएँ पुराने रिवाजों से बाहर निकल कर बदलाव के लिए तैयार हैं। उन्होंने कपड़े के पैड और कप के लिए फॉर्म भरा है।
माया और बिनिषा का उदहारण देकर, ATREE अब स्कूलों और महिला मंडलों में बढ़-चढ़कर इस बारे में जागरूकता अभियान कर रहा है।
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इस तरह के अभियान, सामाजिक बदलाव और पर्यावरण के संरक्षण के लिए बेहतर कदम है। मुहम्मा ग्राम पंचायत उदहारण है कि कैसे एक-एक व्यक्ति का प्रयास भी बड़े बदलाव की कहानी लिख सकता है!
संपादन- अर्चना गुप्ता