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‘ओखली’ हर भारतीय रसोई की शान पहुंची विदेश, हज़ारों रुपयों में खरीदते हैं विदेशी

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पढ़िए कैसे भारत में बनी ओखली पहुंच रही है विदेश तक, ऑनलाइन हजारों रुपये देकर खरीद रहे हैं लोग।

मिक्सर ग्राइंडर से लेकर फ़ूड प्रोसेसर तक, न जाने कितने ही किचन उपकरण आजकल हमारे पास मौजूद हैं। बावजूद इसके चाय में अदरक डालने के लिए आज भी हम में से ज्यादातर लोग अपनी छोटी सी ओखली का इस्तेमाल करते हैं। पहले जब इतने सारे साधन नहीं थे, तब मसाले, चटनी आदि को पीसने के लिए घर में ओखली का ही इस्तेमाल किया जाता था। ओखली एक ऐसे मजबूत कटोरे को कहते हैं, जिसमें भारी मुसल या डंडे से चीजें तोड़ी या पीसी जाती हैं। 

उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक इसका उपयोग किया जाता है। बस जगह के साथ-साथ इसके नाम बदलते रहते हैं।  

अंग्रेज़ी में इसे ‘मोर्टर’ (mortar) और मुसल को ‘पेसल’ (Pestle) कहते हैं। मारवाड़ी भाषा में ओखली को ‘उकला’ तथा ‘मुसल’ को ‘सोबीला’ कहते हैं। गुजराती में खांडनी-दस्ता और उत्तराखंड में ओखली को ओखल, ऊखल या उरख्याली भी कहा जाता है। वहीं, दक्षिण भारत में इसे कई जगह अट्टुकल के नाम से जाता है। जिस तरह इसके नाम अलग-अलग हैं, वैसे ही इसके रूप भी कई हैं। पत्थर से लेकर ताम्बे और स्टील तक सभी प्रकार की ओखलियों को अलग-अलग तरीकों से उपयोग में लिया जाता है। 

ओखली सबसे पहले कहाँ इस्तेमाल की गई? क्या यह किसी भारतीय की खोज है? इन सारे सवालों के सटीक जवाब तो शायद मिलना मुश्किल हैं। लेकिन हमारे देश में इसका इस्तेमाल सदियों से हर एक राज्य में किया जा रहा है। भारत में सदियों पहले प्राचीन चिकित्सक सुश्रुत और चरक भी औषधि कूटने के लिए ओखली का प्रयोग करते थे। 

okhli use for making medicine

भारत में ओखली का महत्व 

हमारे देश की एक मशहूर कहावत भी है कि जब ‘ओखल में सिर दे दिया, तो मुसल से क्या डर? कहावतें और परम्पराएं हमेशा एक दूसरे की पूरक होती हैं। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारतीय परिवेश में ओखली आम होने के साथ-साथ कितनी खास भी है। हमारे देश के कई राज्यों में त्योहारों पर ओखली की पूजा भी की जाती है। सालभर की हल्दी और मिर्च को इसमें कूटकर पाउडर बनाने से पहले इसे पूजा जाता है।  

आज भी उत्तराखंड गढ़वाल के गाँवों में किसी मांगलिक कार्य में प्रयोग होने वाली हल्दी ओखली में ही कूटी जाती है। बिहार में दाल-सत्तू और दक्षिण भारत में इडली और डोसा का घोल बनाने के लिए पहले इसका ही इस्तेमाल किया जाता था। बिहार में ऐसा कहा जाता है कि अगहन शुरू होते ही घर-घर में ओखली-मुसल की धमक गुंजने लगती है। चूड़ा बनाना हो या चावल, घर की महिलाएं सुबह से धान कूटने के काम में लग जाती हैं। वहीं, गुजरात और राजस्थान में, सुबह के नाश्ता में बाजरी की घाटी बनाने के लिए गांव  की महिलाएं ओखली में बाजरी भी कूटा करती थीं। 

कई बार हमारी बॉलीवुड की फिल्मों में भी,  गांव का कोई दृश्य फिल्माने के लिए  महिलाओं को ओखली और मुसल का इस्तेमाल करते दिखाया जाता है। 

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पहले के जमाने में घर बनवाते समय आँगन में ही पत्थर से ओखल बनाया जाता था। धीरे-धीरे इसके रूप बदले और आज ओखली एक छोटे से हैंडी रूप में हमारे किचन के प्लेटफार्म पर आ गई।

विदेशों तक मशहूर है देसी ओखली 

हालांकि, नई पीढ़ी को ओखली और मुसल शायद ही पता हो, लेकिन यह बात पक्की है कि इसकी मांग आज भी बरकरार है। न सिर्फ भारत में बल्कि दूसरे देशों में भी लोग ऑनलाइन ऑर्डर करके इसे मंगा रहे हैं।  विलुप्पुरम (तमिलनाडु) के छोटे से गांव में रहनेवाले विजय पन्नीरसेल्वम और उनकी पत्नी सरन्या सुब्बैया ने कई साल IT कंपनी में नौकरी करने के बाद, भारतीय हेंडीक्राफ्ट को ऑनलाइन बेचने के लिए एक छोटा सा स्टार्टअप शुरू किया। सरन्या बताती हैं कि नौकरी के लिए वह लंदन में कुछ साल रही थीं।  उन्होंने वहीं पर ही देखा की बाहर के देशों में लोग भारत में बनी चीजें बेहद पसंद करते हैं। 

चूँकि वह जहां रहती हैं,  वहां गांव में कई कलाकार काले पत्थर से ओखली और टेर्राकोटा के बर्तन बनाने का काम करते थे। इसलिए उन्होंने इसी से जुड़ा स्टार्टअप शुरू किया। वह कहती हैं, “दो सालों से हमने स्टोन ग्राइंडर (ओखली) को भी अपने प्रोडक्ट्स में शामिल किया है, जिसके बाद हमें अमेज़न के जरिये लगातार ऑर्डर्स मिल रहे हैं। हालांकि विदेश में इसके ज्यादातर खरीदार वे हैं जो सालों भारत से बाहर रह रहे हैं और उन्होंने भारत में अपने घरों में ऐसी चीजे देखी हैं।”

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विलेज डेकॉर नाम से उनका स्टार्टअप ग्राइंडर की कई वेराइटीज बेच रहे हैं। इस तरह के ऑनलाइन प्लेटफार्म की मदद से,  गांव के कलाकारों अपने प्रोडक्ट्स विदेश तक बेच पा रहे हैं। ग्रेनाइट पत्थर से बनई उनकी ओखली वजन में भारी हैं, जिसे बड़ी देखभाल के साथ विदेशों तक भेजा जाता हैं, इसलिए इसकी कीमत भी कई गुना ज्यादा होती है। यानी भारत में जो ओखली वे तकरीबन 2000 में बेचते हैं उसकी कीमत अमेरिका में 15000 के करीब हैं। 

बावजूद इसके लोग ख़ुशी-ख़ुशी ओखली खरीद रहे हैं। 

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सरन्या के पति विजय ने बताया, “फ़िलहाल हमारे पास गांव में ओखली बनाने वाले पांच से ज्यादा लोग काम कर रहे हैं। वहीं हमें कनाड़ा, सिंगापूर और UAS से इसके रेगुलर ऑर्डर्स  मिल रहे हैं। हमें बड़ी ख़ुशी है जब दूसरे देशों से लोग इन पारम्परिक चीजों का इस्तेमाल करते हुए वीडियो बनाकर भेजते हैं।”

यानी यह कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय रसोई की शान विदेशों में भी खूब इस्तेमाल हो रही है। आप विलेज डेकॉर से ओखली खरीदने के लिए अमेज़न या सोशल मीडिया पर सम्पर्क कर सकते हैं। 

संपादनः अर्चना दुबे

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