हम सब अपने जीवन में कुछ अलग ही करना चाहते हैं लेकिन इस कुछ अलग के पीछे हम सब का अपना कोई न कोई स्वार्थ होता है लेकिन कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो अपने लिए नहीं बल्कि समाज और पर्यावरण के लिए कुछ अलग करते हैं। ऐसे ही एक व्यक्ति हैं रमनकांत त्यागी, जिनका जीवन ही नदी और तालाब को समर्पित है।
उत्तर-प्रदेश के मेरठ जनपद के पूठी गाँव के रहने वाले रमनकांत त्यागी ने पढ़ाई के बाद शुरूआत में जीवन यापन के लिए नौकरी की लेकिन उन्हें वह जीवन रास नहीं आया।
रमनकांत त्यागी ने द बेटर इंडिया को बताया, “घर की परिस्थितियां ऐसी थीं कि हम दोनों भाइयों को नौकरी के लिए अपने गाँव से बाहर निकलना पड़ा। हमें मेरठ में एक जगह नौकरी मिली थी और हम वहीं रहने लगे। मैं वहां काम तो कर रहा था लेकिन मेरा मन वहां स्थिर नहीं था, मुझे कुछ और ही करना था।”
मेरठ में काम करते हुए साल 2001 में रमनकांत की मुलाकात समाज-सेवी, अनिल राणा से हुई। बातों-बातों में पता चला कि अनिल अपनी अच्छी-खासी शिक्षक की नौकरी छोड़कर सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए हैं। उस समय वह मेरठ में जल-संरक्षण पर काम कर रहे थे।
रमनकांत ने बताया “अनिल जी से मिलकर लगा मानो मुझे मेरी राह मिल गई। शायद यही वह रास्ता था जो मैं हमेशा से ढूंढ रहा था। मैंने उनसे कहा कि मुझे उनके साथ ही काम करना है। उन्होंने पहले तो मना किया कि तुम अभी युवा हो और मैं तुम्हे कोई पैसे नहीं दे पाऊंगा। लेकिन मैं तो बिना पैसों के भी उनके साथ काम करना चाहता था। मेरे भाई ने भी मेरे इस फैसले में मेरा साथ दिया।”
रमनकांत ने अपनी नौकरी छोड़कर अनिल राणा के साथ उनकी जल-सभाओं में जाना शुरू कर दिया। जल-संरक्षण के काम में उनकी रूचि गहरी होती गई। अनिल राणा के दफ्तर में पानी के स्त्रोत, नदी-तालाब, वर्षा जल संचयन आदि के ऊपर जितनी भी किताबें या फिर शोध-पत्र थे, उन्होंने सब पढ़ लिए।
इसके बाद वे उत्तर-प्रदेश के अलग -अलग ग्रामीण इलाकों में घूमने लगे। इस दौरान उन्होंने काली नदी और हिंडन नदी का अध्ययन किया। उन्होंने हिंडन नदी की सहारनपुर से लेकर गौतमबुद्ध नगर तक तीन-चार बार यात्राएं की और इसका एक नक्शा तैयार किया।
रमनकांत ने बताया- “मैंने जो नक्शा बनाया, आज उसे सरकार द्वारा भी इस्तेमाल किया जा रहा है। इसी तरह हमने बहुत से तालाबों के संरक्षण और संवर्धन पर भी काम किया। लेकिन इसी बीच, साल 2008 में दिल का दौरा पड़ने से मेरे गुरु, अनिल राणा का देहांत हो गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था अब आगे क्या करना है। लेकिन मैं इतना जानता था कि मुझे उनके दिखाए रास्ते पर ही चलना है और जल-संरक्षण के उनके काम को देशभर में फैलाना है।”
इसके बाद, रमनकांत ने अपने भाई के साथ मिलकर ‘नेचुरल एनवायरनमेंट एजुकेशन एंड रिसर्च (नीर) फाउंडेशन‘ की नींव रखी और जल संरक्षण विषय पर काम आरंभ किया। जल-स्त्रोतों पर उनके काम को देखते हुए उन्हें साल 2009 में इस्तांबुल के ‘वाटर फोरम’ आयोजन में जाने का मौका मिला। वहां उनकी मुलाकात दुनिया भर के ‘वाटर हीरोज’ से हुई।
पिछले एक दशक में, रमनकांत अपने फाउंडेशन के ज़रिए हजारों गांवों में जल-संरक्षण का काम करने में सफल रहे हैं, जिनमें उत्तर-प्रदेश के साथ-साथ हरियाणा और मध्य-प्रदेश के गाँव भी शामिल हैं।
नदियों और तालाबों को मिला पुनर्जीवन:
रमनकांत बताते हैं कि नदियां दो तरह की होती हैं- बरसाती और पहाड़ी नदियां। बरसाती नदियां, पहाड़ी नदियों की सहायक नदियां होती हैं और बारिश के पानी पर निर्भर करती हैं। देशभर में हजारों छोटी-बड़ी बरसाती नदियां हैं जो भूजल और सतही जल से मिलकर बहती हैं। लेकिन पिछले कुछ दशकों में जिस तरह से हमारे यहां संसाधनों का दुरूपयोग हुआ है, उस वजह से बहुत-सी बरसाती नदियां सूख गई हैं और कहीं-कहीं पर इन नदियों ने नालों का रूप ले लिया है।
रमनकांत कहते हैं- “घर-घर में नल लग गए और इस वजह से तालाब और कुएं सूख गए। हमने नलों से और खेतों में ट्यूबवेलों से पानी खींचना शुरू किया तो भूजल स्तर गिरता ही चला गया। बारिश भी हमारे यहां प्रदुषण और जलवायु परिवर्तन के कारण अनियमित हो गई है। यही वजह है कि आज न जाने कितनी ही बरसाती नदियों का अस्तित्व ही खत्म हो गया है।
रमनकांत ने काली नदी को पुनर्जीवित करने का काम शुरू किया जो आज भी जारी है। इस नदी के बारे में उन्होंने बताया कि काली नदी का उद्गम मुज्जफरनगर के अंतवाडा गाँव से है और वहां से यह नदी हापुड़, बुलंदशहर, अलीगढ़, कासगंज, फर्रुखाबाद से होते हुए कन्नौज की गंगा में जाकर मिलती है।
598 किलोमीटर लंबी यह नदी, कभी अपने किनारे पर बसे हुए 1200 गांव, नगर और कस्बों के लिए पानी साधन हुआ करती थी। लेकिन जैसे-जैसे भूजल स्तर कम हुआ, वैसे-वैसे यह नदी सूखती चली गई। इसका उद्गम स्त्रोत एकदम सूख गया और कहीं-कहीं पर यह छोटे-से नाले में सीमित हो गई। रमनकांत के मुताबिक जब उन्होंने इस नदी के उद्गम को ढूंढा तो उन्होंने देखा कि यहां पर लोगों ने आस-पास मिट्टी डालकर खेती करना शुरू कर दिया है।
जल संरक्षण के अपने काम को लेकर रमन कांत बेहद सजग हैं। उन्होंने कहा कि वे पांच स्तर पर काम करते हैं-
1. जन-जागरूकता, 2. तालाब पुनर्जीवन, 3. वृक्षारोपण, 4. रसायन-मुक्त कृषि, और 5. कचरा-प्रबंधन
उन्होंने बताया कि नदी को फिर से जीवित करना सबसे जरूरी पहल है। इसके लिए वे लोगों को जागरूक कर रहे हैं। रमनकांत ने इस कार्य को जन-आंदोलन बनाया और लोगों को श्रमदान करने के लिए प्रेरित किया।
उन्होंने काली नदी को फिर से जीवित करने के लिए इसी फार्मूले पर काम किया। उन्होंने काली नदी के आसपास बसे लोगों को समझाया कि किसी भी तरह का कूड़ा-करकट नदी में नहीं आना चाहिए और आस-पास के किसानों को रासायनिक छोड़कर जैविक व प्राकृतिक खेती के लिए भी प्रेरित किया।
रमनकांत कहते हैं कि उनकी सालों की मेहनत 20 नवंबर 2019 को सफल हुई, जब नदी का उद्गम पुनर्जीवित हो गया। नदी में धीरे-धीरे साफ और शुद्ध पानी आ गया। वह दिन उनके लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं था। वह कहते हैं कि आज भी नदी का काम जारी है।
काली नदी के अलावा उन्होंने सहारनपुर से निकलने वाली हिंडन नदी के पुनर्जीवन का काम भी शुरू किया और अभी तक वे इस नदी को भी 15 किमी तक पुनर्जीवित करने में सफल रहे हैं। इस दौरान, उन्होंने 450 तालाबों को फिर से पुनर्जीवित किया है।
साथ ही, मुजफ्फरनगर के डबल और मोरकुका गाँव के 400 परिवारों को आरो सिस्टम से जोड़कर साफ़ पीने का पानी मुहैया करवाया है। नीर फाउंडेशन ने 10 गांवों में लोगों के लिए ओवर-हेड वाटर टैंक और बागपत के 4 गांवों में सोलर टैंक बनवाएं हैं और पश्चिमी यूपी के लगभग 80% इलाकों को वर्षाजल-संचयन की तकनीक से जोड़ा है। वह इन दिनों हापुड़ और बुलंदशहर से बहने वाली नीव नदी के संरक्षण कार्य में जुटे हैं।
किसानों की मदद:
जल-संरक्षण के साथ-साथ रमनकांत और उनकी टीम ग्रामीण समुदाय के और भी मुद्दों को हल करने के लिए प्रयासों में जुटी हुई है। वे बताते हैं, “हमारे इलाके में गन्ना-उत्पादन काफी ज्यादा है। इसलिए हमने सोचा कि क्यों न इस फसल से ही किसानों को अतिरिक्त आय का साधन दिया जाए। काफी शोध करने के बाद हमने एक खास एल. आर कम्पोस्टिंग यूनिट तैयार की, जिसमें किसान गन्ने के छिलकों को डालकर खाद बना सकते हैं।”
ललित-रमन (एल-आर) कम्पोस्टिंग यूनिट से आसानी से गन्नों के छिलकों और अन्य कृषि अपशिष्ट को खाद में परिवर्तित किया जा सकता है। अब किसानों को खेतों में पराली और गन्ने की फसल के जैविक अपशिष्ट को जलाने की ज़रूरत नहीं है बल्कि वे अपने खेतों में ही कम्पोस्टिंग यूनिट लगवाकर इससे खाद बना सकते हैं। इस खाद का उपयोग वह अपने ही खेतों में रसायनों की जगह कर सकते हैं। नीर फाउंडेशन ने अब तक 50 गांवों में यह कम्पोस्टिंग यूनिट लगाई है।
रमनकांत ने कम्पोस्टिंग यूनिट की सफलता के बाद ‘जीरो वेस्ट जैगरी यूनिट’ बनाने पर काम शुरू किया। गन्ना उत्पादन अधिक होने से यूपी में गुड़ बनाने वाले कोल्हू भी बहुत-सारे हैं। लेकिन इस काम में इस्तेमाल होने वाली तकनीक से बहुत कचरा उत्पन्न होता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए, रमन ने पुराने कोल्हुओं को नई ग्रीन तकनीक से जोड़कर, एक ‘जीरो वेस्ट जैगरी यूनिट’ का मॉडल तैयार किया है। मेरठ में इस मॉडल पर उनका एक पायलट प्रोजेक्ट चल रहा है।
रमनकांत कहते हैं कि शुरुआत में उन्हें काफी आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ा। लेकिन फिर उनके काम को देखते हुए बहुत से संगठनों ने उनका समर्थन किया। उन्होंने अपने सभी प्रोजेक्ट किसी न किसी साथी संगठन जैसे वाटर कलेक्टिव, इंटरनेशनल वाटर एसोसिएशन, फिक्की, वाटरकीपर अलायन्स, यूनाइटेड नेशन जैसे बड़े नाम भी शामिल हैं। उन्हें उनके काम के लिए अब तक बहुत से सम्मान से भी नवाज़ा गया है।उन्हें तीन बार वर्ल्ड वाटर चैंपियन का ख़िताब मिल चुका है।
रमन और नीर फाउंडेशन का काम पूरे देश के लिए एक उदाहरण है कि यदि साथ मिलकर तकनीक से काम किया जाए तो सफलता अवश्य मिलती है। वह कहते हैं, “मेरा उद्देश्य लोगों को, सरकार को एक मॉडल देना है ताकि हम पूरे देश में मर रहीं नदियों को बचा सकें। अगर हर प्रांत में कोई न कोई अपने इलाके की नदियों के पुनर्जीवन की ज़िम्मेदारी उठा ले और निरंतर प्रयास करे तो आने वाले 15 सालों में भारत की तस्वीर पानी के मामले में बहुत अलग होगी।”
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