अहमदाबाद की सड़कों पर ऑटो, लोडिंग गाड़ी, कैब और स्कूल बस दौड़ा रही हैं ये महिलाएँ!

अहमदाबाद में अब तक लगभग 130 महिलाओं को ड्राइविंग सिखाई जा चुकी है और इस बार के बैच में 100 महिलाएं एनरोल हुई हैं। इनमें से 50 से ज़्यादा महिलाएं प्रोफेशनली काम भी कर रही हैं।

“जब मेरी शादी हुई तब तो मैंने दसवीं कक्षा भी पास नहीं की थी। पर फिर मेरे पति ने मुझे आगे पढ़ने के लिए बहुत प्रेरित किया। सिर्फ़ पढ़ाई ही नहीं, बल्कि अगर कोई कोर्स करना है कुछ सीखना है या फिर जॉब, हर एक बात में उनका सपोर्ट रहता है। हमारी दो बेटियाँ हैं और वे कहते हैं कि मुझे हमारी बेटियों के लिए मिसाल बनना चाहिए,” 26 साल की जूही अपनी बेटी को गोद में खिलाते-खिलाते बड़े ही इत्मीनान से ये सब बातें बता रही थीं।

हम अहमदाबाद के एक सामाजिक संगठन, जनविकास के सेंटर पर बैठे थे, जहाँ जूही आजकल ‘ड्राईवरबेन प्रोजेक्ट’ के तहत ड्राइविंग की ट्रेनिंग के लिए आती हैं। जूही को यहाँ भेजने में उनके पति राकेश का ही हाथ है। राकेश खुद होंडा कंपनी में ड्राईवर की नौकरी करते हैं और जब उन्हें ‘ड्राईवर बेन प्रोजेक्ट’ के बारे में पता चला तो उन्होंने अपनी पत्नी को भी ड्राइविंग सीखने के लिए प्रोत्साहित किया।

अपनी बेटी के साथ जूही

जनविकास संगठन और आज़ाद फाउंडेशन द्वारा साझेदारी में शुरू हुई पहल- ‘ड्राईवर बेन: एक नई पहचान’ का उद्देश्य, गरीब तबकों से आने वाली लड़कियों व महिलाओं को ड्राइविंग की ट्रेनिंग के साथ-साथ आत्मविश्वास और आत्मरक्षा के गुर सिखा, उन्हें एक बेहतर भविष्य के लिए तैयार करना है।

साल 2016 में शुरू हुए इस प्रोजेक्ट की हेड, कीर्ति जोशी कहती हैं,

“हमारे यहाँ बहुत से ऐसे प्रोफेशन हैं जो आज भी प्रुरुष-प्रधान हैं। ड्राइविंग भी उनमें से एक है। निजी कामों के लिए ड्राइविंग करने वाली औरतें तो बहुत दिख जाएंगी, पर अगर ड्राइविंग को पेशा बनाने की बात हो तो इस क्षेत्र में औरतें ना के बराबर हैं। हमारा उद्देश्य महिलाओं को इस पेशे के लिए तैयार करके समाज में एक बदलाव लाना है। क्योंकि औरतों के लिए कोई भी कार्य-क्षेत्र तभी सुरक्षित बनेगा, जब उस क्षेत्र में पुरुष और महिलाओं की तादाद में बराबरी हो।”

छह महीने के इस कोर्स में इन महिलाओं को सिर्फ़ गाड़ी चलाना ही नहीं सिखाया जाता, बल्कि बहुत ही सोच-विचार कर इस पूरे प्रोग्राम को डिजाईन किया गया है। कीर्ति बताती हैं कि ड्राइविंग के अलावा महिलाओं को सेल्फ-डिफेन्स ट्रेनिंग दी जाती है। उनकी ‘सेक्स एंड जेंडर’ विषय पर वर्कशॉप की जाती है ताकि महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया जा सके।

“यह सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है कि आगे भी काम करते हुए इन महिलाओं को अपने अधिकारों के बारे में पता हो। हमारी एक ड्राईवर बेन जिग्नाषा एक घर में निजी ड्राईवर के तौर पर नियुक्त हुईं, लेकिन वहां पर एम्पलॉयर ने उनसे अपने घर के बाकी काम, जैसे सब्जी काट दो, कपड़े सुखा दो आदि कहना भी शुरू कर दिया। लेकिन जिग्नाषा को ट्रेनिंग के समय ही हमने सिखाया था कि उन्हें सिर्फ़ उनका काम करना है बाकी किसी काम के लिए वह पाबन्द नहीं हैं। इसलिए उन्होंने वहां अपने लिए स्टैंड लिया और बहुत आराम से कह दिया कि यह उनका काम नहीं है,” कीर्ति ने आगे बताया।

प्रोजेक्ट हेड कीर्ति जोशी

महिलाओं में अपने आत्मसम्मान और दृढ़ता की भावना लाना बहुत ज़रूरी है और यह ड्राईवर बेन की ट्रेनिंग का अहम हिस्सा है। महिलाओं को समय-समय पर ज़रूरी सरकारी योजनाओं के बारे में भी बताया जाता है और बहुत-सी महिलाओं को प्रधानमंत्री जन-धन योजना आदि से जोड़कर उनके बैंक में खाता खुलवाने में भी मदद की गयी है। इस सबके अलावा, किसी भी सेक्टर में जॉब करने के लिए इनकी पर्सनलिटी डेवलपमेंट और कम्युनिकेशन स्किल्स पर भी ख़ास काम किया जाता है।

ड्राईवर बेन प्रोजेक्ट से कुछ दिन पहले ही जुड़ी, भारती बताती हैं कि उनके घर-परिवार के माहौल के चलते उनका आत्मविश्वास लगभग खत्म हो गया था। पर यहाँ आने के चंद दिनों में ही उन्होंने खुद में एक सकारात्मक उर्जा महसूस की है।

“मैंने अपने परिवार की मर्जी के खिलाफ़ जाकर, जैसे-तैसे मेहनत-मजदूरी करके अपनी ग्रेजुएशन पूरी की। घर में कोई भी मेरे पढ़ने के फेवर में नहीं था। पहले सेमेस्टर में तो पापा ने बात तक नहीं की थी मुझसे। भाई-बहन भी कोई ख़ास सपोर्ट नहीं करते थे, इसलिए मानसिक तौर पर मैं बहुत कमजोर पड़ने लगी थी,” उन्होंने आगे कहा।

फिर एक दिन जनविकास से कम्युनिटी मोबिलाइज़र, नौसर से भारती को ड्राईवर बेन के बारे में पता चला और उन्होंने ड्राइविंग सीखने का फ़ैसला किया। भारती में सीखने की चाह इतनी थी कि सिर्फ़ दो हफ्तों में ही उनके ट्रेनर ने कह दिया कि उन्हें अपने पहले अटेम्प्ट में ही लाइसेंस मिल जायेगा। यहाँ के माहौल और रेग्युलर वर्कशॉप ने एक बार फिर भारती के दिल में अपने पैरों पर खड़े होने का जज़्बा जगा दिया है।

10-15 महिलाओं के साथ शुरू हुआ यह प्रोजेक्ट, आज अहमदाबाद की सैकड़ों महिलाओं तक पहुँच चूका है। कीर्ति के मुताबिक अब उनकी कोशिशें रंग लाने लगी हैं। शुरूआती सालों में जहां उन्हें और उनकी टीम को महिलाओं को इस प्रोजेक्ट से जोड़ने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही थी, वहीं अब खुद भी महिलाएँ आगे आकर जुड़ने लगी हैं।

“मुझे बहुत ख़ुशी है कि हमारे इस बार के बैच में हम 100 का आंकड़ा छूने में कामयाब रहे हैं। हमारी ट्रेन की हुई महिलाएँ आज अच्छी जगह काम कर रही हैं। हमारी एक ड्राईवर बेन, रेखा स्कूल बस चलाती हैं तो चंदा बेन, लोडिंग व्हीकल चला रही हैं,” कीर्ति ने गर्व के साथ बताया।

इस पूरे प्रोजेक्ट की सफलता का सबसे ज़्यादा श्रेय, कीर्ति इन महिलाओं के साथ-साथ कम्युनिटी मोबिलाइज़र नौसर जहाँ और ड्राइविंग ट्रेनर, आरिफ को देती हैं। कीर्ति बताती हैं कि ये नौसर बेन की मेहनत का नतीजा है जो शहर के पिछड़े इलाकों से भी आज महिलाएँ उनके यहाँ ड्राइविंग सीखने आती हैं।

भारती(बाएं) और नौसर बेन (दायें)

जनविकास और इन ज़रूरतमंद महिलाओं के बीच सेतु की तरह काम करने वाली नौसर बेन, एक सिंगल मदर हैं। उनकी बेटी 12 साल की है और वह अपनी बेटी को ख़ूब पढ़ा-लिखा कर उसे बेहतर से बेहतर भविष्य देना चाहती हैं। वह कहती हैं,

“जिन घरों में मर्दों की चलती है, वहां से ड्राइविंग जैसे प्रोफेशन के लिए महिलाओं को बाहर लाना आसान नहीं। पर मैं हार नहीं मानती, बार-बार जाकर उनसे मिलती हूँ, तरह-तरह की मिसालें देती हूँ। मैं नहीं चाहती कि कोई भी महिला मेरी तरह दर्द झेले क्योंकि मैं सिर्फ़ दसवीं तक पढ़ पाई थी। फिर जब मेरा तलाक हुआ तो मुझे मेरे बहुत से अधिकारों के बारे में पता भी नहीं था। पर आज यहाँ काम करते हुए, इन औरतों के साथ-साथ मैं भी बहुत कुछ सीख रही हूँ।”

ड्राईवर बेन प्रोजेक्ट से जुड़ा हर एक इंसान, एक-दूसरे के लिए सहारा है और आगे बढ़ने की प्रेरणा है। चाहे कोई टीम का सदस्य हो, पुरानी कोई ड्राईवर बेन जो कि ट्रेनिंग पूरी कर आज नौकरी कर रही है या फिर फ़िलहाल, ट्रेनिंग लेने वाली महिला, हर कोई एक-दूसरे से कुछ न कुछ सीखता रहता है। कीर्ति कहती हैं कि सबसे पहले बैच में उन्होंने जिन महिलाओं को ट्रेनिंग दी थी, वे उन्हें हर बार नई ड्राईवर बहनों से मिलवाने के लिए बुलाती हैं।

ऐसी ही एक मीटिंग में उन्होंने हमारी मुलाकात चंदा बेन से करवाई। जीन्स-टॉप में मस्तमौला चंदा बेन को देखकर लगा ही नहीं कि वह दो बेटियों की माँ हैं। 30 साल की चंदा बेन पिछले डेढ़ साल से जनविकास के साथ जुड़ी हुई हैं। जब उनके पति ने उनकी और उनकी बेटियों की ज़िम्मेदारी लेने से मना कर दिया तो उन्होंने अपनी ज़िंदगी की बागडोर अपने हाथ में ले ली।

“हमारे पास ऑटो तो था पर मुझे ड्राइविंग आती नहीं थी। इसलिए जब मैं यहाँ आई तो मैंने सबसे पहले ऑटो चलाना सीखने की बात कही। पर यहाँ मुझे ऑटो के साथ-साथ गाड़ी भी सीखने को मिली। फिर इन्होंने खुद टेस्ट आदि करवाकर लाइसेंस भी दिलवाया। मैंने शुरू में 4-5 महीने ऑटो चलाया और फिर अब लोडिंग व्हीकल चला रही हूँ। यहाँ मैंने एक बात सीखी कि अगर जीना है तो खुलकर जियो, किसी से डरकर मत रहो। इसलिए अब मैं जो करती हूँ, सिर्फ़ अपनी बेटियों के बारे में सोचती हूँ,” चंदा बेन ने कहा।

चंदा बेन

कभी पैसों के लिए अपने पति की राह तकने वाली चंदा बेन अब खुद महीने के 9-10 हज़ार रुपये कमा लेती हैं। अपने काम के साथ-साथ वे ड्राइविंग की प्रतियोगिताओ में भी भाग लेती हैं। कुछ समय पहले ही वे भुज में आयोजित थ्री-व्हीलर दौड़ में जीतकर लौटी हैं।

यहाँ आने वाली हर एक महिला की अपनी कहानी है और हर एक कहानी अपने आप में अलग है तो कहीं किसी मायने में एक जैसी भी। इन महिलाओं के एक ट्रेनर आरिफ भाई कहते हैं,

“एक औरत बाहर सिर्फ़ 10% होती है और बाकी 90% वह अपने अन्दर होती है। उसके अंदर इतना कुछ चलता रहता है कि आपको उस शबे उसका ध्यान हटाकर सिर्फ़ एक चीज़ पर लगाना है, यह मुश्किल है पर नामुमकिन नहीं। बस ज़रूरत है तो बिना रुके आगे बढ़ते रहने की।”

आरिफ भाई की ट्रेनिंग में अब तक 31 महिलाओं को ड्राइविंग लाइसेंस मिला है।

ड्राईवर बेन और अन्य टीम मेम्बर्स के साथ आरिफ भाई (नीली शर्ट में)

पर आरिफ भाई सिर्फ़ उनके ट्रेनर की भूमिका में ही सीमित नहीं हैं, बल्कि वह इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि कोई भी लड़की या महिला यहाँ आने के बाद ड्रॉपआउट ना करें। बहुत बार तो वह लड़कियों के घर जाकर उनके माता-पिता से बात करते हैं, उन्हें समझाते हैं और उनकी सुरक्षा की पूरी-पूरी ज़िम्मेदारी अपने पर लेते हैं।

“एक लड़की थी शबनम, जब वो यहाँ सीखने आती थी तो मैं उसकी अम्मी को फ़ोन करके बताता कि पहुँच गयी है वो और फिर जब यहाँ से निकलती थी तो फिर एक बार उसके घर फ़ोन करके जानकारी देता था। इससे उनका विश्वास सिर्फ़ उनकी बेटी पर नहीं बल्कि बाहर की दुनिया पर भी बना। आज वो लड़की ऊबर कैब चला रही है,” उन्होंने आगे कहा।

ड्राइवरबेन प्रोजेक्ट की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां पर इन महिलाओं को सिर्फ ड्राइविंग सिखाकर छोड़ नहीं दिया जाता है। बल्कि उन्हें ड्राइविंग लाइसेंस के टेस्ट की तैयारी भी गाँधीनगर आरटीओ पर ले जाकर करवाते हैं। फिर जब उन्हें लाइसेंस मिल जाता है तो उन्हें कहीं न कहीं अच्छी जगह नौकरी दिलवाने की ज़िम्मेदारी भी संगठन ही लेता है।

अहमदाबाद में अब तक लगभग 130 महिलाओं को ड्राइविंग सिखाई जा चुकी है और इस बार के बैच में 100 महिलाएं एनरोल हुई हैं। इनमें से 50 से ज़्यादा महिलाएं प्रोफेशनली काम भी कर रही हैं।

कीर्ति कहती हैं कि हमें ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को इस क्षेत्र से जोड़ना है ताकि सिर्फ एक-दो कैब्स में ही नहीं, बल्कि हर एक इलाके में जब ड्राइवर्स की बात हो तो उन मौकों पर अपना दावा करने के लिए महिलाएं हों। इसी से बदलाव आएगा।

अंत में इस प्रोजेक्ट से जुड़ी हर एक महिला सिर्फ एक ही बात कहती है और समझती है कि औरत लाचार नहीं होती, बस ज़रूरत है तो मेहनत करने की और आगे बढ़ने के लिए लड़ने की, तो बस संघर्ष करते रहिए!

संपादन – मानबी कटोच 


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