बाहर का तापमान 40 डिग्री होने के बावजूद भी यह दम्पति एक ऐसे घर में रह रहा है, जहा एक भी पंखा नहीं है। यह जगह एक जंगल की तरह विकसित है जहाँ किसी भी तरह का शहरी शोरगुल नहीं है। इन लोगों ने अपने लिए एक ऐसा माहौल बनाया है जो प्रकृति के बेहद करीब है। और इनकी इस कठोर परिश्रम का फल इन्हें अपने अच्छे स्वास्थ्य के रूप में मिला है। पिछले 17 सालो में इस दंपत्ति को एक बार भी दवाई की ज़रूरत नहीं पड़ी है।
जब हरी और आशा का विवाह होने वाला था तब इन्होने इस समारोह में कुछ अन्य पर्यावरण प्रेमियों को भी बुलाया। हर मेहमान का स्वागत फलों और केरल के पारंपरिक मिष्ठान ‘पायसम’ से किया गया।
हरी, कन्नूर के स्थानीय जल प्राधिकरण में एक कर्मचारी है, जब कि आशा किसानो को प्राकृतिक खेती के लिए बढ़ावा देने वाले एक समुदाय से जुडी हुई है। इन दोनों को प्रकृति से बेहद प्यार है और उनका यह स्नेह उनकी जीवनशैली में साफ़ झलकता है।
जब इन दोनों ने घर बनाने का सोचा, तब इन दोनों की राय थी कि घर न सिर्फ उर्जा से भरपूर हो, बल्कि प्रकृति के करीब भी हो। इनके एक आर्किटेक्ट मित्र ने इनका साथ दिया और अंत में इनके सपनो का घर तैयार हुआ। 960 sq.ft. का यह घर केरल के कन्नूर जिले में स्थित है। आज के समय में यह घर मिट्टी से बनाया गया है, जिसकी प्रेरणा केरल के आदिवासी तबके से ली गयी है, जो इसी प्रकार के मिट्टी के घरो में रहते थे।
ये मिट्टी की दीवारें मानो जीवित सी है जो सांस भी लेती है।
दिन के समय, ये दीवारें सूर्य की गर्मी को घर के भीतर प्रवेश करवाती है। जब तक घर के अन्दर की हवा सूरज के ताप से गर्म होती है, सांझ ढल जाती है। जिसके कारण रात के 11 बजे तक घर के भीतर का तापमान ज्यादा होता है। इसके बाद हवा ठंडी होने लगती है। हवा के आवाजाही के कारण घर में पंखे की ज़रूरत नहीं पड़ती। घर की छत कॉनक्रीट और नालीदार टाइल से बनायी गयी है। इस दम्पति ने कॉनक्रीट का इस्तेमाल इसलिए किया क्यूंकि केरल में बारिश अधिक मात्रा में होती है।
इस घर में बिजली का उपयोग बहुत कम होता है। घर के वास्तुकार ने घर को इस तरह से डिजाईन किया है जिस से इस घर को प्राकृतिक रौशनी प्रचुर मात्रा में मिलती है।
रौशनी की व्यवस्था करते समय इन्होने ध्यान रखा है कि हर एक लैंप को इस तरह लगाया जाए जिस से अधिक से अधिक दूर तक रौशनी फ़ैल सके।
हरी और आशा ने तय किया है कि वह फ्रिज नहीं रखेंगे। इसका एक कारण है कि अधिकतर समय यह अपने द्वारा उगाय गए फलो और सब्जियों को ताज़ा ही खाते है। कभी ज्यादा दिन तक कुछ रखना भी हो तो उसके लिए इन्होने किचन के एक कोने में इंट की जोड़ाई करके एक चौकोर जगह बनायी है जिसके अन्दर मिट्टी का घड़ा रख दिया है। इस घड़े को चारो ओर से रेत से ढक दिया गया है जिससे घड़े के अन्दर रखा खाना एक हफ्ते तक खराब नहीं होता।
इन्होने यहाँ सोलर पैनल भी लगाये है और इनका किचन बायो गैस से चलता है। घर से निकलने वाले सारे कचरे और मल को बायो गैस में बदल दिया जाता है। एक आम घरो में जहा बिजली की खपत करीब 50 यूनिट हो जाती है, वही इनके घर में हर महीने सिर्फ 4 यूनिट बिजली ही इस्तेमाल होती है। ऐसा नहीं है कि ये लोग आधुनिक उपकरणों का बिलकुल इस्तेमाल नहीं करते। इनके घर में टीवी, मिक्सर, कंप्यूटर जैसे अन्य उपकरण भी है। पर ये दोनों इस उर्जा का सही मात्रा में इस्तेमाल करना जानते है।
हरी और आशा का यह घर इनके द्वारा बनाये गए इस छोटे से जंगल के बीचों बीच है जो अब न जाने कितने चिडियों, तितलियों और जानवरों का भी बसेरा बन चूका है।
उनकी इस ज़मीन पर कई तरह के फल और सब्जियां उगती है जिन्हें ये प्राकृतिक रूप से ही उगाते हैं । केवल बीज बोने के समय ही ये खुरपी का इस्तेमाल करते हैं, जिसके बाद वे इस ज़मीन को जोतते नहीं। प्राकृतिक खाद का उपयोग किया जाता है, वो भी बहुत ध्यान से,जिस से धरती के अपने पोषक तत्व नष्ट न हो ।
आशा पूछती है, ” आपने कभी ध्यान दिया है कि जंगलो में उगे फल और खेती की हुई ज़मीन द्वारा उगाय फलों के स्वाद में अंतर होता है?” इस प्रश्न का जवाब वो खुद ही मुस्कुरा कर देती है, ” मिट्टी से आप कुछ छुपा नहीं सकते।”
इस दंपति को यह विश्वास है कि प्राकृतिक जीवन जीने से इनके स्वास्थ्य को बहुत लाभ मिला है। पिछले 17 वर्षो से इन्हें एक भी दवा की ज़रूरत नहीं पड़ी है। पौष्टिक भोजन और शरीर के प्राकृतिक स्वभाव से छेड़ छाड़ न करने के कारण ये दोनों किसी भी गंभीर बिमारी से बचे हुए हैं।
हरी बताते हैं, “कभी कभार अगर सर्दी ज़ुकाम हो भी जाए तो थोड़ा सा आराम, बहुत सारा पेय और उपवास से शरीर वापस स्वस्थ हो जाता है।”
हरी और आशा की तरह हर कोई खुद का जंगल तो नहीं बना सकता, पर फिर भी इनके इस जीवनशैली से हम दो सबक तो सीख ही सकते हैं – पहला,एक ऐसी जीवनशैली को चुनना जो प्रकृति के साथ मिलकर चले और दूसरा स्वयं के अस्तित्व को सादा एवं व्यवस्थित रखना।
मूल लेख रंजिनी शिवास्वामी द्वारा लिखित !
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