राजस्थान की ब्लू सिटी जोधपुर में महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय की याद में बना जसवंत ठाडा, राजपुताना आर्किटेक्चर का एक बेहतरीन उदाहरण है। एक झील के किनारे बनी इस इमारत को जोधपुर राजपरिवार के सदस्यों के दाह संस्कार के लिये सुरक्षित रखा गया है। इसे बनाने में सफ़ेद मार्बल का इस्तेमाल किया गया है, जबकि इसकी बाउंड्री वॉल को स्थानीय पत्थरों से बनाया गया है। हर पत्थर पर बढ़िया नक़्क़ाशी है।
इसी के पास जोधपुर का मशहूर मेहरानगढ़ किला बना हुआ है, जिसकी वास्तुकला अपने आप में अद्भुत है। यह 68 फीट चौड़ी और 117 फीट लंबी दीवारों से घिरा है। इस किले की बॉउंड्री के अंदर कई महल हैं।
सालों से, महलों की सीमाओं और क्षेत्र को सुरक्षित रखने के लिए बाउंड्री वॉल बनाई जाती है। समय के साथ-साथ लोग अपने पशुधन की सुरक्षा के लिए भी बाउंड्री बनाने लगे। वहीं शहरों के मॉर्डन घरों में होम गार्डनिंग के लिए बाउंड्री वॉल बनाई जाती है। पत्थरों के लिए दुनियाभर में लोक्रप्रिय राजस्थान में हमेशा से अलग-अलग तरह के पत्थरों का इस्तेमाल करके बाउंड्री वॉल बनाने का प्रचलन है।
आज भी यहाँ के मॉडर्न आर्किटेक्चर में बाउंड्री बनाने के लिए पत्थरों का इस्तेमाल किया जाता है।
कहीं लाल पत्थर, तो कहीं मिट्टी की बाउंड्री
आर्किटेक्ट तुषार केलकर बताते हैं कि महाराष्ट्र के कोंकणी इलाके के ज़्यादातर घरों में आपको लाल पत्थरों से बनी बाउंड्री वॉल मिल जाएगी। इसी तरह विदर्भ इलाके में काले पत्थरों का इस्तेमाल करके घर की बाहरी दीवारें बनाई जाती हैं। यहाँ के ऐतिहासिक किलों में भी इन्हीं पत्थरों की दीवारें मिलती हैं।
उन्होंने बताया, “गांवों के घरों में बायो फेंसिंग यानी पौधों का घेरा भी बनाया जाता है। महाराष्ट्र के अलावा राजस्थान और दक्षिण भारत के कुछ भागों में कैक्टस के पौधे बाउंड्री वॉल के रूप में खूब लगाए जाते हैं। कैक्टस के कुछ पौधे काफ़ी लम्बे होते हैं, इसलिए अच्छी ब्रीथिंग वॉल का काम करते हैं।”
गर्म प्रदेशों में ब्रीथिंग बाउंड्री वॉल के लिए बोगनवेलिया की झाड़ियाँ भी लगाई जाती हैं।
अहमदाबाद में सरदार पटेल फार्म में ऑर्गेनिक खेती से जुड़ें, डॉ. दिनेश पटेल बताते हैं कि उन्होंने अपने घर और फार्म के अंदर एक बेहतरीन ईको-सिस्टम तैयार किया है। जिसका सारा श्रेय वह अपनी ब्रीथिंग बाउंड्री वॉल को देते हैं। उन्होंने सात किलोमीटर की बाउंड्री बनाने केलिए बोगनवेलिया की झाड़ियां लगाई हैं।
बस्तर के आदिवासी इलाके की बात करें तो यहाँ आपको झाड़ियां या पौधे नहीं, बल्कि घरों के बाहर मोटी लकड़ी से बना घेरा दिखाई देगा।
बस्तर के रहने वाले रूप सिंह बताते हैं, “यहाँ लोकल मिलने वाली सरगी की लकड़ी से बनी बाउंड्री वॉल 100 साल से ज़्यादा चलती हैं। ये लकड़ियां पांच फ़ीट से भी ज़्यादा लम्बी होती हैं। इन्हें ज़मीन के अंदर गड्ढा बनाकर लगाया जाता है।”
छत्तीसगढ़ के ज़्यादातर आदिवासी क्षेत्र में आपको ऐसी बाउंड्री वॉल दिख जाएंगी।
नार्थ ईस्ट में बांस से बनी दीवारें
बैम्बू की खेती के लिए मशहूर देश के नार्थ-ईस्ट इलाक़े में, घरों को डिज़ाइन करने में बांस का इस्तेमाल ज़रूर होता है। फिर चाहे घर की छत बनानी हो या बाउंड्री वॉल। बढ़िया कारीगरी करके यहाँ के बैम्बू आर्टिस्ट, बैम्बू को मज़बूती के साथ बांधकर फ्रेम बनाते हैं, जिसे घर के बाहर बाउंड्री में लगाया जाता है।
असम की तरह ही बंगाल में भी बैम्बू लकड़ियों से गांव के घरों की बाहरी बाउंड्री तैयार की जाती हैं।
पश्चिम बंगाल के बरुइपुर में मॉडर्न सुविधाओं के साथ एक बंगाली-स्वीडिश कपल ने ‘कच्चा-पक्का’ नाम से एक घर बनाया है। लिनुस केंडल और रूपसा नाथ सस्टेनेबिलिटी और क्लाइमेट चेंज पर रिसर्च भी कर रहे हैं। उन्होंने अपने ईको-फ्रेंडली घर की बाउंड्री को बैम्बू से ही बनाया है।
वहीं बंगाल, बिहार, झारखण्ड और ओड़िशा के कई गांवों में सबसे प्रचलित है मिट्टी से बनी बाउंड्री वॉल। इसे बांस के ढांचे या मिट्टी की ईंटों से बनाया जाता है।
अलग-अलग राज्यों में इन मिट्टी से बनी वॉल्स पर स्थानीय पेंटिंग्स भी देखने को मिलती हैं; जिससे घर की शोभा और बढ़ जाती है।
दक्षिण भारत की बात करें तो बाउंड्री वॉल से ज़्यादा वहाँ के आर्किटेक्चर में बाहर की तरफ़ खम्भे बनाकर बरामदा या बैठक बनाने का चलन ज़्यादा है। ऐसा ही डिज़ाइन चेट्टिनाड के घरों में भी मिलता है।
लेकिन अब दक्षिण भारत में लोग ईको-फ्रेंडली मॉडर्न कंस्ट्रक्शन को ख़ुशी-ख़ुशी अपना रहे हैं। जिसमें मिट्टी से बनाई हुई और धूप में सुखाई ईंटों से, बिना सीमेंट का प्लास्टर किए घर की बाउंड्री वॉल बनाई जाती है।
सस्टेनबल तरीक़े से बनी बाउंड्री वॉल
इसके अलावा लद्दाख और कश्मीर के इलाकों में लोग मिट्टी और पत्थर से घर की बाहरी बाउंड्री बनाते थे। लेकिन वहाँ के बदलते तपमान की वजह से लोगों ने मिट्टी की जगह सीमेंट का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।
पत्थर, बांस या फिर लकड़ियां, जिस जगह जो आसानी से मिलता है, उसी के अनुसार देश के हर भाग में इनका इस्तेमाल किया जाता है। वहीं, कुछ युवा आर्किटेक्ट अपनी क्रिएटिविटी के साथ नए एक्सपेरिमेंट्स भी करते रहते हैं।
जैसे पुणे के आर्किटेक्ट कपल, सागर शिरुडे और युगा आखरे जब अपने लिए मिट्टी का एक ईको-फ्रेंडली घर बना रहे थे, तब उन्होंने अपनी ही ज़मीन की खुदाई से निकली मिट्टी का इस्तेमाल बेहतरीन तरीक़े से करने का फैसला किया। उन्हें लगा कि इस मिट्टी को क्यों बेकार जाने दें और पत्थर में पैसे क्यों खर्च करें?
उन्होंने सीमेंट की खाली बोरियों में मिट्टी और चूना भरकर अर्थ बैग बनाया। आर्मी के बंकर की तरह पूरी बॉउंड्री की दीवार के लिए, 3500 मिट्टी की बोरियां बनाईं, जिससे ज़मीन से 3 फुट नीचे और ज़मीन से 4 फुट की ऊंचाई पर दीवार बनी है।
सालों से आर्मी बंकर में ऐसे ही बैग से बनी वॉल का इस्तेमाल किया जा रहा है। यह एक सस्ता और आसान तरीक़ा है, मोटी बाउंड्री वॉल बनाने का।
हालांकि समय के साथ घरों की जगह बड़ी इमारतों और अपार्टमेंट्स ने ले ली है। वहीं, घर बनाने की शुरुआत ही इंसान सीमेंट और कंक्रीट का बॉर्डर बनाकर करता है। लेकिन आज के ज़माने में भी देश के कई गाँव ऐसे हैं, जहाँ पारम्परिक तरीक़े से ही बाउंड्री वॉल बनाई जा रही है।
वहीं, ईको-फ्रेंडली कंस्ट्रक्शन से जुड़े लोग पुराने तरीक़ों को नए रूप-रंग के साथ लोगों के बीच लोकप्रिय बनाने का काम कर रहे हैं।
संपादन- भावना श्रीवास्तव
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