तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली शहर से 42 किमी दूर स्थित है मुसिरी पंचायत टाउन। ये जगह कावेरी नदी के तट पर बसी है और इसलिए यहाँ की ज़मीन काफी उपजाऊ है।
यहाँ पर भूजल का स्तर काफी ऊपर है, जिस वजह से सामान्य शौचालय यहाँ एक समस्या है। सीवेज का सही ढंग से डिस्पोजल न होने से पानी के प्रदूषित होने का खतरा लगातार बना रहता है। इस बात को ध्यान में रखकर ही सोसाइटी फॉर कम्युनिटी ऑर्गेनाइजेशन एंड पीपल्स एजुकेशन (SCOPE) ने मुसिरी में ‘इकोसन’ शौचालय लगवाए।
इस सिस्टम में, कोई फ्लश या फिर सीवेज से कोई पाइप का कनेक्शन नहीं है। जिससे किसी भी पानी का स्त्रोत या फिर भूजल के प्रदूषित नहीं होता ।
सबसे पहला इकोसन शौचालय साल 2000 में कलिपलायम गाँव में बनाया गया था। साल 2005 तक आते-आते उन्होंने अपनी तकनीक को अच्छा विकसित कर लिया और सात शौचालयों वाला पहला सामुदायिक शौचालय सिस्टम बनाया गया, जिनमें पुरुष, महिलाओं और बुजुर्गों के लिए अलग अलग शौचालय बनाये गए।
तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में ही SCOPE ने 20 हज़ार से ज्यादा इकोसन शौचालय लगाएं हैं। इस संगठन को साल 1986 में SCOPE के फाउंडर मराची सुब्बारमण ने ग्रामीण विकास को ध्यान में रखकर शुरू किया था।
जब SCOPE अस्तित्व में आया और उन्होंने गाँव-गाँव जाकर लोगों से बात की तब उन्हें समझ में आया कि इन इलाकों में खुले में शौच की समस्या बहुत ज्यादा है। उस समय उन्होंने यह शौचालय बनाना शुरू किया।
अब तक, SCOPE देश में एक लाख से भी ज्यादा शौचालय बना चुका है। बिहार, आंध्र-प्रदेश, उत्तर-प्रदेश, राजस्थान और असम जैसे शहरों में उन्होंने बड़े प्रोजेक्ट्स किए हैं।
क्या है SCOPE के शौचालयों की खासियत:
72 वर्षीय सुब्बारमण कहते हैं कि इकोसन शौचालय पहाड़ी इलाकों के लिए बहुत अच्छा विकल्प हैं। इन इलाकों में सेप्टिक टैंक बनाना बहुत ही चुनौतीपूर्ण है। “जिन इलाकों में पानी की कमी है, वहां भी ये शौचालय अच्छे से काम करते हैं क्योंकि इनमें पानी की ज़रूरत नहीं है,” उन्होंने आगे कहा।
इस शौचालय की पूरी यूनिट में दो पैन हैं और हर किसी में एक कैविटी है- एक मल के लिए और दूसरा पेशाब के लिए। पैन में हाथ धोने के लिए भी जगह होती है। ये दोनों कैविटी नीचे अलग-अलग गड्ढों से जुड़ी होती हैं। शौचालय को ज़मीन के ऊपर बनाया जाता है और यूनिट्स को कचरा इकट्ठा करने वाले गड्ढे से जोड़ा जाता है।
शौचालय का बेस कंक्रीट बनाया जाता है ताकि यह भूजल के सम्पर्क में न आए। मल और पेशाब को शौचालय से जुड़े पाइप के माध्यम से अलग-अलग गड्ढों में इकट्ठा कर लिया जाता है। बाद में इन्हें यूरिया और खाद बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
मल के लिए कैविटी के इस्तेमाल के बाद उस पर राख डाली जाती है।
“मुसिरी में आपको चटाई बनाने के लिए प्रयोग की जाने वाली घास आराम से मिल जाएगी। इस घास को जलाकर, इसकी राख को मल इकट्ठा करने वाली कैविटी पर डाला जाता है। इस राख में एंटीबैक्टीरियल गुण होते हैं और यह नमी सोख लेती है जिससे कि खाद जल्दी बनती है,” उन्होंने कहा।
वह आगे कहते हैं कि इस इलाके में नमी ज्यादा है और इस वजह से वे 6 से 12 महीने के बाद ही कैविटी को खोलते हैं। उन्हें खाद तैयार मिलती है। हर साल, हर एक शौचालय लगभग 400 किग्रा खाद तैयार करता है, जबकि सामुदायिक शौचालय 1,177 किग्रा खाद तैयार करता है। इस खाद को मुफ्त में किसानों को उपयोग के लिए दिया जाता है।
मुसिरी के बहुत से किसान कहते हैं कि पहले वे हर साल खाद और यूरिया पर लगभग 20 हज़ार रुपये खर्च करते थे। लेकन अब उनका खर्च बहुत कम हो गया है।
एक शौचालय की कीमत 30 हज़ार रुपये है और सामुदायिक शौचालय की इससे ज्यादा।
सुब्बारमण कहते हैं, “जब हमने शुरू किया था तब सामुदायिक शौचालय की कीमत 8 लाख रुपये थी। फिलहाल, हम 15 लाख रुपये लेते हैं क्योंकि निर्माण सामग्री की कीमतें बढ़ गयी हैं। यह कीमत और ज्यादा हो सकती है। यह निर्भर करता है शौचालयों के नंबर पर और उनके स्ट्रक्चर के साइज़ पर।”
इन सभी शौचालयों को अलग-अलग ग्रामीण विकास प्रोजेक्टस में दूसरे एनजीओ, संगठन और सीएसआर प्रोजेक्ट्स के साथ मिलकर लगाया गया है।
संस्थापक के बारे में:
सुब्बारमण ने 1975 में तिरुचिरापल्ली के पेरियार ई.वी.आर कॉलेज से रसायन विज्ञान में बीएससी की डिग्री हासिल की। इससे अगले वर्ष उन्होंने तुमकुर में सिद्धार्थ कॉलेज ऑफ एजुकेशन से बी.एड की। साल 1976 में उन्होंने गुंटूर में एक एनजीओ, विलेज रिकंस्ट्रक्शन ऑर्गेनाइजेशन के साथ काम शुरू किया। यह संगठन ग्रामीण इलाकों में कम लागत के घर बनाता है।
वह बताते हैं कि उन्हें इस संगठन के संस्थापक ने ग्रामीण इलाकों के लिए काम करने की प्रेरणा दी। उन्होंने 10 साल तक यहाँ काम किया और फिर 1986 में अपना संगठन शुरू किया।
SCOPE ने शुरू में सभी तरह की गतिविधियाँ कीं। उन्होंने गाँव के लोगों की कृषि के अतिरिक्त बुनाई, सिलाई और पशुपालन के ज़रिए भी आय कमाने में मदद की। कृषि उत्पादन की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए उन्होंने एक विदेशी संगठन, एक्शन फॉर फ़ूड प्रोडक्शन के साथ काम किया।
सैनिटेशन के क्षेत्र में उनका काम तिरुचिरापल्ली के अलग-अलग गाँवों में लीच पिट टॉयलेट के निर्माण के साथ शुरू हुआ। ये शौचालय भी बिना पानी के इस्तेमाल होते थे। इसमें ज़मीन में एक गोल गड्ढा खोद दिया जाता था। इन्हें खुले में शौच के गलत प्रभावों को रोकने के लिए बनाया गया।
चेन्नई की एक सैनिटेशन वर्कशॉप में उन्होंने इकोसन शौचालय के बारे में सुना और वह बेल्जियम के एक इंजीनियर, पॉल कैल्वर्ट से मिले।
वह आगे बताते हैं, “पॉल उस समय तिरुवंतपुरम में रहकर वहां की मछुआरा समुदाय के बारे में पढ़ रहे थे। वर्कशॉप में उन्होंने इकोसन शौचालय के फायदों पर बात की और इस तरह से मुझे 2000 में इकोसन के बारे में पता चला।”
उन्होंने इन शौचालयों को बनाना शुरू किया और आखिरकार, कलिपलायम गाँव में पहला शौचालय बना।
चुनौतियाँ और योजनाएँ:
भले ही SCOPE का काम बहुत ही उम्दा और अच्छा है, पर उन्होंने अपनी राह में बहुत सी चुनौतियों का सामना किया है।
“लोग शौचालय इस्तेमाल ही नहीं करना चाहते थे, ये मुफ्त थे। लोग कहते थे कि खुले में शौच करना ज्यादा आरामदायक है। वे खुले में शौच से होने वाली गंभीर स्वास्थ्य और पर्यावरण संबंधी परेशानियों के बारे में विश्वास करने को ही तैयार नहीं थे,” सुब्बारमण ने कहा।
इस चुनौती को पार करने के लिए, SCOPE ने शौचालय इस्तेमाल करने वालों को पैसे देना शुरू किया। हर एक दिन, जब कोई शौचालय इस्तेमाल करता और उसे एक रुपया दिया जाता।
ये सब 4 साल तक चला और फिर उन्होंने देखा कि शौचालय आने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। उन्होंने चार सालों में लगभग 48000 रुपये खर्च किए। उनके इस प्रोजेक्ट को नीदरलैंड के एक एनजीओ, वेस्ट ने स्पॉंसर किया।
उन्होंने गाँवों में जागरूकता अभियान भी चलाए, जिससे कि गाँव के लोग खुद शौचालय इस्तेमाल करने आएं।
इस तरह की चुनौतियों के बावजूद SCOPE ने यूनिसेफ जैसे संगठनों के साथ कई राज्यों में काम किया है। “यूनिसेफ हमारे साथ ग्रामीण विकास के प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहा था। उन्हें पता चला कि हम सैनिटेशन के क्षेत्र में भी काम कर रहे हैं, उन्होंने हमारे साथ असम, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में काम किया,” उन्होंने आगे कहा।
2018 की बाढ़ के बाद उन्होंने केरल में 100 इकोसन शौचालय बनाए हैं। सिर्फ यूनिसेफ के साथ उन्होंने अब तक 28 हज़ार शौचालयों का निर्माण किया है!
आगे बात करते हुए वह कहते हैं कि हमारे देश में मल का सही ढंग से डिस्पोजल होना बहुत ज़रूरी है। जब लोगों को अपने सेप्टिक टैंक को साफ़ करना होता है तो वे इसका किसी खुले स्थान पर या फिर किसी पानी के स्त्रोत में डिस्पोज करते हैं। इससे न सिर्फ पर्यावरण पर बल्कि हम इंसानों पर भी बहुत गलत प्रभाव पड़ता है।
वह जल प्रबंधन प्रशासन से आशा करते हैं कि वो देशभर में मल के निपटान के लिए ट्रीटमेंट प्लांट्स बनाए। इससे पर्यावरण की हानि भी नहीं होगी और पानी भी प्रदूषित नहीं होगा।
अंत में वह बस यही कहते हैं, “मेरा उद्देश्य अपने देश को 100% खुले में शौच मुक्त बनाने में योगदान देना है!
संपादन- अर्चना गुप्ता
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