सड़क किनारे अकेले बैठे किसी बूढ़े इंसान से क्या कभी आपने पूछा है कि उनका परिवार कहाँ है; या उनका नाम क्या है? ऐसे लोगों को खाना खिलाकर या थोड़े पैसे देकर ही हम खुश हो जाते हैं। लेकिन क्या कभी ऐसा ख़्याल आता है कि इन लोगों का भी अपना घर-परिवार हो सकता है; ये लोग भी एक सामान्य जीवन के हक़दार हैं? इन्हें ज़्यादातर लोग मानसिक रूप से बीमार समझकर सोसाइटी का हिस्सा नहीं बनाते। लेकिन समाज में इन लोगों को भी बेहतर जीवन मिले, उन्हें भी अपने परिवार के साथ रहने का सुख मिले, इसके लिए माघरपुर, यमुनानगर (हरियाणा) का एक परिवार पिछले चार सालों से काम कर रहा है।
33 वर्षीय सरदार जसकीरत सिंह अपने दादा सरदार जोगिन्दर सिंह, माता-पता बलविंदर कौर और सरदार जितेन्दर सिंह के साथ मिलकर ‘नि आसरे दा आसरा’ नाम की एक संस्था चला रहे हैं। उनका छोटा भाई भी इसमें उनका साथ देता है।
उत्तर प्रदेश के 60 वर्षीय रोहित पिछले 28 सालों से अपने परिवार से दूर देश भर में घूम-घूमकर जीवन बिता रहे थे। सालों पहले वह होम गार्ड के तौर पर काम करते थे लेकिन कुछ कारणों से उन्होंने घर छोड़ दिया था। उनके परिवारवालों ने तो उन्हें मरा हुआ ही समझ लिया था। वहीं रोहित ने भी परिवार से मिलने की उम्मीद छोड़ दी थी।
लेकिन पिछले साल जब रोहित यमुनानगर में ‘नि आसरे दा आसरा’ में आए तब यहां उन्हें एक सम्मान भरा जीवन तो मिला ही, साथ ही इसी संस्था के ज़रिए वह एक बार फिर से अपने परिवार से मिल भी पाए हैं।
ऐसे एक या दो नहीं बल्कि 173 लोगों को फिर से अपने परिवार से मिलाने का काम कर चुकी है हरियाणा की यह ‘नि आसरे दा आसरा’ संस्था।
सालों से करते आ रहे लोगों की सेवा
जसकीरत के पिता गांव में अपनी 15 एकड़ ज़मीन में खेती करते हैं। जसकीरत ने चंडीगढ़ से कम्प्यूटर साइंस की पढ़ाई की है, जिसके बाद आईटी सेक्टर में काम कर रहे हैं।
क्योंकि उनका काम घर पर रहकर भी हो सकता था, इसलिए उन्होंने साल 2018 से ही वर्क फ्रॉम होम करना शुरू किया। वह कई कंपनियों को आईटी की सुविधा देने का काम करते हैं।
जसकीरत और उनका परिवार अक्सर लंगर के ज़रिए भूखे लोगों को खाना खिलाया करते थे। वह बताते हैं, “हम पहले शनिवार-रविवार के दिन लोगों को खाना खिलाने जाया करते थे। मेरे माता-पिता हमेशा से लोगों की सेवा कर रहे हैं। हम पहले बस इसी बात से खुश भी थे कि हम किसी का पेट भरने का काम कर रहे हैं।”
वह इस तरह अलग-अलग जगहों में जाकर सड़क पर रहते लोगों को भर पेट खाना खिलाते थे। इसी दौरान उन्हें महसूस हुआ कि इन लोगों को सिर्फ़ खाना नहीं, एक आसरे और अपनेपन की भी ज़रूरत है।
एक दयनीय घटना के बारे में बात करते हुए जसकीरत बताते हैं कि एक बार वह अंबाला में अपना लंगर लेकर गए थे। वहां सड़क पर बैठे एक इंसान ने उनसे रोटी मांगी। जसकीरत ने जब उसे अपना हाथ आगे करने को कहा तब पता चला कि उसके दोनों हाथ नहीं हैं। फिर उन्होंने खुद उस आदमी को रोटी खिलाई। लेकिन जब उन्होंने सड़क पर रहते उस इंसान से पूछा कि कल कैसे खाना खाओगे? तो जवाब में उसने कहा- “जिसने आज खाना दिया है वही कल खाना देगा।”
जसकीरत कहते हैं, “उस दिन मुझे लगा कि ऐसे कई इंसानों को हमारी मदद की ज़रूरत है। इन्हें भरोसा है कि जिसने आज खाना दिया वही कल भी देगा और मैं यह भरोसा तोड़ना नहीं चाहता था। तभी मुझे एक शेल्टर होम बनाने का ख़्याल आया।”
घर के एक कमरे से शुरू हुआ शेल्टर होम
शेल्टर होम बनाना उनके लिए काफ़ी चुनौती वाला काम था। शुरुआत में तो जसकीरत के माता-पिता को लग रहा था कि यह एक बड़ी ज़िम्मेदारी वाला काम है जिसे एक मिडिल क्लास परिवार कैसे कर पाएगा? लेकिन जसकीरत का मानना था कि जिसने यह रास्ता दिखाया है, वही मंज़िल तक भी ले जाएगा। वह कहते हैं, “मेरे मन में यह ख़्याल काफ़ी समय से घूम रहा था। लेकिन साल 2017 में मुझे हमारे गांव के ही एक आदमी के बारे में पता चला, जिसके दोनों पैर नहीं थे। मैं उसे अपने घर लेकर आ गया और एक कमरे में उसे रहने के लिए जगह दी और उसका ध्यान रखने लगा।”
इसके बाद एक अंधा आदमी उनके पास मदद के लिए आया; और फिर एक के बाद एक लोग उनके पास आने लगे। जसकीरत ने अपने पुराने फार्महाउस का रेनोवेशन कराया और वहां इन लोगों को रखना शुरू किया।
शुरुआत में तो जसकीरत और उनका परिवार अपने ख़र्च से ही इन लोगों की देखभाल करते थे। लेकिन ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपनी मदद पहुंचाने के लिए उन्होंने 2018 में एक ट्रस्ट रजिस्टर करवाया; ताकि और लोग भी इस काम में योगदान दे सकें।
173 बेसहारा लोगों को परिवार से मिलाया
उन्होंने जब अपनी ट्रस्ट रजिस्टर करवाई थी तब उनके पास सिर्फ़ पांच लोग ही थे। लेकिन जैसे-जैसे लोगों को उनके काम का पता चला, आस-पास के शहरों से भी मुश्किल में फंसे लोगों को रेस्क्यू करने के फ़ोन आने लगे।
कहीं कोई बीमारी की हालत में सड़क पर पड़ा है या कोई शारीरिक और मानसिक रूप से दिव्यांग है, ऐसे लोग उनके पास आने लगे। जानकारी मिलने पर उनकी खुद की टीम लोगों की मदद के लिए पहुँच जाती है।
जसकीरत बताते हैं, “सड़क पर रहते ज़्यादातर लोग जिन्हें हम पागल मान लेते हैं; वैसे लोग दरअसल पागल नहीं लेकिन किसी न किसी मानसिक तनाव के शिकार होते हैं। ये सभी अपने घर की किसी समस्या की वजह से डिप्रेशन में आकर घर छोड़ देते हैं। और पैसों और आसरे के आभाव में यहां-वहां भटकते रहते हैं।”
ऐसे लोगों को अपना मानकर जसकीरत और उनका परिवार अपने पास रखते हैं। समय के साथ जब ये लोग ठीक मानसिक स्थिति में आ जाते हैं, तब उनके परिवार वालों से सम्पर्क किया जाता है और इस तरह कई लोग फिर से अपने परिवार से मिल पाते हैं। जसकीरत इस काम में सोशल मीडिया और पुलिस की मदद भी लेते हैं।
फ़िलहाल उनके घर में 106 लोग रहते हैं। जिससे हर महीने उनका लगभग पांच लाख का ख़र्चा होता है। जसकीरत बताते हैं, “हम कभी भी पैसे जोड़ने की गणित में पड़े ही नहीं हैं। फण्ड आता है तो भी ठीक, न आए तो हम अपने खेत में उगे अनाज से इनका पेट भर सकते हैं।”
जसकीरत की सोच और उनके पूरे परिवार का निःस्वार्थ सेवा भाव सही मायने में क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। आप जसकीरत और ‘नि आसरे दा आसरा’ के बारे में ज़्यादा जानने के लिए यहां क्लिक कर सकते हैं।
संपादन – भावना श्रीवास्तव
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