‘भालो पहाड़' यानी एक अच्छा पहाड़, नाम सुनकर ही हमारे ज़हन में कई सवाल आते हैं। क्या हो सकता है यह? क्या यह किसी अनोखे पहाड़ की कहानी है? या कोई फिल्म या टीवी शो है?
अपने नाम की तरह ही ‘भालो पहाड़' पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के बांदवान इलाके में स्थित एक अनोखी जगह है।
इसे एक शख़्स से अपनी अलग सोच, रचनात्मकता और कड़ी मेहनत से बनाया है। यह तकरीबन 50 एकड़ ज़मीन पर बसे एक छोटे से गांव की तरह है। जिसे 1996 में जमशेदपुर (झारखण्ड) से आए एक इंजीनियर ने बनाना शुरू किया था। बनाने का मतलब यह नहीं कि उन्होंने यहाँ बड़ी-बड़ी इमारतें बनाई हों, बल्कि भालो पहाड़ के संस्थापक कमल चक्रवर्ती ने यहाँ एक जंगल बनाया है।
यहाँ की 50 एकड़ ज़मीन में उन्होंने क़रीब 30 लाख पेड़ उगाए हैं। इसके ज़रिए वह पूरी दुनिया को जंगल संरक्षण का एक बेहद सुंदर संदेश दे रहे हैं।
इसके अलावा, वह आस-पास के 10 से भी ज़्यादा गाँवों में रहते स्थानीय आदिवासियों के लिए किसी मसीहा से कम नहीं हैं। क्योंकि कमल दादा (प्यार से लोग उन्हें दादा ही बुलाते हैं) भालो पहाड़ नाम से यहाँ एक हेल्थ केयर सेंटर और स्कूल भी चला रहे हैं।
पर्यावरण प्रेमी कमल चक्रवर्ती एक इंजीनियर होने के साथ-साथ बंगाली भाषा के मशहूर लेखक भी हैं।
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द बेटर इंडिया से बात करते हुए वह कहते हैं, “मेरा पूरा बचपन पहाड़ों और जंगलों को देखते हुए बीता है। जमशेदपुर में हमारे घर से 12000 करोड़ साल पुराना दलमा पहाड़ दिखता था। जो शायद हिमालय से भी ज़्यादा पुराना है। इन पहाड़ों से ही मुझे लिखने की प्रेरणा मिली और भालो पहाड़ बनाने का प्रोत्साहन भी मुझे इन्हीं पहाड़ों ने दिया था।"
दरअसल, 1996 में कमल ने अपने दोस्तों के साथ यह जगह, कहानियां और उपन्यास लिखने के लिए खरीदी थी। उन्होंने अपने लेखक मित्रों के साथ मिलकर भालो पहाड़ सोसाइटी बनाई। तब शायद उन्हें अंदाज़ा भी नहीं था कि एक दिन भालो पहाड़ सोसाइटी लेखन के साथ-साथ समाज के कई दूसरे हिस्सों से भी जुड़ जाएगी।
मन से जंगल कभी नहीं निकला
कमल जमशेदपुर (झारखण्ड) में पले-बढ़ें हैं। उनके पिता टेल्को (टाटा मोटर्स) में काम करते थे। कमल लिखने के शौक़ीन थे, लेकिन पिता चाहते थे कि उनका बेटा भी इंजीनियर बनकर टेल्को में नौकरी करे। तो कमल ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और 1968 में टेल्को में नौकरी भी करने लगे। इस दौरान भी वह लेखन से दूर नहीं थे। छुट्टी के दिन किसी शांत और प्राकृतिक जगह पर बैठकर वह कविताएं लिखते थे।
वह बताते हैं, “कई बार मैं अपने दोस्तों के साथ या अकेले भी दलमा के पहाड़ों में घूमने जाया करता था। पहाड़ के नीचे जंगल में घूमना मुझे बेहद पसंद था। मैं इन पेड़ों को अपना साथी समझता था। लेकिन समय के साथ-साथ जंगल कम होने लगे थे। मुझे लगता था कि मेरे ये साथी मुझे मदद के लिए बुला रहे हैं, फिर भी मैं कुछ नहीं कर पा रहा था।"
जंगल काटकर सड़के, इमारते और कारखाने बनने लगे। कमल अपनी कलम से जंगल संरक्षण के बारे में लोगों को जागरूक करने की कोशिश करते रहते थे। नौकरी में रहते हुए, उनके लेख कलकत्ता की तकरीबन हर मैगज़ीन और न्यूज़ पेपर में रेगुलरली छपते थे। इसी वजह से उनका एक अच्छा-ख़ासा लेखकों का ग्रुप भी बन गया था।
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उन्होंने बताया कि अब तक उन्होंने पांच हजार बंगाली कविताएं, दो हजार शार्ट स्टोरीज़ सहित ढेरों नॉवेल और नाटक भी लिखे हैं। कमल ने ‘कौरव' नाम से बंगाली कविताओं की एक मैगज़ीन भी निकाली थी। जो बंगाल में आज भी काफ़ी मशहूर है।
कविताएं लिखने के लिए बनाया ‘भालो पहाड़'
कमल शहरी जीवन से दूर किसी जंगल में रहकर कविताएं और कहानियां लिखना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अपने दोस्तों के साथ मिलकर जंगल के बीच एक ऐसी जगह ढूंढ़ना शुरू किया, जहाँ वह आराम से रह सकें और काम कर सकें।
वह बताते हैं कि बहुत खोजने के बाद उन्हें यह ज़मीन मिली। उस समय यह जगह काफ़ी सस्ती मिल रही थी। पथरीली होने की वजह से यहाँ खेती नहीं होती थी। कमल और उनके दोस्तों ने यह ज़मीन तो खरीद ली, लेकिन यहाँ पत्थरों में वह क्या करेंगे उन्हें इसका उन्हें कोई अंदाज़ा नहीं था। उस समय न यहाँ ज़्यादा पौधे लगे थे और न आस-पास कोई घर था।
जगह को हरियाली से भरने की उठाई ज़िम्मेदारी
कमल बताते हैं, “मैंने पांच किलोमीटर दूर के गाँव से बैलगाड़ी में पौधे और पानी लाकर, सितम्बर 1996 में यहाँ पहला पौधा लगाया था।"
नौकरी के साथ-साथ वह चार सालों तक यहाँ पौधे लगाने का काम करते रहे। उन्होंने यहाँ एक झोपड़ी और ट्यूबवेल बनाया ताकि पौधों को देने के लिए पानी की दिक्क़त न हो। वह कभी-कभी यहाँ रहने भी आते थे। समय के साथ उनके कई लेखक दोस्तों ने भी यहाँ आने लगे।
कमल ने साल 2000 में नौकरी छोड़कर हमेशा के लिए यहाँ रहना शुरू कर दिया।
भालो पहाड़ सोसाइटी के ज़रिए शुरू किया आदिवासियों की मदद का काम
कमल टूटे हुए पेड़ फिर से जोड़ तो नहीं सकते थे, लेकिन नए पेड़ तो लगा सकते थे। इसलिए उन्होंने फैसला किया कि इस 50 एकड़ की ज़मीन पर लाखों पौधे लगाएंगे। लेकिन यह काम इतना भी आसान नहीं था। उन्होंने इस पथरीली ज़मीन को उपजाऊ और हरा-भरा बनाने के लिए कुछ गायें भी खरीदी।
वह कहते हैं, “गाय के गोबर और गौमूत्र से यहाँ की लाल मिट्टी काली होने लगी। हमने देसी गाय के साथ देसी अनाज की खेती करना शुरू किया।"
समय के साथ पेड़ बढ़ते रहे और जंगल बनता गया। उन्होंने यहाँ कई तालाब भी बनवाए।
उनके काम को देखकर आस-पास के गाँववाले खेती और पशुपालन में कमल का हाथ बंटाने लगे। जिस तरह स्थानीय लोगों ने कमल की मदद करना शुरू किया, ठीक उसी तरह उन्होंने भी किसी न किसी तरह इन लोगों के काम आने का फैसला कर किया।
वह बताते हैं, “गांव के आदिवासी इलाके से स्कूल काफ़ी दूर था। बच्चों के पास आने-जाने का कोई साधन भी नहीं था। लोग इतने गरीब थे कि उनके लिए पेट भरना, शिक्षा से ज़्यादा ज़रुरी था। इसलिए मैंने इन बच्चों को खाना, कपड़े और शिक्षा साथ में देने के लिए एक स्कूल बनाया।"
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कमल ने भालो पहाड़ सोसाइटी से जुड़े लोगों की मदद से फंड इकट्ठा करना शुरू किया। आज भालो पहाड़ स्कूल में नौ टीचर्स काम कर रहे हैं और यहाँ 110 बच्चे पढ़ते हैं, जिन्हें मुफ़्त में शिक्षा दी जाती है।
जंगल के रक्षक हैं कमल
कमल के प्रयासों का ही नतीजा है कि आज उनसे 400 से ज़्यादा लोग जुड़ें हुए हैं। जिनसे उन्हें आर्थिक मदद भी मिलती है।
साल 2007 में उन्होंने यहाँ भालो पहाड़ हेल्थ केयर सेंटर भी बनाया। इससे पहले लोग 50 किलोमीटर दूर हॉस्पिटल जाया करते थे।
कमल ने तय कर लिया था कि भालो पहाड़ से जुड़े लोगों को वह सारी सुविधाएं यहीं देंगे। उन्होंने फिर यहाँ लड़कियों को रोज़गार से जोड़ने के लिए भी कई कोशिशें कीं।
भालो पहाड़ में अक्सर दूर-दूर से लोग कमल का बनाया जंगल देखने आते हैं। कई जानें-मानें लेखक, फिल्म डायरेक्टर और कलाकार सुकून के पल बिताने भी यहाँ आते हैं। आने वाले मेहमानों के लिए कमल ने यहाँ 10 कमरे भी बनवाए हैं।
यह ईको-टूरिज़्म भी भालो पहाड़ के लिए एक बढ़िया कमाई का ज़रिया बन गया है।
सालों के समर्पण और मेहनत के लिए मिला सम्मान
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50 एकड़ में फैले घने जंगल, जिसे बनाने में एक लेखक ने अपने जीवन के 26 साल समर्पित कर दिए।
इस बात के लिए साल 2017 में बंगाल सरकार ने उन्हें ‘बेस्ट मैन ऑफ़ एन्वॉयरमेन्ट' का अवार्ड दिया था। इसके साथ ही, 2012 में उन्हें बेहतरीन लेखन के लिए बंगाल के प्रतिष्ठित बंकिम पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।
कमल का मानना है कि यहाँ रहते लोगों के दिलों में उनके लिए जो प्यार है वही सही मायनों में उनका पुरस्कार है और उनके लगाए इन पेड़ों से मिलने वाली छाँव और हरियाली उनके लिए सच्ची खुशी।
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संपादन - भावना श्रीवास्तव
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