आज के समय में लोगों के मन से धैर्य और संवेदना जैसी भावनाओं की जगह अशांति और नकारात्मकता ने ले ली है। ऐसे में, द बेटर इंडिया की कोशिश है कि हम अपनी कहानियों के ज़रिये लोगों के मन में एक उम्मीद की लौ जलाएं। आपको हमारी वेबसाइट पर देश के हर एक कोने से ऐसी कहानियाँ मिल जाएंगी, जो कि इंसानियत, हौसले और अच्छाई पर आपका भरोसा एक बार फिर बना देंगी।
हमारी कहानियों के नायक-नायिकाएं कोई काल्पनिक पात्र नहीं हैं बल्कि असल ज़िन्दगी के आपके और हमारे जैसे लोग हैं। बस उनमें एक जज्बा है दूसरों के लिए कुछ करने का और यही जज्बा उन्हें हम सबसे ज्यादा ख़ास बनाता है। साथ ही, खास हैं वो लोग जो हमारी कहानियां पढ़ते हैं और फिर अपने आसपास के लोगों के साथ साझा करके एक बेहतर भारत के निर्माण में अपना योगदान दे रहे हैं।
अब जब साल 2019 अपने अंतिम पड़ाव पर है तो हम एक बार फिर आपके सामने उन कहानियों को रख रहे हैं, जिन्हें हमारे पाठकों ने सबसे ज्यादा पढ़ा है और सराहा है। हमें उम्मीद है कि आने वाले सालों में भी हमारे सभी पाठक हमसे यूँ ही जुड़े रहेंगे!
1. रिक्शाचालक से इनोवेशन तक का सफ़र:
हरियाणा के यमुनानगर जिले में दामला गाँव के रहने वाले धर्मबीर कम्बोज एक नामी-गिरामी किसान और आविष्कारक हैं। घर की आर्थिक तंगी को सम्भालने के लिए कभी दिल्ली की सड़कों पर रिक्शा चलाने वाले धर्मबीर ने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन उनकी अंतर्राष्ट्रीय पहचान होगी।
धर्मबीर ने एक मल्टी-फ़ूड प्रोसेसिंग मशीन का आविष्कार किया है। इस मशीन में आप किसी भी चीज़ जैसे कि एलोवेरा, गुलाब, आंवला, तुलसी, आम, अमरुद आदि को प्रोसेस कर सकते हैं। आपको अलग-अलग प्रोडक्ट बनाने के लिए अलग-अलग मशीन की ज़रूरत नहीं है। आप किसी भी चीज़ का जैल, ज्यूस, तेल, शैम्पू, अर्क आदि इस एक मशीन में ही बना सकते हैं।
धर्मबीर बताते हैं कि इस मशीन में 400 लीटर का ड्रम है जिसमें आप 1 घंटे में 200 लीटर एलोवेरा प्रोसेस कर सकते हैं। साथ ही इसी मशीन में आप कच्चे मटेरियल को गर्म भी कर सकते हैं। इस मशीन की एक ख़ासियत यह भी है कि इसे आसानी से कहीं भी लाया-ले जाया सकता है। यह मशीन सिंगल फेज मोटर पर चलती है और इसकी गति को नियंत्रित किया जा सकता है।
इस मशीन के लिए उन्हें नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन ने राष्ट्रीय सम्मान से नवाज़ा। इसके अलावा उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट का अवॉर्ड भी मिला है।
धर्मबीर ने अपनी प्रोडक्शन यूनिट अपने खेतों पर ही सेट-अप कर ली है और वे फार्म फ्रेश प्रोडक्ट बनाते हैं। इतना ही नहीं, उनकी यह मशीन देश के लगभग हर एक राज्य और विदेशों तक भी पहुँच चुकी है। कभी चंद पैसों के लिए रिक्शा चलाने को मजबूर इस किसान का आज करोड़ों रुपये का टर्नओवर है!
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2. पुरानी जींस से गरीब बच्चों के लिए बैग और चप्पल:
फैशन डिजाइनिंग में अपनी डिग्री पूरी कर अपने प्रोजेक्ट में लगी रहने वाली मृणालिनी राजपुरोहित ने अपने दोस्त, अतुल मेहता और निखिल गहलोत के साथ मिलकर ऐसा स्टार्टअप शुरू करने की सोची जो गरीब और जरूरतमंद बच्चों के लिए काम करेगा।
उन्होंने पुरानी जीन्स, डेनिम से बच्चों के लिए स्कूल सामग्री बनाने की सोची। सबसे पहले पुरानी डेनिम जींस से कुछ बैग, चप्पल, जूते और पेंसिल बॉक्स बनाए गए, जिन्हें सरकारी स्कूलों में बांटा गया।
अब उनके स्टार्टअप ‘सोलक्राफ्ट’ को शुरू हुए लगभग एक साल हो चूका है। डोनशन और अन्य माध्यमों से लगभग 1200 स्कूली बच्चों तक ‘सोलक्राफ्ट’ अपने उत्पाद पहुंचा चुका है।
‘सोलक्राफ्ट’ की टीम ने ज़रूरतमंद बच्चों तक अपने उत्पाद पहुंचाने के अलावा लोगों को रोज़गार देने का भी काम किया है। अभी 5 कारीगर सोलक्राफ्ट के साथ जुड़कर अपणी गृहस्थी की गाड़ी खींच रहे हैं और हर महीने 20 हज़ार रुपए तक कमा रहे हैं।
इस टीम ने स्कूल बैग, चप्पल, ज्योमैट्री बॉक्स को मिलाकर एक किट तैयार की है। यह सभी उत्पाद डेनिम फैब्रिक को अपसाइकिल करके बनाए गए हैं। इसके अलावा टीम सालभर के दौरान बांटे गए किट्स को जाकर देखती है कि उनके उत्पाद कितने उपयोग किए गए। यदि बैग, चप्पल या अन्य कोई उत्पाद फट गए हैं या कुछ और परेशानी है, तब भी कोशिश रहती है कि उन्हें बदल दे। फ़िलहाल इन दोस्तों की मुहिम जोधपुर और उसके आसपास के गांवों और सरकारी स्कूलों तक सीमित है लेकिन इन युवाओं का सपना है कि यह फैलती जाए।
आप सोलक्राफ्ट की किसी तरह से मदद करना चाहते हैं या उनसे संपर्क करना चाहते हैं तो यहाँ पर क्लिक करें!
3 . इको-फ्रेंडली और सस्टेनेबल घर:
पुणे के रहनेवाले ध्रुवंग हिंगमिरे और प्रियंका गुंजिकर, दोनों ही पेशे से आर्किटेक्ट हैं, पर ये दोनों किसी भी आम आर्किटेक्ट से ज़रा हटके हैं। ध्रुवंग और प्रियंका, सिर्फ घरों को डिजाईन ही नहीं करते बल्कि उन्हें खुद घरों बनाते भी हैं। वे ऐसे आर्किटेक्चर पर काम कर रहे हैं, जिसमें इमारतें बनाने के लिए प्राकृतिक सामग्री का इस्तेमाल होता है और इस काम के लिये स्थानीय मजदूरों को रोज़गार भी मिल जाता है।
तीन साल पहले उन्होंने ‘बिल्डिंग इन मड’ की शुरुआत की और तब से लेकर अब तक, उन्होंने अपनी अलग तकनीकों का इस्तेमाल करते हुए छह घरों का निर्माण किया है। साथ ही, और तीन प्रोजेक्ट्स पर काम चल रहा है।
वे घरों को उस इलाके के आस-पास की प्रकृति और जलवायु के हिसाब से बनाते हैं। कहीं पर उन्होंने ईंटों को जोड़ने के लिए, सीमेंट की जगह मिट्टी के गारे का इस्तेमाल किया है तो कहीं चूने के प्लास्टर का। गर्मी के मौसम में चूना गर्मी को रोकने में मदद करता है और सर्दियों में घर को गर्म रखने में मदद करता है। जहाँ एक तरफ चूना दिन में गर्मी को सोखता है, तो वहीं रात में इससे गर्मी बाहर निकलती है।
पत्थर और ईंटों के साथ चूना और मिट्टी के मिश्रण से बनीं इमारतों में हवा के आगमन-निकास की संभावना बनी रहती है।
लेकिन जब आप सीमेंट का उपयोग करते हैं, तो भवन की दीवारों से हवा का आर-पार होना असम्भव है और यही कारण है कि घर अक्सर बहुत अधिक गरम हो जाते हैं।
निर्माण में इस्तेमाल होने वाली लकड़ी को वे पॉलिश नहीं करते हैं, क्योंकि इससे घर बहुत सारे केमिकल्स/रसायनों के प्रभाव में आ जाता है। इसके अलावा पॉलिश करने से लकड़ी में बहुत से परिवर्तन होते हैं, जिन्हें फिर बदला नहीं जा सकता। इसलिए वे पॉलिश की बजाय, पारंपरिक तेल का इस्तेमाल करते हैं।
उनकी डिजाइन प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जितना संभव हो सके, वे घर को उतना ही देशी/स्थानीय बनाने का प्रयास करते हैं।
ध्रुवंग और प्रियंका के काम के बारे में अधिक जानने और उनसे सम्पर्क करने के लिए यहाँ पर क्लिक करें!
4. एसी के साथ कैसे करें बिजली की बचत:
भारत में गर्मियों के मौसम में एसी का इस्तेमाल खूब होता है। पहले यह सिर्फ शहरों तक सीमित था पर अब तो गांवों में भी इसने अपने पैर पसारना शुरू कर दिया है। जिस वजह से इससे निकलने वाली ग्रीनहॉउस गैस के बढ़ने से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा अनियंत्रित रूप से बढ़ता ही जा रहा है।
ऐसे में, एस. अशोक, ब्यूरो ऑफ़ एनर्जी एफिशिएंसी के एनर्जी ऑडिटर का मनना है कि अब सरकार को इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए।
ऊर्जा क्षेत्र में तीन दशकों से भी ज्यादा का अनुभव रखनेवाले अशोक का कहना है कि एयर कंडीशनर का उपयोग ग्लोबल वार्मिंग के लिए हम सब को जिम्मेदार बनाता है – इसमें एयर कंडीशनर का इस्तेमाल करनेवाले, निर्माता और सरकार शामिल है।
उन्होंने बताया कि एसी के दुष्प्रभाव उसे 18/16 डिग्री सेल्सियस तापमान पर रखने से शुरू होते हैं। हालाँकि वैज्ञानिक रूप से मानव शरीर के लिए 24 डिग्री तापमान ही सही है। इसलिए यह सिर्फ ज़्यादा बिजली की खपत का जरिया बनता है, जो असल में हानिकारक है।
इसी के चलते अशोक जैसे विशेषज्ञ बिजली की कम खपत और ग्रीनहाउस गैसों के कम उत्पादन के उद्देश्य से सरकार से अपील कर रहे हैं कि एसी का न्युनतम तापमान 24 डिग्री रखने का प्रस्ताव पारित किया जाये।
अशोक के तर्क और सुझावों को विस्तार से पढ़ने के लिए यहाँ पर क्लिक करें!
5. अफसरों का गाँव:
उत्तर-प्रदेश के जौनपुर जिले के माधोपट्टी गाँव का नाम किसी आम नागरिक ने सुना हो या नहीं लेकिन इस गाँव का नाम प्रशासनिक गलियारों में हर बार सुर्ख़ियों में रहता है। इसके पीछे एक ख़ास वजह है।
कहा जाता है कि इस गाँव में सिर्फ प्रशासनिक अधिकारी ही जन्म लेते हैं। पूरे जिले में इसे अफ़सरों वाला गाँव कहते हैं। इस गाँव में महज 75 घर हैं, लेकिन यहाँ के 47 आईएएस अधिकारी उत्तर प्रदेश समेत दूसरे राज्यों में सेवाएँ दे रहे हैं।
ख़बरों के मुताबिक, साल 1914 में गाँव के युवक मुस्तफा हुसैन (जाने-माने शायर वामिक़ जौनपुरी के पिता) पीसीएस में चयनित हुए थे। इसके बाद 1952 में इन्दू प्रकाश सिंह का आईएएस की 13वीं रैंक में चयन हुआ। इन्दू प्रकाश के चयन के बाद गाँव के युवाओं में आईएएस-पीसीएस के लिए जैसे होड़ मच गई।
अफ़सरों वाला गाँव कहने पर यहां के लोग ख़ुशी से फूले नहीं समाते हैं। माधोपट्टी के डॉ. सजल सिंह बताते हैं, “ब्रिटिश हुकूमत में मुर्तजा हुसैन के कमिश्नर बनने के बाद गाँव के युवाओं को प्रेरणास्त्रोत मिल गया। उन्होंने गाँव में जो शिक्षा की अलख जगाई, वह आज पूरे देश में नज़र आती है।”
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6 . ईमानदारी की मिसाल:
छत्तीसगढ़ के जगदलपुर शहर के निवासी ऑटो चालक महेश कश्यप रोज़ की तरह अपने काम पर निकले थे। एक दिन गाज़ियाबाद से अपने भाई के घर शादी समारोह में जगदलपुर आई एक महिला, महेश की ऑटो में बैठी थी। ऑटो से उतरते वक़्त वह अपना बैग ऑटो में ही भूल गई, उस बैग में 7 लाख रुपये के कीमती जेवर और रुपये रखे हुए थे।
महेश को जब इस बैग का अपने ऑटो में होने का अहसास हुआ तो उन्हें समझ नहीं आया कि वे कैसे इसके मालिक को ढूंढे। महेश ने सोचा कि क्यों न एक बार बैग में देखा जाये शायद कोई संपर्क या जानकरी मिल जाए, इसके बाद महेश ने बैग को पूरी तरह से खाली किया तो बैग में आधार कार्ड और एक मोबाइल नंबर मिला। मोबाइल नंबर मिलते ही महेश और उनकी पत्नी ने राहत की सांस ली और एक उम्मीद जग गई कि अब इस बैग के मालिक को ढूंढ़ने में आसानी होगी।
महेश ने उस नंबर पर कॉल करके पूरा माजरा बताया और कहा कि आपका बैग हमारे पास सुरक्षित है और आप इसे आकर ले लीजिये। इसके बाद सभी लोग पुलिस थाने में मिले और महेश ने अपनी ईमानदारी का परिचय देते हुए वह बैग मालिक के हाथों में सौप दिया।
महेश की ईमानदारी को देखते हुए समाज के लोगों ने भी उनको शॉल पहना कर और 5001 रुपये की सहयोग राशि देकर सम्मान किया। महेश मुस्कुराते हुए कहते है कि “भले ही मैंने अपने जीवन में लाखों नहीं कमाये और न ही इतना सोना पहले कभी देखा था लेकिन अपने ईमान को कभी डगमगाने नहीं दिया, आज जब शहर में निकलता हूँ, तो लोग मुस्कुराकर अभिवादन करते हैं, कहते है नियत हो तो महेश भाई जैसी- यह सुनकर लगता है, जीवन की यही असली कमाई है।”
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7 . प्लास्टिक-फ्री शहर की दिशा में एक कदम:
गुजरात में वडोदरा के छोटा उदेपुर जिले के वन विभाग ने एक नयी पहल शुरू की है। इस पहल का उद्देशय प्लास्टिक के इस्तेमाल को खत्म करना और शहर से इकठ्ठा होने वाले कचरे का प्रबंधन करना है।
दरअसल, अभी तक वन विभाग बीज से छोटे पौधे उगाने के लिए कम माइक्रोन वाली प्लास्टिक बैग इस्तेमाल करता था। लेकिन कुछ समय पहले से उन्होंने इसके लिए नारियल के खोल (शेल) का इस्तेमाल करना शुरू किया है। यह सुझाव छोटा उदेपुर के जिला अधिकारी सुजल मयात्रा ने दिया।
सुजल ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बताया, “नर्सरी भले ही हमारा काम नहीं है, लेकिन हमारे स्वच्छता अभियान के दौरान बहुत से नारियल के खोल इकट्ठे हुए थें। इससे मेरे दिमाग में यह ख्याल आया और मैंने यह सुझाव दिया। इससे पौधा लगाने के साथ-साथ कचरा प्रबंधन में भी आसानी होगी और हम अपने छोटा उदेपुर जिले को प्लास्टिक-फ्री बना पायेंगें।”
उनके इस कदम के बाद, देश के अन्य कई वन-विभागों ने भी इस पहल को अपनाया है। उम्मीद है कि आने वाले सालों में भी हम सभी इसी तरह पर्यावरण के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझेंगे। इस बारे में यहाँ पर विस्तार से पढ़ें!
8.’मानव कंप्यूटर’ शकुंतला देवी:
‘मानव कंप्यूटर’ और ‘मेंटल कैलकुलेटर’ जैसे उपनामों से मशहूर भारतीय गणितज्ञ शकुंतला देवी की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं हुई, पर फिर भी अपने ज्ञान से वे बड़े-बड़ों को चौंका देती थीं। गणित के सवालों को हल करने में वे सिर्फ़ 5 साल की उम्र में एक्सपर्ट बन गयीं और फिर छह साल की उम्र में, यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैसूर में उनका बड़ा शो हुआ।
साल 1980 में लंदन के इम्पीरियल कॉलेज में उन्होंने 13-13 अंकों की दो संख्याओं को बिल्कुल सही गुणा किया और मात्र 28 सेकंड्स में जवाब दे दिया। अचम्भे की बात यह थी कि इन 28 सेकंड्स के भीतर उन्होंने 26 अंकों की संख्या के इस परिणाम को बता भी दिया था।
पर गणित की इस विदुषी को एक और बड़ी वजह से याद किया जाता है और वह है समलैंगिकता के समर्थन में उनका संघर्ष। उन्होंने कोलकाता के एक आईएएस अफ़सर, परितोष बैनर्जी से शादी की। उनकी ज़िंदगी में सब कुछ ठीक चल रहा था, जब तक उन्हें अपने पति की सेक्शुयालिटी के बारे में पता नहीं चला था।
पर जब उन्हें पता चला तो उन्होंने न सिर्फ अपने पति का साथ दिया, बल्कि अपने स्तर पर समलैंगिक समुदाय के लोगों से बात करके, उनके बारे में जानना शुरू किया। सेम-सेक्स दंपत्तियों के बारे में, जो यहां रह रहे हैं या फिर बाहर, उनसे बात की, उनसे पूछा कि वे समाज से क्या चाहते हैं और उनके अनुभवों को लिखा।
अपनी रीसर्च और अपने साक्षात्कारों को उन्होंने अपनी किताब, ‘द वर्ल्ड ऑफ़ होमोसेक्शुअल्स‘ में लिखा है। शकुंतला देवी पर अब एक फिल्म भी आ रही है जिसमें उनका किरदार अभिनेत्री विद्या बालन निभाएंगी!
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9. जैविक किसान योगेश जोशी:
राजस्थान में जालोर जिले के रहने वाले योगेश जोशी जीरे की खेती करते हैं। ग्रेजुएशन के बाद ऑर्गेनिक फार्मिंग में डिप्लोमा करने वाले योगेश के घरवाले चाहते थे कि वे सरकारी नौकरी करें। पर योगेश जैविक खेती करने का मन बना चुके थे।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए योगेश ने बताया, “मैंने 2009 में खेतीबाड़ी की शुरुआत की। घर से मैं ही पहला व्यक्ति था, जिसने इस तरह का साहसिक लेकिन जोखिम भरा क़दम उठाया। मुझे यह कहते हुए बिल्कुल अफसोस नहीं होता कि खेती के पहले चरण में मेरे हाथ सिर्फ निराशा ही लगी थी।”
उस वक़्त जैविक खेती का इतना माहौल नहीं था, इसलिए शुरुआत में योगेश ने इस बात पर फोकस किया कि इस क्षेत्र में कौनसी उपज लगाई जाए जिससे ज्यादा मुनाफ़ा हो, बाज़ार मांग भी जिसकी ज्यादा रहती हो। उन्हें पता चला कि जीरे को नगदी फसल कहा जाता है और उपज भी बम्पर होती है, उन्होंने इसे ही उगाने का फैसला किया। 2 बीघा खेत में जीरे की जैविक खेती की, वे असफल हुए पर हिम्मत नहीं हारी।
उन्होंने बड़ी मुश्किल से गाँव के अन्य 7 किसानों को जैविक खेती करने के लिए प्रेरित किया और जोधपुर स्थित काजरी के कृषि वैज्ञानिक डॉ. अरुण के. शर्मा से उनकी जैविक खेती पर ट्रेनिंग करवाई। इन सभी किसानों को पहली बार में ही जैविक खेती में सफलता मिली।
7 किसानों के साथ हुई शुरुआत ने आज विशाल आकार ले लिया है। योगेश के साथ आज 3000 से ज्यादा किसान साथी जुड़े हुए हैं। 2009 में उनका टर्न ओवर 10 लाख रुपए था। उनकी फर्म ‛रैपिड ऑर्गेनिक प्रा.लि’ (और 2 अन्य सहयोगी कंपनियों) का सालाना टर्न ओवर आज 60 करोड़ से भी अधिक है। आज यह सभी किसान जैविक कृषि के प्रति समर्पित भाव से जुड़कर केमिकल फ्री खेती के लिए प्रयासरत हैं।
योगेश के नेतृत्व में यह सभी किसान अब ‛सुपर फ़ूड’ के क्षेत्र में भी कदम रख चुके हैं। योगेश चिया और किनोवा सीड को खेती से जोड़ रहे हैं, ताकि किसानों की आय दुगुनी हो सके। अब वे ऐसी खेती पर कार्य कर रहे हैं, जिसमें कम लागत से किसानों को अधिक मुनाफा, अधिक उपज हासिल हो।
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10 . प्लास्टिक से लड़ता एक परिवार:
प्लास्टिक एवं पॉलिथीन से होने वाले नुकसान को देखते हुए रायपुर के एक परिवार ने प्लास्टिक के खिलाफ जंग छेड़ी है। छत्तीसगढ़ के रायपुर में रहने वाले सुरेंद्र बैरागी और उनके परिवार ने शहर को प्लास्टिक मुक्त करने के लिए एक नेक पहल की शुरुआत की है। सुरेंद्र की पत्नी आशा पुराने कपड़े, चादर या फिर अनुपयोगी कपड़ों से थैला सिलने का कार्य करती हैं, वही सुरेंद्र अपने मित्रों और बच्चों के साथ इन थैलों को बाज़ार में बाँट देते हैं।
अपने परिवार के सदस्य और मित्रों के साथ वह हर शाम बाज़ार जाते हैं और कपड़े के थैले बांटते हैं। साथ ही लोगों से पॉलिथिन का उपयोग बंद करने के लिए निवेदन भी करते हैं।
इस नेक कार्य की शुरुआत उन्होंने 15 अगस्त 2019 से की थी। सुरेंद्र बताते हैं, “हम दोनों पति-पत्नी टीवी देख रहे थे, प्रधानमंत्री ने इस दौरान लोगों से अपील करते हुए कहा कि वह पॉलिथिन का इस्तेमाल न करें और दुकानदारों से भी ऐसा ही करने को कहा। प्रधानमंत्री ने कहा कि आपको कपड़े के थैले का इस्तेमाल करना चाहिए।”
प्रधानमंत्री की इस बात को सुनकर सुरेंद्र और उनकी पत्नी आशा ने निर्णय लिया कि वे अब शहर को प्लास्टिक मुक्त करने के लिए काम शुरू करेंगे। उसी दिन आशा ने 60 कपड़े के थैले बनाए और पास के सब्ज़ी बाज़ार में लोगों को बांट दिए।
उन्होंने थैले के साथ-साथ लोगों से हाथ जोड़कर अपील भी की, कि कृपा करके कपड़े से बना हुआ थैला उपयोग करे। इस दंपत्ति ने जब यह मुहिम शुरू की तब वे दोनों ही थे, लेकिन आज उनके साथ लगभग 30 लोग जुड़ गए हैं जो बिना किसी स्वार्थ के काम कर रहे हैं। सुरेंद्र एक सरिया बनाने वाली कम्पनी में काम करते हैं। उनको आस-पड़ोस, दोस्तों, रिश्तेदारों आदि से पुराने कपड़े मिल जाते हैं।
सुरेंद्र कहते हैं, “मुझे मालूम है कि मैं अकेले पूरे शहर को पॉलिथिन मुक्त नहीं कर सकता, लेकिन मैं अपने स्तर पर कुछ तो बेहतर करने का प्रयास कर ही सकता हूँ।”
सुरेंद्र बैरागी की पहल के बारे में अधिक पढ़ने के लिए और उनसे सम्पर्क करने के लिए यहाँ पर क्लिक करें!
ये सभी लोग और उनके कार्य, हम सभी लोगों के लिए प्रेरणात्मक हैं। आने वाले साल में भी हम इसी तरह और भी प्रेरणादायक कहानियां आप तक पहुंचाते रहेंगे। उम्मीद है कि आप सभी पाठकों का प्रेम भी इसी तरह बना रहेगा।
विवरण – निशा डागर
संपादन – मानबी कटोच