Women Freedom Fighters: धरने दिए, जेल गयीं, देश के लिए प्रताड़ना सहकर भी नहीं हटीं पीछे

Women Freedom Fighters

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास महिला स्वतंत्रता सेनानियों के जिक्र के बिना अधूरा है और खासकर वे महिलाएं, जिन्होंने न सिर्फ देश की आजादी, बल्कि महिलाओं के हक़ के लिए भी आवाज बुलंद की।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास महिला स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों के जिक्र के बिना अधूरा है। वे महिलाएं, जिन्होंने घर-परिवार और समाज की परवाह किए बिना अपनी जिंदगी देश और देशवासियों के लिए समर्पित कर दिया। जिन्होंने घर की चाहर-दीवारी से निकलकर न सिर्फ अपने हक़ की लड़ाई लड़ी, बल्कि अंग्रेजों की हुकूमत का भी जमकर विरोध किया। ऐसी महिला स्वतंत्रता सेनानियों (Women Freedom Fighters) की भागीदारी ने कई ऐतिहासिक आंदोलनों को सफल बनाया। 

आज देश को आजाद हुए 75 साल हो गए हैं। लेकिन फिर भी ऐसी कई महिला स्वतंत्रता सेनानी हैं, जिनके बारे में हम ज्यादा कुछ नहीं जानते हैं। इनमें कई नाम शामिल हैं जैसे मणिबेन पटेल, बसंतलता हजारिका, कमलादेवी चटोपाध्याय, डॉ. ऊषा मेहता, चन्द्रप्रभा सैकियानी, राजकुमारी, उमाबाई कुंडापुर, कल्पना दत्त, अन्नपूर्णा महाराणा, वनलता दास गुप्ता आदि।

विडंबना की बात यह है कि बहुत से लोगों ने, इनमें से कई नाम भी नहीं सुने होंगे। कई स्वतंत्रता सेनानियों की तो तस्वीरें तक उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए आज इस लेख में, हम आपको ऐसी पांच महिला स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में बता रहे हैं, जिन्होंने न सिर्फ देश की आजादी, बल्कि स्त्रियों के अधिकारों की भी लड़ाई लड़ी थी। आधुनिक समय की सभी बेटियां, महिलाएं इन स्वतंत्रता सेनानियों (Women Freedom Fighters) की ऋणी हैं, जिन्होंने खुद चुनौतियों का सामना करके हमारे लिए एक उज्ज्वल भविष्य का निर्माण किया। 

1. मणिबेन पटेल

Maniben Patel with her father Vallabh Bhai Patel
Maniben Patel with her father Vallabh Bhai Patel (Source)

सरदार वल्लभभाई पटेल की बेटी, मणिबेन पटेल भी अपने पिता की तरह देशभक्त थीं। अपने पिता और गांधी जी के आदर्शों पर चलते हुए, उन्होंने अपना पूरा जीवन देश की सेवा के लिए समर्पित कर दिया था। साल 1903 में तीन मार्च को जन्मी, मणिबेन ने गुजरात विद्यापीठ से अपनी पढ़ाई पूरी की। कहते हैं कि जब वल्लभभाई पटेल अपनी कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गए तो अपने बेटे और बेटी को बॉम्बे के क्वींस मैरी स्कूल में छोड़कर गए थे। 

मणिबेन अंग्रेजी में बात करती थीं। फ्रेंच भाषा उनके विषयों में शामिल थी। यह लगभग तय था कि स्कूल की पढ़ाई के बाद वह इंग्लैंड पढ़ने जाएंगी। लेकिन किस्मत को शायद कुछ और ही मंजूर था। क्योंकि जैसे-जैसे सरदार पटेल, गांधी जी के संपर्क में आए, उनकी जीवनशैली और रहन-सहन बिल्कुल बदल गया। उनके साथ-साथ उनकी बेटी, मणिबेन भी स्वदेसी के रंग में रंग गयी और इंग्लैंड की बजाय उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए गुजरात विद्यापीठ से अपनी पढ़ाई की। 

धीरे-धीरे मणिबेन खुद अपने पिता और गांधी की बनाई राह पर आगे बढ़कर देश सेवा में लग गयी। उनके मार्गदर्शन में उन्होंने नमक सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन में भाग लिया। इस दौरान कई बार जेल भी गयी लेकिन संघर्ष से पीछे नहीं हटी। देश की स्वतंत्रता के प्रति वह इतनी समर्पित थीं कि उन्होंने कभी शादी नहीं की। साल 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी उनकी गिरफ्तारी हुई। 1945 तक वह पुणे के येरवडा जेल में थी। 

बताते हैं कि मणिबेन अपनी पिता के लिए उनकी परछाई की तरह थीं। वह उनके हर दिन का हिसाब रखती थी कि कब उन्हें किससे मिलना है? इसके लिए मणिबेन ने एक डायरी बनाई हुई थी, जिसमें वह सरदार पटेल और उनकी दिनचर्या से जुडी बातें लिखती थीं। उनके पिता जिस भी सभा में जाते, वह साथ हुआ करती थीं। शायद इसलिए हर कोई कहता है कि वह एक महान बेटी भी थीं और देशभक्त भी।  

आजादी के बाद भी मणिबेन समाज सेवा के लिए कई सामाजिक संगठनों के साथ कार्यरत रहीं। मणिबेन हमेशा ही अपने पिता और गांधी जी की तरह सादा जीवन में विश्वास रखती थीं। साल 1990 में उनका देहांत हो गया।

2. बसंतलता हज़ारिका 

Women Freedom Fighters India
Representative Picture (Source)

बसंतलता हज़ारिका उन स्वतंत्रता सेनानियों में से एक हैं, जिनके बारे में आपको बहुत कम ही पढ़ने को और जानने को मिलेगा। बहुत ढूंढ़ने पर भी देश की इस महान बेटी की तस्वीर हमें नहीं मिल पाई। लेकिन कोई भी देश की आजादी के संघर्ष में, इनके योगदान को अनदेखा नहीं कर सकता है। असम की बसंतलता हज़ारिका ने अपनी साथी महिला, स्वर्णलता बरुआ और राजकुमारी मोहिनी गोहैन के साथ मिलकर, महिलाओं की एक विंग, ‘बहिनी’ की स्थापना की थी। उनकी यह नारी बहिनी जगह-जगह जाकर ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों के विरोध में मोर्चे निकालती थी।

शराब की दुकानों और अफीम उगाने के विरोध में इन महिलाओं के धरनों ने ब्रिटिश सरकार को परेशान कर दिया था। कहते हैं कि महिलाओं द्वारा धरने पर बैठने की वजह से ब्रिटिश अधिकारी परेशान हो गए थे। धीरे-धीरे कॉलेज के छात्र-छात्राएं भी महिलाओं के इन आंदोलनों से जुड़ने लगे थे। लेकिन अंग्रेजी शासन को यह रास नहीं आया और उन्होंने छात्रों को डराने के लिए कदम उठाया। कॉटन कॉलेज में सर्कुलर निकाला गया कि ‘बहिनी’ के आंदोलनों में भाग लेने वाले छात्रों को कॉलेज से निकाल दिया जाएगा। 

बसंतलता और उनकी साथियों ने इस सर्कुलर का विरोध करते हुए कॉलेज के बाहर धरना देना शुरू कर दिया। हर एक कोशिश के बाद भी जब महिलाओं के धरने नहीं रुके तो कॉलेज प्रशासन ने कुछ समय के लिए छात्रों की छुट्टियां कर दी। लेकिन इसके बावजूद महिलाओं का आंदोलन जारी रहा। 

बसंतलता के जैसे ही और भी कई महिला स्वतंत्रता सेनानी है, जिनकी कहानी सिर्फ अनसुनी ही नहीं बल्कि अनदेखी भी है।

3. डॉ. ऊषा मेहता 

Dr. Usha Mehta
Dr. Usha Mehta (Source)

साल 1920 में गुजरात के सूरत के पास सारस में जन्मी उषा मेहता पर बचपन से ही गांधी जी का प्रभाव रहा। गांधी जी के सभी आंदोलनों में वह बढ़-चढ़कर भाग लेती थीं और दूसरों को प्रेरित करती थीं। स्वतंत्रता संग्राम में सेनानियों की मदद करने के लिए उन्होंने अपनी शिक्षा को भी दांव पर लगा दिया था। इतिहासकारों के मुताबिक, ऊषा मेहता कॉलेज में थीं जब भारत छोड़ो आंदोलन के लिए गांधी जी ने सभी देशवासियों का आह्वान किया था। 

इसके जवाब में अंग्रेजों ने हजारों आंदोलनकारियों को जेल में डाल दिया। अपनी दमनकारी नीतियों से अंग्रेज इस आंदोलन को दबाने में लगे हुए थे। वहीं, दूसरी तरफ ऊषा मेहता ने अपने पिता से कहा कि उनकी शिक्षा इंतजार कर सकती है और घर से निकल गयी। इसके बाद लगबग 15 दिनों तक किसी को नहीं पता था कि ऊषा कहां है। अंग्रेजों के अत्याचारों से भारत छोड़ो आंदोलन की आवाज भी शांत होने लगी। और उस सन्नाटे में एक दिन रेडियो पर आवाज गुंजी, ‘ये कांग्रेस रेडियो की सेवा है, जो 42.34 मीटर पर भारत के किसी हिस्से से प्रसारित की जा रही है।’ 

यह आवाज ऊषा मेहता की थी, जिन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर कांग्रेस पार्टी के लिए एक ख़ुफ़िया रेडियो स्टेशन शुरू किया था। विट्ठलभाई झवेरी, चंद्रकांत झवेरी, बाबूभाई ठक्कर और ननका मोटवानी उनके साथ थे। ननका मोटवानी शिकागो रेडियो के मालिक थे, इन्होंने ही रेडियो ट्रांसमिशन का कामचलाऊ उपकरण और टेक्निशियन उपलब्ध करवाए थे। यह रेडियो ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ आज़ादी की आवाज़ बन गया था। जिस वक्त प्रेस की आवाज़ दबा दी गई थी, उस वक्त में रेडियो के ज़रिए ही देश के दूरदराज के इलाकों तक आज़ादी की अलख जलाई जा रही थी। 

हालांकि, कुछ समय बाद एक देशद्रोही साथी की वजह से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। अपने जीवन के चार साल उन्होंने कारावास में गुजारे लेकिन अंग्रेजों के सामने झुकी नहीं। रिहाई के बाद उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की। उन्होंने महात्मा गांधी के सामाजिक और राजनीतिक विचारों पर पीएचडी की। उन्होंने बॉम्बे यूनिवर्सिटी के विल्सन कॉलेज में 30 साल तक पढ़ाया। साल 1998 में उन्हें पद्म विभूषण दिया गया। 11 अगस्त 2000 को 80 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया से अलविदा कहा। 

4. कमलादेवी चट्टोपाध्याय 

Kamladevi chattopadhyay
Kamladevi Chattopadhyay (Source)

कमलादेवी चटोपाध्याय का जन्म 3 अप्रैल 1903 को कर्नाटक के मैंगलोर शहर में हुआ था। वह एक संपन्न ब्राह्मण परिवार से संबंध रखती थी। कमला देवी की शादी महज़ 14 साल की उम्र में हो गई थी लेकिन दो साल बाद ही उनके पति का निधन हो गया। लेकिन घर में बैठकर, अपने भाग्य को कोसने की बजाय कमला ने कुछ अलग करने की ठानी। उनकी माँ और नानी ने उनका हर कदम पर साथ दिया। पहले उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की और फिर स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गयी। 

बताया जाता है कि यह कमला ही थीं जिनके कहने पर गांधी जी ने नमक सत्याग्रह में महिलाओं की भागीदारी के लिए हामी भरी थी। कमला देवी ने भारी संख्या में महिलाओं को इकट्ठा कर गांधी जी के साथ मिलकर नमक कानून तोड़ा। हालांकि, कमला यहीं पर नहीं रुकी। उन्होंने बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज और बॉम्बे हाई कोर्ट के बाहर इस नमक की नीलामी की। पहली बार भारत में स्वदेशी नमक का पैकेट 501 रुपए में बिका। इसके बाद कमलादेवी का नाम चर्चा में आने लगा क्योंकि वह देश की आजादी के साथ-साथ महिलाओं के हक़ के लिए भी मुखर रहीं। 

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने कई साल जेल की यातनाएं भी सही। लेकिन अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटी। महिलाओं को राजनीति का रास्ता दिखाने का श्रेय भी कमलादेवी को जाता है। क्योंकि साल 1926 में उन्होंने मद्रास विधान सभा से चुनाव लड़ा और मात्र 55 वोट से हार गयी। लेकिन इसके साथ ही चुनाव लड़ने वाली वह पहली महिला थीं। इसके बाद राजनीति में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ गयी। इस चुनाव से कमलादेवी का राजनीतिक सफ़र शुरू हो चुका था जिसका लक्ष्य कभी भी पद नहीं था बल्कि बदलाव था। 

आजादी के बाद भी बिना कोई राजनीतिक पद लिए वह देश सेवा में लगी रहीं। कमला देवी को भारत के उच्च नागरिक सम्मान पद्म भूषण और पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। इसके अलावा कमलादेवी को रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। 29 अक्टूबर 1988 को 85 वर्ष की आयु में इनका निधन हो गया। 

5. चंद्रप्रभा सैकियानी 

Chandraprabha Saikiani
Chandraprabha Saikiani (Source)

चंद्रप्रभा सैकियानी का जन्म 16 मार्च 1901 को असम में कामरूप ज़िले के दोइसिंगारी गांव में हुआ। उनके पिता रतिराम मजुमदार गांव के मुखिया थे और उन्होंने अपनी बेटी की पढ़ाई पर काफ़ी ज़ोर दिया। चंद्रप्रभा बचपन से ही महिलाओं के अधिकारों के प्रति सजग रहीं। चंद्रप्रभा ने न केवल अपनी पढ़ाई की बल्कि अपने गांव में पढ़ने वाली लड़कियों पर भी ध्यान दिया। बताते हैं कि जब वह 13 साल की थीं तो उन्होंने अपने गांव की लड़कियों के लिए प्राइमरी स्कूल खोला। 

वहां इस 13 साल की शिक्षिका को देखकर स्कूल इंसपेक्टर प्रभावित हुए और उन्होंने चंद्रप्रभा सैकियानी को नौगांव मिशन स्कूल का वज़ीफ़ा दिलवाया। लड़कियों के साथ शिक्षा के स्तर पर हो रहे भेदभाव के ख़िलाफ़ भी उन्होंने अपनी आवाज़ को नौगांव मिशन स्कूल में ज़ोर शोर से रखा और वह ऐसा करने वाली पहली लड़की मानी जाती हैं। समय के साथ-साथ चंद्रप्रभा स्वतंत्रता सेनानियों के किस्सों से प्रभावित होने लगी। खासकर कि महात्मा गांधी की असम यात्रा ने उन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। 

उन्होंने न केवल लड़कियों की शिक्षा के लिए काम किया बल्कि उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाने और स्वतंत्रता आंदोलन को उन तक पहुंचाने के लिए राज्यभर में साइकिल से यात्रा की। इसके लिए उन्होंने ‘महिला मोर्चा’ गठन किया। वह लोगों को विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार करने की अपील करने लगीं। असम में उनके जागरूकता अभियान को बढ़ता देखकर अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार भी किया। लेकिन चंद्रप्रभा रुकी नहीं बल्कि आजादी तक उनका संघर्ष जारी रहा। 

साल 1972 में उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली। भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया है।

भारत की इन महान महिला स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को हम कभी भूल नहीं सकते हैं। संघर्षों का सामना करते हुए इन महिलाओं ने हर चुनौती पर विजय हासिल की। इनकी कहानी हमें प्रेरणा देती है। हम सभी हमेशा इनके ऋणी रहेंगे।

संपादन- जी एन झा

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