जब शिवाजी महाराज की सुरक्षा के लिए एक नाई ने दी अपने प्राणों की आहुति!

हमारे देश में हर साल 19 फरवरी को मराठा योद्धा छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती मनाई जाती है। शिवाजी महाराज का नाम इतिहास के पन्नों में अमर है। लेकिन उनके लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले कई ऐसे उनके साथी हैं, जिनके नाम आज कहीं धुंधला गये हैं। शिवा काशीद और बाजी प्रभु देशपांडे इन नामों में से एक हैं।

मारे देश में हर साल 19 फरवरी को मराठा योद्धा छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती मनाई जाती है। उनके स्वराज्य का दृष्टिकोण था कि राष्ट्र पर अपने लोगों का स्वशासन हो और वह भी बिना किसी बाहरी देश या राजनितिक प्रभाव के।

लेकिन शिवाजी के स्वराज्य का यह सपना, साल 1660 में ही दफन हो गया होता, जब इस मराठा योद्धा को पकड़ने के लिए जनरल सिद्धि जोहर ने पन्हालगढ़ की घेराबंदी की। पर एक साधारण से नाई, शिवा काशीद के बलिदान ने शिवाजी महाराज को बचा लिया।

महाराष्ट्र के कोल्हापुर से 20 किलोमीटर दूर पन्हाला में स्थित पन्हालगढ़ किला कुछ ऐतिहासिक लड़ाइयों का गवाह रहा है।

साल 1659 में शिवाजी ने बीजापुर के जनरल अफज़ल खान को हराया था और पन्हालगढ़ किले पर विजय प्राप्त की थी। इस हार का बदला लेने के लिए, साल 1660 में बीजापुर के आदिल शाह द्वितीय ने अपने चाचा सिद्दी जोहर को पन्हाला पर घेराबंदी करने और शिवाजी पर कब्जा करने के लिए भेजा। यह सेना और भी मजबूत हो गयी, जब अफज़ल खान के बेटे फज़ल खान ने अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए, उनका साथ देने का फैसला किया। 40,000 सैनिकों और तोपों से लैस, सिद्धि जोहर ने पन्हालगढ़ की घेराबंदी की।

शिवाजी और उनके सैनिक जानते थे कि वे संख्या में काफ़ी कम हैं और किले में फंसे हुए हैं। हालांकि, किले में पहले से मौजूद राशन के चलते वे पांच महीने बीता पाए, पर किले पर कब्ज़ा होने का डर लगातार बना हुआ था। बाहर खड़ी विशाल सेना ने अंदर जाने वाले सभी सामान की आपूर्ति बंद करवा दी। ऐसे में, राजा और प्रजा, दोनों के लिए जीवित रहना मुश्किल था। लेकिन शिवाजी ने हार नहीं मानी।

मराठा शासक ने झुकने या आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया और पन्हालगढ़ से विशालगढ़ जाने की योजना तैयार की। इस योजना में मुख्य विश्वासपात्र, उनके सेनापति बाजी प्रभु देशपांडे और उनके निजी नाई शिवा काशीद थे।

शिवा काशीद की प्रतिमा

शिवाजी जानते थे कि उन्हें बारिश का मौसम खत्म होने से पहले निकलना होगा। हालांकि, सिद्धि जोहर की सेना को कोई मुसलाधार बारिश भी नहीं रोक सकती थी, जो पूरी तैयारी से आई थी। पर इस मौसम में उन तक किसी भी गतिविधि की आवाज़ का पहुँचना मुश्किल था। अगर यह ज़ोरदार बारिश रुक जाती, तो भागना नामुमकिन था।

योजना का पहला चरण था कि सिद्धि जोहर को एक संदेश भेजकर बैठक के लिए बुलाया जाए। इसी बीच, शिवाजी की सेना के एक प्रमुख, बहिरजी नाइक ने किले के बाहर एक ऐसे रास्ते का मानचित्र बनाया, जिसके बारे में किसी को भी न पता हो।

बैठक के लिए एक खास दिन चुना गया और उनके पूर्वानुमान के अनुसार, उस रात काफ़ी ज़ोरदार बारिश हुई। हालांकि, सब कुछ शिवाजी के अनुसार जा रहा था, दुश्मन को बातों में उलझाकर उनका ध्यान भटकाया गया। उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा देर तक कहीं न कहीं उलझाए रखा।

पर जोहर के सैनिकों ने शिवाजी की योजना को भांप लिया और फिर, वहाँ लड़ाई शुरू हो गयी। इस लड़ाई में जोहर के सैनिक मराठा सैनिकों पर भारी पड़े और शिवाजी महाराज को पकड़ कर जोहर के समक्ष लाया गया।

पर सिद्धि जोहर और उनके सैनिकों में से किसी ने भी शिवाजी को पहले नहीं देखा था। ऐसे में, उन्होंने उस बंदी से गहरी तफ्तीश की। वहाँ सभी ने कहा कि वही बंदी शिवाजी महाराज हैं। पर फिर भी जोहर को संदेह था और उसका संदेह सच निकला।

उसे थोड़ी देर में ही सुचना मिली कि एक अलग पालकी में 500 सैनिकों के साथ शिवाजी विशालगढ़ की तरफ बढ़ रहे हैं। गुस्से से पागल, जोहर ने तुरंत अपनी सेना विशालगढ़ की ओर भेजी और उस बहरूपिया ‘शिवाजी’ का सिर कलम करने का आदेश दिया।

शिवाजी महाराज के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाला यह वीर और कोई नहीं, बल्कि उनका विश्वासपात्र नाई, शिवा काशीद था। उसका हुलिया शिवाजी महाराज से काफ़ी मिलता था। इसलिए, सेना नायक देशपांडे ने आपातकालीन स्थिति में काशीद को शिवाजी महाराज की जगह इस्तेमाल करने का सुझाव दिया।

पर अगर वह पकड़ा गया, तो जोहर उसे मरवा देगा, यह शिवाजी जानते थे और इसलिए, उन्होंने ऐसा कुछ करने से साफ मना कर दिया। लेकिन वे बहादुर नाई इस अभियान के लिए तुरंत राजी हो गया। उसे शिवाजी महाराज के जैसे पोशाक पहना कर उनके साथ गुप्त मार्ग से ले जाया गया।

और फिर वही हुआ, जिसका डर था। उनकी योजना खुल गयी और फिर, काशीद को शिवाजी महाराज की जगह छोड़ दिया गया। जब लड़ाई शुरू हुई, तो 300-400 सैनिकों के साथ बाजी प्रभु देशपांडे ने खुद मोर्चा सम्भाला और तब तक जोहर की सेना को रोके रखा, जब तक कि उन्हें सुचना न मिल गयी कि शिवाजी महाराज सुरक्षित विशालगढ पहुँच गये हैं। उन्हें भी इस युद्ध में वीरगति प्राप्त हुई।

बाजी प्रभु देशपांडे की प्रतिमा

जोहर का मंसूबा कामयाब नहीं हो पाया और साल 1673 में शिवाजी महाराज ने पन्हाला किले को पूर्ण तौर पर जीत लिया। शिवाजी के शासनकाल में इस किले में 15,000 घोड़ों और 20,000 सैनिकों को रखा गया था।

शिवा काशीद और बाजी प्रभु की एक विशाल प्रतिमा पन्हाला किले में बनवाई गयीं, ताकि ये प्रतिमाएं हर एक पीढ़ी को उनके गौरव की गाथा सुनाएँ। हालांकि, दुर्भाग्य की बात है कि शिवा काशीद का नाम इतिहास में कहीं धुंधला-सा गया है।
भारत के इस वीर सपूत को कोटि-कोटि नमन!

मूल लेख: जोविटा अरान्हा

(संपादन – मानबी कटोच)


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