मुझे कभी भी, अपने रिश्तेदारों के घर पर, उनसे मिलने जाने की कोई उत्सुकता नहीं रहती थी। हालांकि, साल में एक-दो बार, ख़ास मौकों पर हमें रिश्तेदारों के घर जाना ही पड़ता था। कुछ रिश्तेदार जबरदस्ती गले लगा लेते, तो कुछ जोर से गालों को खींचते, ये उनके प्यार दिखाने का तरीका था। मुझे आज भी इस तरह के मेल-मिलाप से डर लगता है। लेकिन, एक रिश्तेदार थीं, जिनके घर जाना मुझे बहुत पसंद था। वह रिश्तेदार थीं, मेरी एक आंटी जो हमारे आते ही, एक ट्रे में सबके लिए शरबत के गिलास ले आती थीं। उन गिलासों में लाल रंग का शरबत होता था, जिसे पीकर आत्मा बिल्कुल तृप्त हो जाती थी। जी हाँ! मैं बात कर रही हूँ ‘रूह अफ़ज़ा’ (Rooh Afza) की!
पानी में रूह अफ़ज़ा (Rooh Afza) की कुछ बुँदे डालो, एक-दो बार मिलाओ और बस, बन गया सुर्ख लाल रंग का ताज़गी से भरा, मीठा शरबत। कुछ इस तरह जुड़ा हुआ है, रूह अफ़ज़ा (Rooh Afza), मेरे बचपन की यादों से।
भारत में शायद ही कोई ऐसा घर हो, जहाँ रूह अफ़ज़ा (Rooh Afza) के शौक़ीन न रहते हों। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि यह शरबत दरअसल पाकिस्तान से आया है? तो, आइये जानते हैं कि इस पाकिस्तानी शरबत ने भारतीयों के दिल में इतनी ख़ास जगह कैसे बनायी।
आत्मा को तृप्त करने वाला अमृत
रूह अफ़ज़ा (Rooh Afza), जड़ी-बूटियों, फलों, फूलों, सब्जियों और पौधों की जड़ों से मिलकर बना एक शरबत है। खुर्फ़ा के बीज (purslane), पुदीना, अंगूर, गाजर, तरबूज, संतरे, खसखस, धनिया, पालक, कमल, दो प्रकार के लिली, केवड़ा जैसे प्रकृतिक तत्व और जामदनी गुलाब आपस में मिलकर एक लाल रंग का टॉनिक बनाते हैं। वर्षों से, इस टॉनिक ने एक शरबत के रूप में अच्छी-खासी लोकप्रियता हासिल की है।
एक पुराने अखबार के विज्ञापन में कहा गया था, “जब मोटर-कार का दौर शुरू और घोड़ा-गाड़ी का दौरा ख़त्म हो रहा था, तब भी रूह अफ़ज़ा था।”
1907 में एक यूनानी चिकित्सक, हकीम अब्दुल मजीद ने रूह अफ़ज़ा का आविष्कार किया था। पुरानी दिल्ली की गलियों में, हमदर्द (जिसका अर्थ है ‘करीबी साथी’ या ‘दर्द में साथ देने वाला’) नाम की एक छोटी सी दुकान में दवा के रूप में बनाया गया रूह अफ़ज़ा, आगे जाकर घर-घर में पसंद किया जाने वाला मशहूर नाम बन गया।
लाल रंग के इस सिरके-नुमा शरबत को, एक गिलास ठंडे दूध या सादे पानी में मिलाकर पीने से, शहर की चिलचिलाती गर्मी में तो क्या, रेगिस्तान की भीषण गर्मी में भी, ठंडक भरी ताज़गी आ जाती है।
रूह अफ़ज़ा को पहले शराब की बोतल में पैक किया जाता था। कलाकार मिर्जा नूर अहमद ने बोतल का लेबल डिज़ाइन किया था। इस लेबल के डिज़ाइन को बॉम्बे (मुंबई) के बोल्टन प्रेस में प्रिंट किया गया था। पूरे 40 साल तक सफलता की ऊंचाईयां छूने वाला और अफगानिस्तान तक की सैर करने वाला रूह अफ़ज़ा, आखिर विभाजन की मार से हारने लगा था।
अरुंधति रॉय ने 2017 में अपनी किताब, The Ministry of Utmost Happiness में लिखा था, “भारत और पाकिस्तान की नयी सीमा के बीच, नफरत ने लाखों लोगों की जानें ले ली। पड़ोसियों ने एक-दूसरे को ऐसे भुला दिया, जैसे वे एक-दूसरे को कभी जानते ही न थे, कभी एक-दूसरे की शादियों में शामिल नहीं हुए थे या कभी एक-दूसरे के गाने नहीं गाए थे। शहर की दीवारें टूट गयीं। पुराने परिवार (मुसलमान) भाग गये। नये (हिन्दू) लोग आ गये और शहर की दीवारों के चारों ओर बस गये। इससे रूह अफ़ज़ा को एक बड़ा झटका तो लगा, लेकिन जल्द ही वह संभल भी गया। पाकिस्तान में इसकी एक नयी शाखा खोली गयी। 25 साल बाद, पूर्वी पाकिस्तान के विभाजन के बाद, नये देश, बांग्लादेश में भी इसकी एक और शाखा खोली गयी।”
भारत–पाक में फिर शुरू हुआ हमदर्द
बंटवारे के दौरान, दोनों देशों के अलगाव की कहानियां आम हो गई थीं। अब्दुल मजीद का परिवार भी इससे अछूता नहीं था।
हालांकि, 1922 में अब्दुल मजीद के निधन के बाद, उनके 14 साल के बेटे अब्दुल हमीद ने बिज़नेस संभाल लिया और इसे नई ऊंचाइयों पर ले गए। लेकिन, विभाजन ने इस कंपनी को ही नहीं, बल्कि इस परिवार को भी गहरा झटका दिया था। हजारों परिवारों की तरह उनका परिवार भी बिखर गया। अब्दुल और उनके भाई सैद अलग हो गए।
सैद, अपने मैन्युफैक्चरिंग प्लांट और ऑफिस को बांग्लादेश में अपने कर्मचारियों के भरोसे छोड़कर, पाकिस्तान चले गए। वहां जाकर, उन्होंने फिर से नये सिरे से कंपनी शुरू की। हमदर्द, एक स्थानीय दवा निर्माता से रिफ्रेशमेंट कंपनी और फिर साल 1953 में ‘वक्फ’ (Waqf) नाम का एक राष्ट्रीय कल्याण संगठन बन गया। हाल में, रूह अफ़ज़ा को पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश में Hamdard (Waqf) Laboratories के नाम से बनाया जा रहा है।
रूह अफ़ज़ा ने कई युद्ध देखे हैं, तीन नये देशों का खूनी जन्म देखा है और विदेशी पेय कंपनियों के साथ-साथ अन्य घरेलू कंपनियों की चुनौतियों का भी सामना किया है।
फिर भी, सालों बाद भी, इस सुर्ख लाल रंग के मीठे टॉनिक की अच्छाई आज तक कायम है, क्योंकि इसे रमज़ान के महीने का साथी भी समझा जाता है।
सायका सुल्तान, रूह अफ़ज़ा से जुड़ी अपनी यादों के बारे में बात करते हुए कहती हैं, “यह एक परंपरा बन गई है। रमज़ान के दौरान, हमारे घर में दादी और माँ रूह अफ़ज़ा परोसना पसंद करती हैं। सिर्फ इसकी ताज़गी भरे स्वाद के लिए ही नहीं, बल्कि इसलिए भी कि यह एक नैचरल ड्रिंक है। सालों का भरोसा और बचपन की कई यादें, इस लाल रंग के रसीले शरबत के साथ जुड़ी हुई हैं, जो बहुत कीमती हैं।”
मूल लेख :- अनन्या बरुआ
संपादन – मानबी कटोच
यह भी पढ़ें: महामारी में खोया सबकुछ और फिर खड़ा किया दुनिया भर में मशहूर ब्रांड ‘चितले बंधु’
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें।
We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons: