‘क्विक सिल्वर’ आज़ाद: वह शख्स जिसने ब्रिटिश राज के छक्के छुड़ा दिए थे

Chandra Shekhar Azad

काकोरी घटना को अंजाम देने वाले सदस्यों में से केवल एक ही बचा रहा, एक ऐसा शख्स जिसे ब्रिटिश राज की पुलिस कभी पकड़ नहीं पाई और उस शख्स का नाम था, चंद्रशेखर आज़ाद। पढ़ें उनके लाजवाब जीवन और शानदार शहादत की कहानी।

“दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आज़ाद ही रहे हैं, आज़ाद ही रहेंगे।”- चंद्रशेखर आजाद

साल 1925 की बात है। 9 अगस्त को नंबर 8 डाउन ट्रेन, शाहजहांपुर से लखनऊ जा रही थी। काकोरी के पास आते ही सेकेंड क्लास कंपार्टमेंट में बैठे एक शख्स ने ट्रेन की चेन खींच दी और ट्रेन अचानक रुक गई। अशफाक उल्ला खान अपने दोस्त, सचिंद्र बख्शी और राजेंद्र लाहिड़ी के साथ उतरे।

उन्होंने काकोरी प्लॉट के पहले पार्ट को सफलतापूर्वक अंजाम दे दिया था। इसके बाद, तीनों नए स्थापित हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के अपने साथी क्रांतिकारियों से मिले, ताकि ट्रेन के गार्ड को ठिकाने लगाकर, ट्रेन में मौजूद नगद पर कब्जा किया जा सके। 

ट्रेन में हुई इस लूट की घटना ने पूरी अंग्रेजी हुकूमत को हिलाकर रख दिया। इस घटना के एक महीने के भीतर ही अंग्रेजी सरकार ने दर्जन भर से ज्यादा एचआरए सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद एक ऐसा मुकदमा चला, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखा गया।

गिरफ्तारी के बाद चले उस मुकदमे में चार क्रांतिकारियों को फांसी दी गई, चार को आजीवन कारावास के लिए अंडमान भेज दिया गया और 17 को लंबे समय तक जेल में रहने की सजा सुनाई गई। काकोरी घटना को अंजाम देने वाले सदस्यों में से केवल एक ही बचा रहा, एक ऐसा शख्स जिसे ब्रिटिश राज की पुलिस कभी पकड़ नहीं पाई और उस शख्स का नाम था, चंद्रशेखर आज़ाद।

आज हम एक महान स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद से जुड़ी कुछ रोचक कहानियां बता रहे हैं, जिनका नाम सुनते ही ब्रिटिश प्रशासन के पसीने छूट जाया करते थे।

चंद्रशेखर आजाद ने ऐसा क्या कहा, जिसे सुन दंग रह गए ब्रिटिश

Chandra Shekhar Azad
Chandra Shekhar Azad

पंडित सीताराम तिवारी और उनकी तीसरी पत्नी जागरानी देवी के घर 23 जुलाई, 1906 को जन्मे चंद्रशेखर का बचपन मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के भाबरा गांव में बीता। चंद्रशेखर के पिता अलीराजपुर के तत्कालीन एस्टेट में काम करते थे और माँ घर संभालती थीं।

चंद्रशेखर की माँ चाहती थीं कि वह संस्कृत के विद्वान बनें और इसलिए उन्होंने चंद्रशेखर को आगे की पढ़ाई के लिए वाराणसी के काशी विद्यापीठ भेज दिया। काशी आने के बाद ही उन्हें देश में चल रहे उथल-पुथल और भारत की आज़ादी के लिए चल रहे संघर्षों के बारे में पता चला। 

1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड का चंद्रशेखर पर काफी गंभीर प्रभाव पड़ा। उस समय उनकी उम्र 15 साल थी। वह महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। इनमें से एक विरोध प्रदर्शन के दौरान, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और जिला मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। जब जिलाधिकारी ने चंद्रशेखर से उनका नाम पूछा, तो चंद्रशेखर ने गर्व से अपना नाम ‘आज़ाद’ बताया। 

चंद्रशेखर के जवाब से आगबबूला हुए पुलिस अधिकारी ने फिर उनसे उनके पिता का नाम पूछा। इस पर चंद्रशेखर ने निःसंकोच भाव से उत्तर देते हुए कहा, “मेरा नाम आज़ाद है, पिता का नाम स्वतंत्रता है और जेल मेरा घर है।”

राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद को क्यों कहते थे ‘क्विक सिल्वर’?

The bullet holes at Jallianwala Bagh in Amritsar
The bullet holes at Jallianwala Bagh in Amritsar

चंद्रशेखर के जवाबों से क्रोधित होकर मजिस्ट्रेट ने उन्हें 15 कोड़ों की सज़ा सुनाई। लेकिन इस सज़ा से डरने के बजाय, उन्होंने बहादुरी से उसे स्वीकार किया और इस घटना के बाद से उनके नाम के साथ ‘आज़ाद’ शब्द हमेशा के लिए जुड़ गया।

1922 में असहयोग आंदोलन तो स्थगित हो गया। लेकिन इसके बाद निराश आजाद का झुकाव और अधिक आक्रामक व क्रांतिकारी विचारों की ओर बढ़ता गया। वह एचआरए के सक्रिय सदस्य बन गए और इसके संस्थापक राम प्रसाद बिस्मिल के संपर्क में आए।

दरअसल, चंद्रशेखर आज़ाद की चपलता, बेचैनी और नए विचारों के लिए हमेशा मौजूद उत्साह के सम्मान में बिस्मिल ने आज़ाद को ‘क्विक सिल्वर’ उपनाम दिया था। एक और दिलचस्प बात यह है कि आज़ाद भेष बदलने में उस्ताद थे और महत्वपूर्ण विवरणों का पता लगाने के लिए खुद ही अभियान चलाते थे।

उदाहरण के लिए, उन्हें एक बार अंग्रेजों से छुपकर कुछ महीनों के लिए झांसी को अपना ऑपरेशन ग्राउंड बनाने की ज़रूरत थी। इसके लिए उन्होंने सतर नदी के तट पर एक झोपड़ी बनाई और स्थानीय बच्चों को पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के नाम से पढ़ाना शुरू कर दिया!

अंग्रेज़ों के सामने समर्पण से चंद्रशेखर आजाद कर दिया था इनकार

Chandra Shekhar Azad’s pistol.
Chandra Shekhar Azad’s pistol.

चंद्रशेखर आज़ाद ने जल्द ही एचआरए के सबसे खतरनाक मिशनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी शुरू कर दी, जिसमें 1925 की काकोरी ट्रेन लूट और 1928 में लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए सहायक पुलिस अधीक्षक जॉन सॉन्डर्स की हत्या शामिल थी।

इन घटनाओं के बाद अंग्रेजों ने अपने तलाशी अभियान तेज़ कर दिए थे, फिर भी वे इस क्रांतिकारी को कभी पकड़ नहीं पाए। उसी वर्ष, आज़ाद ने भगवती चरण वोहरा, भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे क्रांतिकारियों की मदद से एचआरए को हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) में बदल दिया, जिसका मकसद समाजवादी सिद्धांतों के आधार पर स्वतंत्र भारत बनाना था।

लेकिन इस सबसे इतर, एक त्रासदी निकट आ रही थी, 1931 में पुलिस को एक मुखबिर ने आज़ाद और उसके दोस्त सुखदेव के बीच एक मुलाकात की सूचना दी थी। 27 फरवरी को पुलिस ने इलाहाबाद (नया नाम प्रयागराज) में विशाल अल्फ्रेड पार्क को 80 सिपाहियों की टुकड़ी के साथ घेर लिया और क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने के लिए आगे बढ़े।

लेकिन आज़ाद और उनके दोस्त ने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया और एक पेड़ के पीछे शरण लेते हुए गोलियां चला दीं।

अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहे ‘आज़ाद’

Chandra Shekhar Azad shotted himself dead with the last bullet in his Colt pistol
Chandra Shekhar Azad shotted himself dead with the last bullet in his Colt pistol

आज़ाद और उनके साथी ने अपने दो पिस्तौल से तीन दर्जन से भी ज्यादा राइफल वाली ब्रिटिश टुकड़ी को ज़ोरदार टक्कर दी। जब भी फायरिंग रुकती, पुलिस अंदर जाने का प्रयास करती और फिर गोलियों की बौछार से पीछे हट जाती। जल्द ही, दो पुलिसकर्मी मारे गए और कई अन्य घायल हो गए।

तब तक आज़ाद को भी दाहिनी जांघ में गोली लग चुकी थी। निडर, घायल क्रांतिकारी ने पुलिस को एक और भीषण गोलीबारी में उलझा दिया, जिससे उसके दोस्त को भागने में मदद मिली। यह जानते हुए कि वह बच नहीं सकते, उन्होंने खुद से की गई एक प्रतिज्ञा का सम्मान करने का फैसला किया और वह यह थी कि- पुलिस उन्हें कभी भी जिंदा नहीं पकड़ पाएगी।

अपनी प्रतिज्ञा को सच करते हुए, वह जब तक संभव हुआ पुलिस से मुकाबला करते रहे और उनके पास जब आखिरी गोली बची, तो उन्होंने अपनी पिस्तौल से खुद को गोली मार ली। उस समय वह केवल 24 वर्ष के थे।

जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है!

statue of Azad in Chandra Shekhar Azad Park
statue of Azad in Chandra Shekhar Azad Park

इस क्रांतिकारी के अविश्वसनीय बलिदान का सम्मान करने के लिए, पार्क का नाम बदलकर चंद्रशेखर आज़ाद पार्क कर दिया गया है। मस्कुलर, चौड़ी-छाती और मूंछों पर ताव देती हुई आजाद की एक मूर्ति भी उस पेड़ के पास स्थापित की गई है, जहां उन्होंने खुद को गोली मारी थी। आज वहां हर दिन सैकड़ों लोग आते हैं।

चंद्रशेखर आज़ाद की तरह ही अपने राष्ट्र के प्रति गहरे प्रेम और समर्पण को अपनाकर ही हम इस नायक को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं। जैसा कि चंद्रशेखर आज़ाद ने खुद कहा था, “अगर अभी तक आपका खून नहीं खौलता है, तो आपकी रगों में बहने वाला वह लाल रंग, खून नहीं पानी है। मातृभूमि की सेवा नहीं कर सकते, तो किस काम की आपकी जवानी है।”

मूल लेखः संचारी पाल

संपादनः अर्चना दुबे

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