आज के जमाने में बहुत से लोगों के लिए साइकिल विलासिता और फिटनेस का साधन है। लेकिन मेरी पीढ़ी के लोग, जो 80 और 90 के दशक में बड़े हुए हैं, उनका साइकिल से पुराना रिश्ता रहा है। वे अपने घरों में आज भी साइकिल का जिक्र, अपने माता-पिता की पुरानी यादों से जुड़ी बातों में सुनते हैं। उनके जमाने की कहानियां कि वे साइकिल (Cycle Trip) पर एक शहर से दूसरे शहर की यात्रा कैसे किया करते थे।
मैंने हमेशा अपनी माँ और उनके भाई-बहनों से उनके पिता की साइकिल की कहानियां सुनी हैं, जो उनकी बहुत-सी पुरानी तस्वीरों में, उनकी साथी के रूप में देखने को मिलती हैं। मेरी माँ की सभी बहनें दिल्ली में रहती हैं। अक्सर मैं अपने नानाजी, स्वर्गीय अतुल्य कुमार बनर्जी की यात्राओं की कहानियां, उनसे सुना करता हूँ। खासकर, उनकी एक अद्भुत साइकिल यात्रा (Cycle Trip) के बारे में, जो उन्होंने साल 1933 में कोलकाता से कश्मीर तक की थी।
मेरे मामा, अरबिंदो बनर्जी रिटायर्ड आईआरएस ऑफिसर हैं और उन्होंने मुझे इस बारे में बताया। मुझे और मेरे भाई को हमारे घर में मेरे स्वर्गीय माता-पिता की अलमारी से कुछ चिट्ठियां और तस्वीरें मिलीं, जिन्हें देखकर मेरी इस बारे में जिज्ञासा बढ़ गयी और तब मामाजी ने मुझे इनके बारे में बताया। मामाजी और सबसे छोटी मौसी ने, मुझे नानाजी और उन दोस्तों द्वारा अपनी साइकिल यात्रा (Cycle Trip) पर बनाई एक पत्रिका दिखाई, जिसका शीर्षक था, ‘स्पीडी स्टार्स।’
इस डायरी में उनकी यात्रा की शुरुआत की तस्वीरों से लेकर, उनके पूरे सफर को सूचीबद्ध किया हुआ है। उन्हें बहुत ही धूमधाम से यात्रा के लिए रवाना किया गया था। यह पत्रिका दिखने में किसी भी पारंपरिक नोटबुक की तरह है, जैसी नोटबुक आपने और हमने अपने स्कूल में इस्तेमाल की हैं। इस पर रंगीन कागज की जिल्द चढ़ाकर, इसे बड़े सुन्दर तरीके से रखा गया है।

मेरे मामा बताते हैं, “यह डायरी और कुछ अन्य चीजें, मुझे मेरे पिता के दोस्त और स्पीडी स्टार्स के रिपोर्टर, रोमानी मोहन मित्रा ने दी थीं। वह मेरे नानाजी के छात्र थे और इस वजह से पिताजी को जानते थे। वह काफी अच्छे दोस्त थे और मुझे लगता है कि शायद उन्हें पता था कि मुझे इतिहास और इस तरह की चीजों में दिलचस्पी है।”
बड़ी मुश्किल से पढ़े जाने वाले, अस्त-व्यस्त, फटे-पुराने खतों और कागज के टुकड़ों की तुलना में, यह डायरी मेरी अपनी पुरानी नोटबुक से ज्यादा नयी लगती है। यह डायरी शायद सिर्फ आधी भरी हुई है और इसमें तस्वीरें और अखबार के पूरे-पूरे लेख चिपकाएं हुए हैं। तस्वीरें बहुत ही पुरानी हो चुकी हैं और मेरे नानाजी और उनके साथी मुश्किल से पहचान में आ रहे हैं।
उनकी यात्रा 12 मार्च 1933 को दोल जात्रा (होली) वाले दिन शुरू हुई थी और 27 अप्रैल 1933 को पूरी हुई। दादू और उनकी टीम ने लगभग डेढ़ महीने में यात्रा पूरी की और इस दौरान वे ज्यादातर उन जगहों से गुजरे, जो आज पाकिस्तान मे हैं। मामा कहते हैं, “साइकिल से यात्रा करने वाले इन लोगों ने, यात्रा के लिए 250 रुपये इकट्ठा किए थे। मुझे लगता है, आज यह रकम लगभग ढाई लाख रुपये होती।” डायरी के मुताबिक, उन्होंने दूसरों से भी डोनेशन लिया था और तस्वीरें भी बेचीं थीं।
मेरे परिवार में से कोई भी मुझे, इस क्लब के बारे में नहीं बता पाया। लेकिन डायरी में चिपके अखबार के लेखों के मुताबिक, यह कोई फिटनेस क्लब जैसा था और वे शायद साइकिल चलाकार, कुछ रिकार्ड बनाने की भी कोशिश कर रहे थे। लेकिन वे ऐसा क्यों कर रहे थे?

मामा कहते हैं, ” एडवेंचर। सादा और सरल एडवेंचर । वह लेखक थे और एक रचनात्मक इंसान ही ऐसी चीजों में प्रवेश करता है।” मामा खुद भी एक लेखक हैं। उन्होंने कुछ साल पहले इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित यात्रा का विवरण प्राप्त करने की कोशिश की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
यात्रा में क्या–क्या देखा
तीन पन्नों में यात्रा की जानकारी दी गई है। स्पीडी स्टार्स के वे सदस्य जो यात्रा पर गए, जो आर्थिक योगदान उन्होंने किया, या जो फंड उन्होंने इकट्ठा किए और यह एडवेंचर कब और कहाँ से शुरू हुआ। उन्होंने यात्रा के दौरान आसनसोल, बगोदर, सासाराम, बनारस, इलाहाबाद (अब प्रयागराज), कॉनपोर (अब कानपुर), कन्नौज, ब्रिन्दाबन (अब वृन्दावन), दिल्ली, करनाल, मोगा, फ़िरोज़पुर और लाहौर जैसी जगहों को पार किया।
हालांकि टीम के सदस्यों के बारे में डायरी में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है। लेकिन, एक अखबार की कतरन में लिखित स्टार्स क्लब के सचिव श्री पी. मल्लिक के बयान के अनुसार, “क्लब को खेल भावना और खेल के प्रति रूचि रखने वाले युवाओं को प्रोत्साहन देने के इरादे से शुरू किया गया था।” मामा कहते हैं कि मल्लिक इस यात्रा पर नहीं जा सके थे। शायद डायरी में लिखावट उनकी ही है और जब दूसरे लोग यात्रा पर थे, तब उन्होंने इस डायरी में लिखना शुरू किया होगा।
दिल्ली में लाल किले के सामने की तस्वीर, ताज महल, सियालकोट का एक जंक्शन, डल झील और श्रीनगर में शंकराचार्य मंदिर जैसी कुछ जगहें, तस्वीरों से स्पष्ट हो रही हैं। पत्रिका में ऐसे भी कुछ अखबारों की कतरन हैं, जो अब अस्तित्व में नहीं हैं- लिबर्टी, एडवांस और अमृत बाजार पत्रिका।
लिबर्टी का एक लेख बहुत ही आकर्षक कैप्शन के साथ प्रकाशित हुआ था- ‘Four Bengalees’ Lure of Adventure’- इसमें इस समूह के फतेहपुर से कानपुर पहुँचने की खबर छपी थी।
“वे सभी खुशदिल मिज़ाज, अच्छे स्वास्थ्य और अच्छी मनोदशा में थे। उन्होंने पहाड़ों और जंगलों से होते हुए अपनी यात्रा के रोमांचक अनुभव को साझा किया…..सभी युवा 36 घंटों के लिए (बंगाली यूनियन पर) रुके थे और उनकी अच्छे से देखभाल की गयी। पिछले महीने की 29 तारीख को सुबह, लोगों के शोरगुल और प्रार्थनाओं के बीच, वे ख़ुशी से अपनी साइकिलों पर सवार होकर इटावा की तरफ चल दिए। यूनियन के सदस्य प्रार्थना करते हैं कि ये साहसी युवा स्वस्थ रहें और पूरे जोश के साथ अपनी यात्रा को सुरक्षित रूप से पूरा करें।”
यह डायरी स्क्रैपबुक जैसी है- वैसी ही, जैसे मैं क्रिकेट और फुटबॉल वर्ल्ड कप की डायरी बनाया करता था। मैं स्कूल में इसका रिकॉर्ड रखता था और तब मुझे मेरे नानाजी के डायरी रखने के बारे में नहीं पता था। यह स्पष्ट नहीं है कि स्पीडी स्टार्स कितने समय तक रहे (क्लब का एक पंजीकृत पता है), या वे खेल और शारीरिक फिटनेस को बढ़ाने में कितने सफल रहे।
साइकिल: मेरे नानाजी की भरोसेमंद साथी
मेरे नाना, अतुल्य कुमार बनर्जी, 10 जून 1910 को बर्दवान (बर्धमान) में पैदा हुए थे। रेलवे में नौकरी लगने के बाद वह, 1952 में पश्चिम बंगाल के उत्तरी 24 परगना में कांचरपाड़ा से नई दिल्ली चले गए। अपनी पत्नी और छह बच्चों के साथ (मेरी माँ उनकी दूसरी बच्ची थीं और तब आठ या नौ साल की थीं), दादू तिलक ब्रिज में रेलवे कॉलोनी में रहने लगे। हालाँकि, 1955 में उन्हें जारी हुए भारत-पाकिस्तान के पासपोर्ट पर, उनकी जन्मतिथि अलग है- 1 अगस्त 1911, उन्हें यह पासपोर्ट जारी किया गया क्योंकि, उन्हें नौकरी के सिलसिले में कई बार पाकिस्तान भी जाना पड़ा था।
उन्होंने ‘रिक्ता’ नामक एक बंगाली साहित्यिक पत्रिका का संपादन और प्रकाशन करने में भी हाथ आजमाया था। यह पत्रिका 1932-1935 तक चली थी। इस पेशे में उनसे पहले मेरे परनाना (माँ के नाना) थे। शायद उन्हें कभी इस पेशे में पहचान नहीं मिली। उनकी पांडुलिपियों (मैनुस्क्रिप्ट) और लेखन का एक संग्रह अप्रकाशित है। जिन्हें मेरे मामा और मौसियों द्वारा, बहुत प्यार से सहेजा गया है।
‘रिक्ता’ ने मुख्य रूप से साहित्य, राजनीति और उस समय के वर्तमान मामलों को कवर किया। ये मुख्य रूप से मूल प्रतियों की कॉपी है, जिन पर कवर नहीं है। इनमें से कुछ को मेरे मामा ने, कुछ समय पहले अरबिंदो आश्रम को दान कर दिया था। दादू अपने पेन नाम (उपनाम), श्री शेबोक का इस्तेमाल करते थे लेकिन, दिलचस्प बात यह है कि संपादक और प्रकाशक के रूप में उन्हें संपर्क करने की जानकारी का उल्लेख, पत्रिका के अंतिम पन्ने पर किया गया है। आप पत्रिका में कुछ मलहम, चाय और बोरोलीन जैसी जरूरी चीजों के विज्ञापन भी देख सकते हैं।
मेरे नानाजी की, उनकी प्यारी साइकिल के साथ कई तस्वीरें हैं, शादी के बाद भी, यह कई वर्षों तक उनकी वफादार साथी रही। मेरे मामा के मुताबिक, “उनके पास (यात्रा पर उनके साथ आए दोस्तों की तरह) बहुत ही साधारण साइकिल थी, ज्यादातर सेकंड हैंड, जो स्वदेशी विनिर्माण गतिविधि (indigenous manufacturing activities) शुरू होने से पहले उस समय उपलब्ध हुआ करतीं थीं। मुझे अभी याद नहीं कि उन्होंने हमसे कभी यात्रा के बारे में (या उस समय के आसपास शुरू हुई बंगाली पत्रिका पर) कुछ बताया था। लेकिन, अगर यह वही साइकिल थी, जिसे हमने देखा था और 1984 में उनकी मृत्यु से कुछ साल पहले चोरी हो गयी थी तो यह बहुत अच्छी साइकिल थी- यह ब्रिटिश हंबर साइकिल थी, जिसकी एक हैंडल पर हैंडग्रिप शुद्ध पीतल की थी। वह इसे लेकर बहुत संवेदनशील थे और अच्छे से इसका रखरखाव करते थे। मैंने भी इस साइकिल को खूब चलाया था और तुम्हारी माँ ने भी इसे चलाया था।”
उस साइकिल यात्रा (Cycle Trip) के बारे में एक और खास बात मेरे मामा ने बताई। उन्होंने कहा, “मेरे परनाना, बलाई देब शर्मा, अखबार के संपादक और क्रांतिकारी थे। वह कई बार जेल गए और काफी मजेदार तरीके से वह 1933 में मेरे दादा से बर्दवान में साइकिल यात्रा के पहले पड़ाव पर मिले। यहाँ तक कि वहीं पर नानाजी ने उनसे वादा किया था कि वे मेरी नानी से शादी करेंगे।” मामा ने यह कहानी अपनी माँ से सुनी थी।
मैं आम तौर पर विभाजन की कहानियों को देखता हूँ या जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था और बहुत से लोग युवाओं द्वारा किये गए रोमांच और खोज के बारे में बात नहीं करते थे, शायद इसलिए कि उस समय लोगों की प्राथमिकताएं अलग थीं।
ज्यादातर लेखों में, यात्रा के दौरान उनके पड़ावों (ज्यादातर बंगाली क्लबों पर) पर लोगों द्वारा मिली प्रतिक्रिया के बारे में लिखा गया था। मुझे यात्रा के प्रति ख़ास लगाव है, सिर्फ एक नयी जगह के अनुभव के लिए नहीं बल्कि वह सफर भी जो वहाँ तक लेकर जाता है। साइकिल के साथ दादू की तस्वीर से शिकारी शंभु वाला अहसास आता है, लेकिन इस तरह की चीजों को देखकर, मैं खुद का मनोरंजन करता हूँ। यह कोई संयोग नहीं है कि मैंने अपनी पहली मोटरसाइकिल यात्रा 2008 में लगभग उसी उम्र में की थी, जब मेरे दादा 1933 में यात्रा के लिए गए थे।
(टेक्स्ट: तन्मोय मुखर्जी, शब्द: अरबिंदो बनर्जी, तस्वीरें: तन्मोय मुखर्जी और नवधा मल्होत्रा। यह लेख पहले ‘The Museum of Material Memory’ में प्रकाशित हुआ है।)
संपादन- जी एन झा
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