स्कूल के दिनों में अपनी हिंदी किताबों में हम सबने ‘अज्ञेय’ की कविताएं पढ़ी ही होंगी, पर बहुत कम लोगों को पता होगा कि ‘अज्ञेय’ नाम से मशहूर इस कवि, और लेखक का वास्तविक नाम क्या है?
विद्वानों में अक्सर एक बात कही जाती है कि ‘जो उसको जानता है, उसके लिए वह अज्ञात है; जो उसको नहीं जानता उसके लिए वह ज्ञात है!’ शायद इसीलिए उन्होंने अपना उपनाम ‘अज्ञेय’ रखा, क्योंकि उस वक़्त जो उन्हें जानते थे, उनके लिए एक कवि के रूप में वे अज्ञात थे और जिन्होंने उन्हें व्यक्तिगत तौर पर कभी देखा भी नहीं, वे लोग उनकी कविताओं के ज़रिए उन्हें पहचान रहे थे। हिंदी साहित्य के इस ‘अज्ञेय’ का पूरा नाम था, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यानंद!
7 मार्च 1911 को उत्तर- प्रदेश में कुशीनगर के कस्या में जन्मे सच्चिदानंद के पिता संस्कृत के विद्वान थे और पुरातत्व विभाग में कार्यरत थे। इस वजह से सच्चिदानंद का बचपन भारत के विभिन्न शहरों में बीता। जिसके चलते उन्होंने हिंदी, इंग्लिश, फारसी, बांग्ला, तमिल और संस्कृत जैसी अलग- अलग भाषाएं सीखीं।
स्वतंत्रता संग्राम में भी सच्चिदानंद का महत्वपूर्ण योगदान रहा। वे एम.ए कर रहे थे, जब उन्होंने स्वतंत्रता संघर्ष में भाग लिया। शहीद भगत सिंह के प्रमुख साथियों में इनका भी नाम शामिल होता है। भगत सिंह को जेल से भगाने के लिए उन्होंने भरसक प्रयास किया और साल 1930 में गिरफ्तार हो गये। उन्होंने 4 साल कारावास में बिताये और फिर दो साल के लिए उन्हें नज़रबंद कर दिया गया। अपने कारावास के दौरान ही उन्होंने ‘शेखर: एक जीवनी’ की ट्राइलॉजी लिखी।
सज़ा काटने के बाद वे पत्र-पत्रिकाओं से जुड़ गये। साल 1936 में उन्होंने आगरा से पहले ‘सैनिक’ समाचार पत्र और फिर 1937 से लेकर1939 तक ‘विशाल भारत’ का सम्पादन किया। उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो में भी अपनी सेवाएँ दीं।
उन्होंने ‘प्रतीक’ पत्र का संपादन किया। ‘प्रतीक’ ने ही हिन्दी के आधुनिक साहित्य की नई धारणा के लेखकों, कवियों को एक नया सशक्त मंच दिया और साहित्यिक पत्रकारिता का नया इतिहास रचा। 1965 से 1968 तक वे साप्ताहिक ‘दिनमान’ के संपादक रहे। इसके अलावा उन्होंने ‘नवभारत टाइम्स’ अख़बार में भी काम किया।
हालांकि, इन सभी पत्र- पत्रिकाओं में सबसे ज़्यादा उन्हें ‘सप्तक’ के लिए जाना जाता है। साल 1943 में उन्होंने सात कवियों के वक्तव्य और कविताओं को लेकर एक लंबी भूमिका के साथ तार सप्तक का संपादन किया। उन्होंने आधुनिक हिन्दी कविता को एक नया मोड़ दिया, जिसे ‘प्रयोगशील कविता’ की संज्ञा दी गई। इसके बाद समय-समय पर उन्होंने दूसरा सप्तक, तीसरा सप्तक और चौथा सप्तक का संपादन भी किया।
कविता के अलावा, कहानी, उपन्यास, नाटक, यात्रा वृत्तांत, वैयक्तिक निबंध, वैचारिक निबंध, आत्मचिंतन, अनुवाद, समीक्षा, संपादन जैसी विधाओं पर भी उनकी लेखनी चलती रही। हालांकि, उन्हें उनकी यायावरी (यात्रा वृत्तांत) और कविताओं के लिए सर्वाधिक ख्याति मिली है।
उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं: कविता भग्नदूत (1933), चिंता (1942), इत्यलम (1946), हरी घास पर क्षण भर (1949), बावरा अहेरी (1954), आंगन के पार द्वार (1961), पूर्वा (1965), कितनी नावों में कितनी बार (1967), क्योंकि मैं उसे जानता हूँ (1969), सागर मुद्रा (1970), पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ (1973) आदि।
4 अप्रैल 1987 को दुनिया से विदा लेने वाले अज्ञेय को भारतीय पुरस्कार, अंतर्राष्ट्रीय ‘गोल्डन रीथ’ पुरस्कार आदि के अतिरिक्त साहित्य अकादमी पुरस्कार (1964) ज्ञानपीठ पुरस्कार (1978) से सम्मानित किया गया।
अज्ञेय के बारे में कहा जाता है कि वे बाकी कवि और लेखकों की तरह एक ही लीक पर चलने वाले साहित्यकार नहीं थे। उन्होंने साहित्य को अपने ही रंग में रंगा। उस ज़माने में, अक्सर साहित्यकारों की दशा दीन-हीन या फिर उदास और बेज़ार होती थी। पर अज्ञेय इस रिवायत को तोड़ने वालो में से थे। कहते हैं कि उनका चेहरा एक अलग ही तरह की लालिमा और कुलीनता लिए हुआ रहता था। इसके लिए बहुत बार उनकी निंदा होती, तो वहीं बहुत से लोग उनकी इस आभा से प्रेरणा लेते थे। उनका चेहरा दुःख से घिरा हुआ नहीं था।
उनकी कविताएं जितनी सरल और सहज हैं, उनका गद्य उतना ही असामाजिक। उनके उपन्यासों के पात्र विद्रोह करते नज़र आते हैं, तो उनकी कविताओं में आपको निश्छल भोलापन दिखेगा। इस तरह से अज्ञेय के दो रूप हैं, एक लेखक और दूसरा कवि!
ये दोनों ही रूप कभी- कभी एक दूसरे के विरोधी लगते हैं, पर ये दोनों ही सही और सच्चे हैं। तो आज द बेटर इंडिया के साथ जानिए अज्ञेय का ‘काव्य रूप’ और पढ़िए उनकी कुछ बेहतरीन कविताएं!
‘जो पुल बनाएँगे’ कविता
जो पुल बनाएँगे
वे अनिवार्यतः
पीछे रह जाएँगे।
सेनाएँ हो जाएँगी पार
मारे जाएँगे रावण
जयी होंगे राम;
जो निर्माता रहे
इतिहास में बन्दर कहलाएँगे।
‘यह दीप अकेला’ कविता
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति को दे दो
यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो
यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
इस को भी शक्ति को दे दो
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता पर
इस को भी पंक्ति दे दो!
‘एक आटोग्रॉफ़’ कविता
अल्ला रे अल्ला
होता न मनुष्य मैं, होता करमकल्ला।
रूखे कर्म-जीवन से उलझा न पल्ला।
चाहता न नाम कुछ, माँगता न दाम कुछ,
करता न काम कुछ, बैठता निठल्ला-
अल्ला रे अल्ला!
इलाहाबाद, 30 जुलाई, 1946
‘सागर के किनारे’ कविता
सागर के किनारे
तनिक ठहरूँ, चाँद उग आये, तभी जाऊँगा वहाँ नीचे
कसमसाते रुद्ध सागर के किनारे। चाँद उग आये।
न उस की बुझी फीकी चाँदनी में दिखें शायद
वे दहकते लाल गुच्छ बुरूँस के जो
तुम हो। न शायद चेत हो, मैं नहीं हूँ वह डगर गीली दूब से मेदुर,
मोड़ पर जिस के नदी का कूल है, जल है,
मोड़ के भीतर-घिरे हों बाँह में ज्यों-गुच्छ लाल बुरूँस के उत्फुल्ल।
न आये याद, मैं हूँ किसी बीते साल के सीले कलेंडर की
एक बस तारीख, जो हर साल आती है।
एक बस तारीख-अंकों में लिखी ही जो न जावे
जिसे केवल चन्द्रमा का चिह्न ही बस करे सूचित-
बंक-आधा-शून्य; उलटा बंक-काला वृत्त,
यथा पूनो-तीज-तेरस-सप्तमी,
निर्जला एकादशी-या अमावस्या।
अँधेरे में ज्वार ललकेगा-
व्यथा जागेगी। न जाने दीख क्या जाए जिसे आलोक फीका
सोख लेता है। तनिक ठहरूँ। कसमसाते रुद्ध सागर के किनारे
तभी जाऊँ वहाँ नीचे-चाँद उग आये।
बांदरा (बम्बई), 9 अगस्त, 1947
‘कवि, हुआ क्या फिर’ कविता
कवि, हुआ क्या फिर
तुम्हारे हृदय को यदि लग गयी है ठेस?
चिड़ी-दिल को जमा लो मूठ पर (‘ऐहे, सितम, सैयाद!’)
न जाने किस झरे गुल की सिसकती याद में बुलबुल तड़पती है-
न पूछो, दोस्त! हम भी रो रहे हैं लिये टूटा दिल!
(‘मियाँ, बुलबुल लड़ाओगे?’)
तुम्हारी भावनाएँ जग उठी हैं!
बिछ चली पनचादरें ये एक चुल्लू आँसुओं की-डूब मर, बरसात!
सुनो कवि! भावनाएँ नहीं हैं सोता, भावनाएँ खाद हैं केवल!
जरा उन को दबा रक्खो-
जरा-सा और पकने दो, ताने और तचने दो
अँधेरी तहों की पुट में पिघलने और पचने दो;
रिसने और रचने दो-
कि उन का सार बन कर चेतना की धरा को कुछ उर्वरा कर दे;
भावनाएँ तभी फलती हैं कि उन से लोक के कल्याण का अंकुर कहीं फूटे।
कवि, हृदय को लग गयी है ठेस? धरा में हल चलेगा!
मगर तुम तो गरेबाँ टोह कर देखो
कि क्या वह लोक के कल्याण का भी बीज तुम में है?
इलाहाबाद, 9 सितम्बर, 1949
‘एक सन्नाटा बुनता हूँ’ कविता
पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ।
उसी के लिए स्वर-तार चुनता हूँ।
ताना : ताना मज़बूत चाहिए : कहाँ से मिलेगा?
पर कोई है जो उसे बदल देगा,
जो उसे रसों में बोर कर रंजित करेगा, तभी तो वह खिलेगा।
मैं एक गाढ़े का तार उठाता हूँ :
मैं तो मरण से बँधा हूँ; पर किसी के-और इसी तार के सहारे
काल से पार पाता हूँ।
फिर बाना : पर रंग क्या मेरी पसन्द के हैं?
अभिप्राय भी क्या मेरे छन्द के हैं?
पाता हूँ कि मेरा मन ही तो गिर्री है, डोरा है;
इधर से उधर, उधर से इधर; हाथ मेरा काम करता है
नक्शा किसी और का उभरता है।
यों बुन जाता है जाल सन्नाटे का
और मुझ में कुछ है कि उस से घिर जाता हूँ।
सच मानिए, मैं नहीं है वह
क्यों कि मैं जब पहचानता हूँ तब
अपने को उस जाल के बाहर पाता हूँ।
फिर कुछ बँधता है जो मैं न हूँ पर मेरा है,
वही कल्पक है।
जिस का कहा भीतर कहीं सुनता हूँ :
‘तो तू क्या कवि है? क्यों और शब्द जोड़ना चाहता है?
कविता तो यह रखी है।’
हाँ तो। वही मेरी सखी है, मेरी सगी है।
जिस के लिए फिर
दूसरा सन्नाटा बुनता हूँ।
कविता साभार: कविता कोश
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