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राजस्थान में हरियाणा की सीमा को छूता हुआ जयपुर जिले का कोटपुतली तहसील जैविक खेती और फ़ूड प्रोसेसिंग प्लांट्स का हब है। छोटे-बड़े हज़ारों किसान यहाँ पर जैविक खेती कर रहे हैं और उनमें से बहुत से लोगों ने अपनी खुद की प्रोसेसिंग यूनिट्स लगाई हुई है।
इसका श्रेय जाता है यहाँ के कीरतपुरा गाँव के 71 वर्षीय जैविक किसान कैलाश चौधरी को। उन्हें न सिर्फ कोटपुतली में बल्कि पूरे राजस्थान में जैविक खेती और रूरल मार्केटिंग का आइकॉन माना जाता है। पर कैलाश चौधरी सिर्फ एक बात में विश्वास रखते हैं-
"लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती और कोशिश करने वालों की हार नहीं होती"
उनका अपना जीवन इन पंक्तियों के सार का जीवंत उदाहरण है। दसवीं कक्षा तक पढ़ाई करने के बाद हाथों में हल और फावड़ा उठा लिया ताकि खेती में पिता की मदद करके उनका बोझ कुछ कम किया जाए। द बेटर इंडिया से बात करते हुए कैलाश चौधरी ने बताया,
"हमारी घर की जमीन वैसे तो 60 बीघा थी। पर गाँव में ज्यादा जमीन असिंचित थी इसलिए मुश्किल से 7-8 बीघा पर खेती होती थी। फिर 70 के दशक में हमने सिंचाई के अलग-अलग प्रयोग किए, जैसे कि हमने रेहट (वाटर व्हील) लगाया और इससे सिंचाई शुरू की।"
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फिर धीरे-धीरे रेहट की जगह दो-तीन साल बाद डीजल पंप ने ले ली। इसके बाद ज़मीन की पैदावार बढ़ी क्योंकि पानी होने से सिंचित ज़मीन बढ़ने लगी थी। फिर जब 1977 में वह गाँव के मुखिया बने तो उन्होंने अपने यहाँ ज़मीन की चकबंदी करवा दी और गाँव के 25 ट्यूबवेल में बिजली के कनेक्शन लगवाए ।
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इससे उनके गाँव के खेतों में फसल की उपज में 10 गुणा इज़ाफ़ा हुआ। यह उनके गाँव के लिए सही मायनों में हरित क्रांति थी क्योंकि अब किसान गेहूं से लेकर सरसों तक, सभी कुछ उगा रहा था और उसे मंडी में बेच रहा था।
कैलाश आगे बताते हैं, "हम जयपुर की अनाज मंडी में अपना गेहूं लेकर जाते थे लेकिन तब भी समस्याएं कई थीं। वहां कई-कई दिनों बाद हमें उपज के पैसे मिलते। ऐसे में, हम मंडी के धक्के खाते रहते थे। मंडी में अपना समय काटने के लिए हम रेडियो सुनते, तो कभी अखबार पढ़ते।"
सीखा मार्केटिंग का गुर
एक दिन अखबार में उन्होंने एक छोटा-सा विज्ञापन देखा - गणेश ब्रांड गेहूं। कैलाश को जिज्ञासा हुई कि आखिर क्या खास है इस गेहूं में जो इसकी कीमत 6 रुपये प्रति किलो लिखी हुई है और हम अपनी उपज मंडी में 4 रुपये किलो में बेच रहे हैं। उस विज्ञापन में जगह का पता भी लिखा था, बस फिर क्या था कैलाश पहुँच गये वहां।
पूरा माजरा समझने के लिए उन्होंने उस व्यवसायी के यहाँ पल्लेदारी का काम भी ले लिया। उन्होंने आगे बताया कि वह आदमी मंडी से गेहूं खरीदकर, उसकी क्लीनिंग और ग्रेडिंग करके, उसे अच्छे से जूट की बोरियों में पैक करके उन पर स्टेंसिल लगाता था। इससे गेहूं में वैल्यू एडिशन हो जाता। इसके बाद, वह उस गेहूं को शहर की कॉलोनी और टाउनशिप में बेचता था।
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एक हफ्ते में कैलाश ने उसकी पूरी मार्केटिंग की प्रक्रिया समझ ली।
"मैंने सोचा कि ये सब काम तो हम किसान भी अपने यहाँ कर सकते हैं। इसलिए मैंने भी गेहूं साफ़ करके ग्रेडिंग करने की एक मशीन अपने यहाँ लगवा ली। बोरियों में पैक करके, हमने भी जयपुर शहर में बेचना शुरू किया।"- कैलाश
मार्केटिंग की इस तकनीक से कैलाश ने एक ही बार में बिचौलियों को हटा दिया। अब किसान खुद अपना माल ग्राहकों तक पहुंचा रहा था जिससे उन्हें ज्यादा मुनाफा मिला रहा था। बढ़ती मांग को देखकर, कैलाश ने गाँव के और भी किसानों को अपने साथ जोड़ लिया। अब उन्हें नगद पैसा मिला और वो भी डेढ़ गुना ज्यादा।
जैविक खेती की तरफ कदम
कैलाश चौधरी के इस मार्केटिंग स्टंट की सफलता ने न सिर्फ उनकी आमदनी बढ़ाई बल्कि गाँव और तहसील में उनकी साख भी अच्छी हो गयी थी। इसलिए जब कोटपुतली में साल 1995 में कृषि विज्ञान केंद्र खुला तो वहां के वैज्ञानिकों ने सीधा कैलाश से सम्पर्क किया।
उन्होंने कैलाश को जैविक खेती की तरफ बढ़ने की दिशा दी क्योंकि उन्हें पता था कि अगर यह किसान जैविक खेती में आ गया तो अन्य किसानों को जोड़ने का काम अपने आप ही हो जाएगा। कैलाश कहते हैं कि पहले हम एग्रो-वेस्ट जैसे, धान की भूसी या फिर पुआल आदि को जलाते थे लेकिन फिर केवीके से हमें उनकी खाद बनाकर खेतों में डालने का सुझाव मिला। उन्होंने कम्पोस्टिंग करवाना शुरू किया तो पराली जलाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। इसके बाद, उन्हें वर्मी-कम्पोस्ट के बारे में पता चला तो उन्होंने वो भी करना शुरू किया।
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"पहले तो हम जैविक के साथ कुछ रसायन भी डालते थे, क्योंकि एकदम से जैविक नहीं हुआ जा सकता है पर धीरे-धीरे हम पूरी तरह से जैविक खेती पर आ गए।" - कैलाश
कैलाश हमेशा से ही कुछ नया करने के लिए रिस्क लेने से कभी पीछे नहीं हटे। बल्कि अपनी फैसलों को सफलता तक ले जाने के लिए वह जी-जान से मेहनत करते थे। इसीलिए जब केंद्र के एक वैज्ञानिक ने उन्हें हॉर्टिकल्चर में हाथ आजमाने के लिए कहा तो उन्होंने तुरंत हामी भर दी।
शुरू की आंवले की खेती
"उस समय केवीके किसानों को आंवले के पौधों की दो यूनिट दे रहा था। एक यूनिट में 40 पौधे थे तो कुल 80 पौधें हमने अपने खेत में लगवा लिए। उनमें से 60 पौधे पेड़ बने। लगभग 2-3 साल बाद उनमें फल आए, लेकिन जब मेरा छोटा भाई उन्हें मंडी में बेचने गया तो कोई खरीददार ही नहीं मिला और उसे मायूस लौटना पड़ा।" उन्होंने बताया।
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लगभग 3 दिन तक उनके आंवले यूँ ही मंडी में पड़े रहे और उनमें फफूंद लग गयी। अपनी तीन-चार साल की मेहनत का उन्हें एक पैसा भी नहीं मिला। इस घटना ने उनके पूरे परिवार को काफी प्रभावित किया। कैलाश आगे कहते हैं, "गाँव में तो मजाक बना ही और साथ ही, मेरा भाई भी मुझसे अलग हो गया।"
कैलाश चौधरी ने हमेशा की तरह परिस्थितियों से लड़ने की ठानी। उन्होंने हार नहीं मानी और केवीके के वैज्ञानिकों से सलाह लेने पहुँच गए। वो कहते हैं न कि रास्ता मिल ही जाता है अगर आपमें लड़ने की हिम्मत है तो। कैलाश चौधरी को भी रास्ता मिला, जिसने न सिर्फ उनकी किस्मत बल्कि उनसे जुड़ने वाले लगभग 5000 किसानों की किस्मत को बदला है।
केवीके में एक वैज्ञानिक उत्तर-प्रदेश के प्रतापगढ़ से था और उन्होंने कैलाश को बताया कि आंवले को प्रोसेस किए बगैर बेचना थोड़ा मुश्किल है, लेकिन प्रोसेसिंग करके प्रोडक्ट्स बनाकर बेचें तो मुनाफा बहुत है। प्रतापगढ़ के बहुत से किसान आंवले की अच्छी प्रोसेसिंग करके अच्छा कमा रहे हैं।
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दूसरे ही दिन कैलाश ने प्रतापगढ़ के लिए अपनी यात्रा शुरू की। वहां पहुंचकर आंवले की प्रोसेसिंग, पैकेजिंग और मार्केटिंग सीखी। प्रतापगढ़ से वह न सिर्फ ज्ञान लेकर आए बल्कि अपने साथ वहां से एक साथी भी ले आए जो कि उन्हें शुरुआती स्तर पर प्रोसेसिंग यूनिट सेट-अप करने में मदद कर दे।
बस फिर क्या था, शुरू हो गयी उनकी अपनी आंवला प्रोसेसिंग यूनिट, जहां उन्होंने आंवले के लड्डू, कैंडी, मुरब्बा, जूस आदि बनाना शुरू किया। मार्केटिंग को लेकर वह अभी भी असमंजस में थे पर एक बार फिर किस्मत उन पर मेहरबान हुई। उन्हें जयपुर के पंत कृषि भवन में अपने प्रोडक्ट्स बेचने की अनुमति मिल गई। यहाँ पर उनके आर्गेनिक सर्टिफाइड प्रोडक्ट्स हाथों-हाथ बिके।
अख़बार और न्यूज़ चैनलों ने भी उन्हें अच्छी कवरेज दी। इससे इलाके में उन्हें 'रूरल मार्केटिंग गुरु' कहा जाने लगा।
बदली दूसरे किसानों की किस्मत भी
कैलाश चौधरी की सफलता की कहानी यहीं खत्म नहीं होती है। अपने परिवार के लिए एक सस्टेनेबल कृषि मॉडल तैयार करने के बाद, उन्होंने अन्य किसानों के लिए खुद को समर्पित किया। नेशनल हॉर्टिकल्चर मिशन ने उन्हें राजस्थान की राज्य समिति का प्रतिनिधि बनाया। उन्हें किसानों को जैविक खेती, हॉर्टिकल्चर और फ़ूड प्रोसेसिंग जैसी पहल से जोड़ने की ज़िम्मेदारी दी गई।
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वह आगे बताते हैं, "हमने शुरू में 5-5 गाँव करके काम शुरू किया। हर एक गाँव से 10 किसानों को मिशन से जोड़ते और उनकी ट्रेनिंग करवाते। साल 2005 में हमने यह मिशन शुरू किया और तीन साल में लगभग 5000 किसानों को जैविक खेती, वैल्यू एडिशन, मार्केटिंग आदि की ट्रेनिंग दी। कई किसानों के यहाँ प्रोसेसिंग प्लांट शुरू करवाए। इससे उनकी आय बढ़ी और गाँव के लोगों के लिए रोज़गार के साधन भी बढ़े।"
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उन्होंने अपने प्रोसेसिंग प्लांट के ज़रिए एक जैविक कृषि महिला सहकारी समिति का गठन भी किया। इससे लगभग 45 महिलाओं को उनके प्रोसेसिंग प्लांट में रोज़गार मिला। इन महिलाओं में कुछ ऐसी महिला किसान भी हैं जिनकी अपनी कुछ ज़मीन है और वे उस पर ऑर्गेनिक उपज ले रही हैं। वे अपनी उपज को भी कैलाश के प्रोसेसिंग प्लांट में ही प्रोसेस करके बेचती हैं।
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कैलाश चौधरी का फार्म आज अन्य किसानों के लिए मॉडल की तरह है। यहाँ हर साल दो से ढाई हज़ार किसान अलग-अलग संगठनों की तरफ से ट्रेनिंग के लिए आते हैं। अपने इस सफल मॉडल के लिए उन्हें लगभग 125 अवॉर्ड्स मिल चुके हैं, जिनमें राष्ट्रीय सम्मान, कृषि मंत्रालय से सम्मान और कई राज्य स्तरीय सम्मान शामिल हैं।
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लगभग डेढ़ करोड़ रुपये का सालाना टर्नओवर लेने वाले कैलाश चौधरी के मुताबिक, किसानों को सफलता के लिए पांच तरीकों को अपनाना चाहिए- जैविक खेती, बागवानी, औषधीय खेती, प्राइमरी वैल्यू एडिशन और पशुपालन।
"लेकिन सबसे बड़ी समस्या यही है कि हमारे किसान मेहनत नहीं करना चाहते। उनका कृषि में कोई टाइम मैनेजमेंट नहीं है। बदलाव उनसे पचता नहीं है और उन्हें लगता है कि सरकार सब कुछ कर दे। अपनी सफलता अपने हाथ में होती है, आप एक बार कोशिश तो करो। मैंने तो पूरी ज़िन्दगी सिर्फ एक ही मंत्र अपनाया- कड़ी मेहनत, दूरदृष्टि और पक्का इरादा। उसी के दम पर सबकुछ मिला है," उन्होंने कहा।
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बेशक, कैलाश चौधरी आज पूरे देश के लिए एक मिसाल हैं। हर पल किसानों के लिए कार्यरत कैलाश चौधरी से सम्पर्क करने के लिए 9829083117 पर कॉल करें!
संपादन - अर्चना गुप्ता