कच्छ के कुकमा गांव में रामकृष्ण ट्रस्ट के ज़रिए 57 वर्षीय किसान मनोज सोलंकी, हर महीने तक़रीबन 50 लोगों को प्राकृतिक खेती की ट्रेनिंग दे रहे हैं। इसके अलावा, यहां पशुपालन, हस्त कला और ग्राम उघोग से जुड़े 100 प्रोडक्ट्स बनाने की तालीम मुफ्त में दी जाती है। इसके लिए ट्रेनिंग लेने वालों को यहां आकर, काम करके प्रैक्टिकल ट्रेनिंग लेनी होती है।
ट्रस्ट को सस्टेनेबल बनाने के लिए मनोज ने दो साल पहले एक बेहतरीन ईको-टूरिज्म की शुरुआत की है, जिसके लिए उन्होंने छह मिट्टी के कमरे बनवाए हैं। इन कमरों को पारम्परिक कच्छी भुंगा घरों के आधार पर, प्राकृतिक संसाधनों से बनाया गया है। इसकी खासियत यह है कि इसे भूकंप में भी कोई नुकसान नहीं पहुचंता और घर की दीवारें मोटी होने के कारण तापमान भी संतुलित रहता है।
वहीं, घर की छतें फूस से बनी होती हैं। झोपड़ीनुमा ये छतें, वजन में काफी हल्की होती हैं। साथ ही लकड़ी से बनी खिड़कियां बहुत नीचे होती हैं, ताकि घर में अच्छी रोशनी आ सके।
कमरों के अंदर मिट्टी की ईटों और गोबर से ही बिस्तर बनाया गया है। यहां रहने आने वाले लोगों को जैविक भोजन और खेती से जुड़ी गतिविधियों में भाग लेने का मौका भी मिलता है।
मनोज का कहना है कि इस फार्म में मौजूद उनका ऑफिस और ट्रेनिंग लेने आए लोगों के लिए बनी डोरमेन्ट्री आदि को भी कम से कम सीमेंट के उपयोग से बनाया गया है।
ये सभी भुंगा घर टूरिज्म को ध्यान में रखकर ही बनाए गए हैं, ताकी ट्रस्ट की दूसरी गतिविधियों को सस्टेनेबल तरीकों से चलाया जा सके।
मनोज ने अपने फार्म के इस सस्टेनेबल मॉडल से गांव के कई लोगों को रोजगार भी दिया है। उन्होंने फार्म पर ही हस्त कला और ऑर्गेनिक सब्जियों जैसे प्रोडक्ट्स बेचने के लिए एक स्वदेसी मॉल भी बनाया है।
कभी प्रकृति से जुड़ने के लिए शुरू की थी खेती
सबसे अनोखी बात तो यह है कि आज से 25 साल पहले मनोज को खेती की कोई जानकारी नहीं थीं। B.com और LLB की पढ़ाई करने के बाद, वह अपने पिता के बिज़नेस में उनका साथ दे रहे थे। तभी उन्हें प्रकृति से जुड़कर कुछ व्यवसाय करने का ख्याल आया। ऐसे में सबसे अच्छा विकल्प खेती ही हो सकती थी। हालांकि, उन्होंने शुरुआत में केमिकल वाली खेती ही की थी। लेकिन साल 2001 में उन्होंने जैविक खेती सीखी और 10 साल अपने खेतों में गाय आधारित खेती का अनुभव लिया। जैविक खेती ने उनके सोचने के तरीके को पूरी तरह से बदल दिया।
मनोज कहते हैं, “खेती का दायरा बहुत बड़ा है। इसके साथ पशुपालन, गोबर से बने प्रोडक्ट्स और खाद आदि को जोड़ा जाए, तो गांव के लोगों को काम करने के लिए शहरों में जाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। इसी सोच के साथ, मैंने साल 2010 में अपने ट्रस्ट की शुरुआत की थी। ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को इसकी ट्रनिंग दी जा सके। इसके जरिए मैं अपना अनुभव लोगों तक पहुंचाता हूँ।”
इस ईको-टूरिज्म को बनाने के लिए उन्होंने, गांव के लोकल कलाकारों की मदद ली है और सीमेंट के मुकाबले काफी कम खर्च में इसे तैयार किया है।
अपने 80 एकड़ जमीन में उन्होंने इस तरह का बेहतरीन सस्टेनेबल सिस्टम तैयार किया है। यहां तकरीबन 400 गायें भी हैं और गौ मूत्र और गोबर से खाद और दूसरे प्रोडक्ट्स भी बनाए जाते हैं। यहां हर साल लगभग 5000 लोग ट्रेनिंग लेने आते हैं।
आप मनोज सोलंकी के रामकृष्ण ट्रस्ट और उनके ईको-टूरिज्म के बारे में ज्यादा जानने के लिए यहां क्लिक करें।
संपादन-अर्चना दुबे
यह भी पढ़ें: बैम्बू, मिट्टी और गोबर से बना ‘फार्मर हाउस’, जहां छुट्टी बिताने आते हैं लोग और सीखते हैं जैविक खेती
We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons: