डॉ. अनिल कुमार राजवंशी, बीते चार दशकों से , तकनीक के जरिए कई गांवों के लोगों की जिंदगी को आसान बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं। उनके इस अमूल्य योगदान के लिए सरकार ने हाल ही में उन्हें पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया है।
राजवंशी, महाराष्ट्र के निंबकर कृषि अनुसंधान संस्थान (NARI) के निदेशक के रूप में काम कर रहे हैं और उन्हें सबसे पहले ई-रिक्शा और इथेनॉल से लालटेन और स्टोव जलाने के ईंधन को विकसित करने के लिए जाना जाता है।
वह लखनऊ में पले-बढ़े हैं और आईआईटी कानपुर से 1972 में बीटेक और 1974 में एमटेक करने के बाद, वह पीएचडी करने के लिए फ्लोरिडा विश्वविद्यालय गए। इस दौरान उन्हें भारत सरकार से पूरी छात्रवृत्ति मिली।
झेलनी पड़ी पिताजी की नाराजगी
5 वर्षों में पीएचडी होने के बाद, राजवंशी ने फ्लोरिडा विश्वविद्यालय में ही पढ़ाना भी शुरू कर दिया। लेकिन देश के लिए कुछ अलग करने की चाहत में, वह आराम की जिंदगी को छोड़कर, 1981 में भारत वापस लौट आए और अपने देश के लोगों की जिंदगी को बदलना शुरू कर दिया। लेकिन इस फैसले से उनके पिताजी काफी नाराज हुए।
राजवंशी कहते हैं, “वह एक ऐसा दौर था, जब भारत का हर इंजीनियर सिलिकॉन वैली में अपनी जिंदगी गुजारना चाहता था। लेकिन मैं अपने जीवन के लक्ष्यों को लेकर हमेशा से स्पष्ट था कि दुनियाभर का अनुभव हासिल कर, अपने देश के लिए काम करूंगा। लेकिन जब मेरे पिताजी को पता चला कि मैं भारत लौटना चाहता हूं, तो वह खासे नाराज हुए और कहा कि आईआईटी कानपुर और फ्लोरिडा विश्वविद्यालय जैसे चुनिंदा संस्थानों से पढ़ाई करने के बावूजद, गांव की ओर लौटना बेवकूफी है।”
लेकिन राजवंशी ठान चुके थे और उन्होंने सिर्फ अपने दिल की सुनी। अमेरिका से लौटने के बाद, उन्हें आईआईटी मुंबई, भेल और टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट जैसे कई प्रतिष्ठित संस्थानों से ऑफर मिला, लेकिन उन्होंने सबको मना कर दिया और सतारा जिले के फलटण में ‘निंबकर कृषि अनुसंधान संस्थान’ नाम के एक एनजीओ से जुड़ने का फैसला किया।
राजवंशी ने बताया, “उस वक्त यहां की जिंदगी काफी कठिन थी। लोगों को हर चीज के लिए पुणे जाना पड़ता था, जो यहां से चार घंटे दूर है। शुरुआती छह महीने में मुझे यहां के माहौल में ढलने में काफी दिक्कत हुई। लेकिन कुछ अलग करने का जुनून ऐसा था कि सभी परेशानियों को भूल, मैं सिर्फ अपना काम करता रहा।”
हासिल किए सात पेटेंट
राजवंशी ने बीते चार दशकों में एल्कोहल स्टोव, बायोमास गैसीफायर और ई-रिक्शा को लेकर सात पेटेंट हासिल किए हैं। इसके अलावा, उन्होंने ‘1970 का अमेरिका’, ‘नैचर ऑफ ह्यूमन थॉट’ ‘रोमांस ऑफ इनोवेशन’ जैसी पांच किताबें भी लिखी हैं।
राजवंशी हमेशा अपने समय से आगे थे। उन्होंने ई-रिक्शा को लेकर उस वक्त काम करना शुरू कर दिया था, जब दुनिया में इसके बारे में कोई सोच भी नहीं रहा था।
वह कहते हैं, “मैंने इलेक्ट्रिक रिक्शा पर साल 1985 में ही काम करना शुरू कर दिया था। उस वक्त भारत क्या, दुनिया के किसी भी देश में इसके बारे में सोचा भी नहीं जा रहा था। फिर, 1995 में इसे लेकर मैंने कुछ पेपर्स लिखे और कुछ कांफ्रेंस में भी हिस्सा लिया। इसी दौरान मेरे प्रोजेक्ट को लेकर एमआईटी बोस्टन के रिसर्च जर्नल में भी एक आर्टिकल पब्लिश हुआ।”
लेकिन, शायद यह राजवंशी को भारी पड़ गया और धीरे-धीरे उनके आइडियाज़ को चुराकर, कई कंपनियों ने काम करना शुरू कर दिया।
वह कहते हैं, “हमारी संस्थान बहुत छोटी है और हमारे पास इतने संसाधन नहीं थे कि हम कंपनियों से कानूनी लड़ाई लड़ सकें। लेकिन साल 2003 के आस-पास मेरे आइडिया को कंपनियों द्वारा चुराने को लेकर मीडिया में काफी खबरें चलीं और लोगों को सच्चाई का पता चलने लगा।”
फिर, ई-रिक्शा के आविष्कार को लेकर उन्हें साल 2004 में प्रतिष्ठित ‘एनर्जी ग्लोबल अवॉर्ड’ से भी सम्मानित किया गया। वहीं, 2014 में वह फ्लोरिडा विश्वविद्यालय से विशिष्ट पूर्व छात्र का पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय रहे।
खुद को मानते हैं आध्यात्मिक इंजीनियर
राजवंशी खुद को आध्यात्मिक इंजीनियर मानते हैं। वह कहते हैं, “भारत प्राचीन काल से ही एक महान सभ्यता है। हम तकनीक और आध्यात्म को एक सूत्र में पिरोकर, देश को एक नई ऊंचाई पर पहुंचा सकते हैं।”
वह कहते हैं कि ग्रामीण भारत आज कई आर्थिक और सामाजिक संकटों से जूझ रहा है। लेकिन तकनीक के जरिए लोगों की जिंदगी को काफी आसान बनाया जा सकता है। इसके लिए युवाओं को सामने आना होगा।
“आज अमीर देशों के, अमीर लोगों की समस्या को हल करने के बजाय, युवा इंजीनियरों को अपने देश के गरीब और बेबस लोगों की दिक्कतों को दूर करने पर ध्यान देना होगा और यह तभी होगा जब वे अपनी असुरक्षा के भाव से बाहर निकलेंगे,” वह अंत में कहते हैं।
आप अनिल राजवंशी से anilrajvanshi50@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।
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