आंध्र प्रदेश के विशाखापट्नम के पास बसे एटिकोप्पका (GI Tagged Etikoppaka Toys) गाँव का इतिहास सालों पुराना है। इस गाँव का नाम चालुक्य वंश के एक राजा के नाम पर रखा गया था। वराह नदी के किनारे बसा यह गाँव खास तरह के पारंपरिक ‘लकड़ी के खिलौनों’ के लिए प्रसिद्ध है। इन खिलौनों को ‘एटिकोप्पका’ (GI Tagged Etikoppaka Toys) के नाम से ही जाना जाता है। हालांकि, एक समय था, जब यह कला लुप्त होने की कगार पर थी लेकिन आज इस गाँव के कारीगर न सिर्फ बच्चों के लिए सामान्य खिलौने बना रहे हैं बल्कि साथ ही प्राथमिक स्कूल में बच्चों की पढ़ाई में मदद के लिए भी खिलौने बना रहे हैं।
और यह सब संभव हो पाया है एटिकोप्पका गाँव के निवासी सीवी राजू के कारण। गाँव एक समृद्ध परिवार से संबंध रखने वाले सीवी राजू जब अपनी पढ़ाई पूरी करके गाँव लौटे तो पुश्तैनी खेती संभालने लगे। खेती करते हुए उन्होंने इस बात पर भी ध्यान दिया कि कैसे अब उनके गाँव में लकड़ी के खिलौने बनाने का काम कम होने लगा है। जिन खिलौनों से खेलते हुए वह खुद बड़े हुए, उन्हें यूँ खत्म होता देख, उनके दिल में इच्छा हुई कि क्या वह कुछ कर सकते हैं?
द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया, “पारंपरिक लकड़ी के खिलौनों को तैयार करने के लिए प्राकृतिक रंगों और डाई का प्रयोग किया जाता था। इससे ये खिलौने बच्चों के लिए हानिकारक नहीं होते थे। लेकिन धीरे-धीरे प्राकृतिक डाई का प्रयोग खत्म होने लगा और बाजार में सिंथेटिक डाई का उपयोग बढ़ गया। साथ ही, वनों की कटाई बढ़ने के कारण कारीगरों को लकड़ी की समस्या होने लगी। और धीरे-धीरे लोग इस काम को छोड़कर दूसरी जगह मजदूरी तलाशने लगे ताकि उनका घर चल सके।”
लेकिन साल 1988 में राजू ने तय किया कि वह इस ‘काष्ठ कला’ को लुप्त नहीं होने देंगे। इसलिए उन्होंने शिल्प कलाओं के लिए काम कर रहे संगठनों और प्रशासन की मदद ली। उन्होंने दस्तकार, क्राफ्ट्स काउंसिल ऑफ़ इंडिया आदि से संपर्क किया और अपने गाँव में ‘पद्मावती एसोसिएट्स’ की शुरुआत की। वह बताते हैं कि वह इन खिलौनों को स्थानीय बाजारों से निकालकर राष्ट्रीय प्रदर्शनियों तक लेकर गए। सभी जगह से लकड़ी के खिलौनों को लोगों से अच्छी प्रतिक्रिया मिली। राष्ट्रीय स्तर पर अच्छा नाम कमाने के बाद, उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी खिलौने एक्सपोर्ट करने का मौका मिला।
‘सिंथेटिक रंग’ के इस्तेमाल के कारण लौटा ऑर्डर
उन्होंने आगे बताया कि हमें काफी बड़ा ऑर्डर मिला था लेकिन जब हमने खिलौने भेजे तो ये वापस आ गए। “इससे पहले कभी भी हमारे खिलौनों की गुणवत्ता पर सवाल नहीं उठे थे। लेकिन इस बार खिलौनों को वापस भेज दिया गया क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में ‘क्वालिटी चेक’ के समय खिलौनों पर इस्तेमाल हुए रंग में ‘लैड’ (Lead) के अंश मिले और ये सिंथेटिक डाई लोगों के लिए जहरीली हो सकती थी। इसके बाद मुझे लगा कि अगर हमें अपनी कला को बचाए रखना है तो एक बार फिर पारंपरिक रंगों को अपनाना होगा,” उन्होंने कहा।
इस बारे में राजू ने गाँव के लोगों से चर्चा की तो कई पुराने कारीगरों ने बताया कि पहले ‘दिवि-दिवि’ (Caesalpinia coriaria) नाम के एक पेड़ से उन्हें लाल रंग मिलता था जिसका उपयोग वह करते थे। लेकिन समय के साथ, प्राकृतिक रंग बनाने और सहेजने की प्रक्रिया कहीं खो गयी थी। इसके बाद, उन्होंने ‘क्राफ्ट्स काउंसिल ऑफ़ इंडिया’ से संपर्क किया और खुशकिस्मती से उस समय, क्राफ्ट्स काउंसिल भी कपड़ों की रंगाई और प्रिंट के लिए ‘वेजिटेबल डाई’ (सब्जियों से मिलने वाले रंग) पर काम कर रहा था। राजू ने उनके द्वारा आयोजित वर्कशॉप में हिस्सा लिया और प्राकृतिक डाई बनाने में जुट गए।
ढूंढ़ा प्राकृतिक रंगों को सहेजने का इनोवेटिव तरीका
राजू बताते हैं कि उन्होंने जंगलों में जाकर अलग-अलग पेड़-पौधे तलाशे, जिनकी जड़ों, छाल, पत्तों, फलों, बीजों और फूलों से प्राकृतिक रंग मिलते हैं। उन्होंने लगभग तीन महीनों तक अलग-अलग प्रयोग किए और कई तरह के प्राकृतिक रंग पेड़-पौधों से इकट्ठा किए। इसके बाद उन्होंने इन रंगों को ‘क्राफ्ट्स काउंसिल ऑफ़ इंडिया’ की मदद से टेस्ट कराया। उनके द्वारा तैयार किए गए रंगों में किसी भी तरह का कोई जहरीला तत्व नहीं मिला। ये पूरी तरह से जैविक थे। लेकिन अब समस्या यह थी कि खिलौनों को इनसे कैसे रंगा जाए ताकि खिलौनों की चमक बरकरार रहे।
उन्होंने बताया, “प्राकृतिक रंग बनाना आसान था लेकिन इन्हें सहेज कर रखने के लिए एक तकनीक की जरूरत थी ताकि कारीगर बिना किसी परेशानी के इन्हें इस्तेमाल कर सकें। इसके लिए मैंने फिर अपनी खोज शुरू की। मैंने एक अलग तकनीक पर काम किया। अब हम सबसे पहले फूल, पत्तों, बीजों आदि को सुखाते हैं। इसके बाद, अलग-अलग तरीकों से प्राकृतिक रंग बनाया जाता है जैसे कुछ को पीसकर, कुछ को पानी में उबालकर तो कुछ का ‘कोल्ड प्रोसेसिंग’ तकनीक से। इसके बाद, इन रंगों को ‘लाख’ के साथ मिलाया जाता है।”
इसके बाद, इस रंगीन लाख से खिलौनों को रंगा जाता है और फिर ‘केवड़ा’ (P. tectorius) के पत्तों से फिनिशिंग दी जाती है ताकि खिलौनों पर चमक आ सके। इस तरह से राजू की तकनीक से आज ‘एटिकोप्पका’ (GI Tagged Etikoppaka Toys) खिलौने हर्बल डाई से बन रहे हैं। उन्होंने बताया कि साल 1993 से 2007 तक उन्होंने दूसरे देशों में भी ये खिलौने एक्सपोर्ट किए।
160 परिवारों को मिल रहा है रोजगार
एटिकोप्पका गाँव के 160 कारीगर परिवारों को राजू के प्रयासों के कारण आज अच्छा रोजगार मिल रहा है। प्राकृतिक डाई की तकनीक बनाने के साथ-साथ राजू ने खिलौनों के लिए भी कई इनोवेटिव डिज़ाइन बनाए हैं। वह बताते हैं कि पिछले कुछ सालों से वह अपने कारीगरों से ‘लर्निंग टॉयज’ बनवा रहे हैं, जिनका इस्तेमाल प्राथमिक शिक्षा में हो रहा है। स्थानीय कारीगरों को स्कूल ऑफ फाइन आर्ट्स, आंध्र विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय डिजाइन संस्थान, अहमदाबाद और एम.एस. विश्वविद्यालय, बड़ौदा के अलावा व्यक्तिगत डिजाइनरों द्वारा भी नयी-नयी डिज़ाइन पर काम करना सिखाया जा रहा है।
एक स्थानीय कारीगर, ए. वरलक्ष्मी कहती हैं, “राजू जी की वजह से हमारा काम बढ़ा है और हमने अच्छा नाम कमाया है। पहले घर चलाने में मुश्किल थी लेकिन अब कोई ऐसी समस्या नहीं है। उनकी वजह से हमें अच्छे ऑर्डर्स मिल रहे हैं।” वहीं, पीआरवी सत्यनारायण कहते हैं कि 1993 से पहले रसायनिक रंग इस्तेमाल कर रहे थे लेकिन अब हम सिर्फ प्राकृतिक रंग इस्तेमाल करते हैं। इसका पूरा श्रेय वह राजू को ही देते हैं। साल 2017 में ‘एटिकोप्पका’ खिलौनों को GI Tag भी मिल चुका है (GI Tagged Etikoppaka Toys)।
सीवी राजू को अपने इस काम के लिए नैशनल इनोवेशन फाउंडेशन (NIF) से काफी मदद मिली है। वह कहते हैं कि NIF ने सबसे पहले तो प्राकृतिक डाई के पुनरुद्धार को मान्यता दी और हमारे काम को पहचान दिलाई। इसके अलावा, उन्होंने आर्थिक सहयोग भी दिया। साल 2002 में तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने उन्हें उनके काम के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा था।
“इसके अलावा, वन विभाग से भी हमें सहायता मिली है और हम ग्रामीणों को सरकार की सामुदायिक वन प्रबंधन योजना से जोड़ रहे हैं ताकि उन्हें खिलौने बनाने के लिए लकड़ी मिलती रहे। साथ ही, गाँव वाले अलग-अलग प्रजातियों के पौधे लगा रहे हैं। जिनका उपयोग हम प्राकृतिक रंग बनाने के लिए कर रहे हैं। इस तकनीक को कोई भी सीख सकता है, लेकिन पेटेंट नहीं करा सकते हैं,” उन्होंने कहा।
आज यह गाँव पूरी तरह से रसायन मुक्त और इको-फ्रेंडली खिलौने बना रहा है। पिछले साल, ‘वोकल फॉर लोकल’ को बढ़ावा देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी ‘मन की बात’ प्रोग्राम में सीवी राजू के प्रयासों की सराहना की और लोगों को उनसे प्रेरणा लेने की सलाह दी। राजू कहते हैं कि आगे उनका उद्देश्य आदिवासी समुदायों के साथ काम करना है। अगर कोई उनके बनाए खिलौने के बारे में जानकारी लेना चाहता है या खरीदना चाहता है तो उन्हें padmavatiassociates@yahoo.com पर ईमेल कर सकते हैं।
संपादन- जी एन झा
Photo Credits: Dr. Rajesh Ponnada and Gatha.com
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