कहते हैं कि एक अलग सोच, आपकी जिंदगी बदल देती है। यह कहानी भी कुछ ऐसी ही है।
दरअसल अमेरिका की रहने वाली जूडी एडवर्ड्स को कब्ज की बीमारी थी। लेकिन ‘मामा स्क्वैटी’ के नाम से मशहूर जूडी ने कभी नहीं सोचा था कि इस समस्या से निपटने के लिए, उन्हें कोई ऐसा उत्पाद बनाने की प्रेरणा मिलेगी, जो आगे चलकर करोड़ों डॉलर के बिजनेस का रूप ले लेगी।
13 मई 2020 को जारी एक प्रेस रिलीज में वह कहती हैं, “इस प्रोडक्ट ने मेरी ज़िन्दगी बचायी थी और इसे मैं ज्यादा से ज्यादा लोगों के साथ बांटना चाहती थी।”
तो, यह जीवन रक्षक आविष्कार वास्तव में है क्या?
अपनी हालत देख, जूडी ने अपने पति बिल और बेटे बॉबी के साथ मिलकर ‘स्क्वैटी पॉटी’ को डिजाइन किया। यह एक फुटस्टूल है, जिसे वेस्टर्न कमोड के ऊपर या इसके नीचे रखा जाता है। उन्होंने इस स्टूल को यूटा स्थित अपने गराज में 2010 में बनाया था। आज इसका 175 मिलियन डॉलर का बिजनेस है।
जूडी को इसका विचार तब आया, जब उन्होंने शौच के लिए अपने पैरों के नीचे कुछ किताबें रखी। ताकि पैर थोड़ा ऊपर हो जाए और उन्हें शौच में आसानी हो। इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने ‘स्लीक स्टूल्स’ का आविष्कार किया।
इस स्टूल का डिजाइन ऐसा है कि आप कमोड के ऊपर पैर मोड़कर बैठ सकते हैं। इसकी लागत लगभग 24.99 डॉलर से 89.99 डॉलर थी।
उन्होंने जल्द ही अपने वेंचर ‘स्क्वैटी पॉटी’ के तहत चीन में 2,000 स्टूल बेचे और पहले साल ही 1 मिलियन डॉलर की कमाई कर डाली। 2011 में स्थापित, इस कंपनी ने मई 2017 में, सिर्फ अमेरिका में ही 4 मिलियन स्टूल बेचे और मई 2020 तक, पूरी दुनिया में 5 मिलियन स्टूल बेच डाले।
जूडी के परिवार ने 2014 में एक लोकप्रिय अमेरिकी टी.वी शो ‘शार्क टैंक’ में हिस्सा लिया। यहाँ उन्हें 350,000 डॉलर के निवेशक मिले। इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के 24 घंटे के अंदर, उन्होंने 1 मिलियन डॉलर के उत्पाद बेचे।
अगले साल कंपनी ने एक विज्ञापन के लिए 250,000 डॉलर खर्च किए। इस वीडियो में एक प्रिंस बता रहे हैं कि बैठने के मुकाबले स्क्वाट में ‘Sphincter Muscle’ को कितना आराम मिलता है। इस वीडियो को यूट्यूब पर 38 मिलियन से अधिक बार देखा जा चुका है, जिससे ब्रांड की लोकप्रियता बढ़ाने में काफी मदद मिली।
लेकिन, क्या आप जानते हैं कि यह भारत की ही हजारों साल पुरानी तकनीक है?
भारतीय शैली के शौचालय के बारे में जब आप पढ़ेंगे तो आपको पता चलेगा कि इस तकनीक का इस्तेमाल यहाँ 8000 वर्ष पहले, सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा संस्कृति के दौरान होता था।
हड़प्पा सभ्यता की सबसे प्रभावशाली विशेषता उसकी नगर योजना और जल निकासी प्रणाली है। खुदाई के दौरान फ्लश, टॉयलेट और नॉन फ्लश टॉयलेट, दोनों मिले हैं। इसके आस-पास नालियों का जाल बिछा हुआ मिला, जो कचरे को बाहर करने के काम आता था।
इस कड़ी में, सुलभ इंटरनेशनल म्यूजियम ऑफ टॉयलेट्स के म्यूजियम क्यूरेटर मनोज कुमार कहते हैं, “जब सिटिंग टॉयलेट की बात आती है, तो उनके पास एक काफी विकसित तकनीक थी। उस काल में हर घर में शौचालय थे। ये भूमिगत ड्रेनेज सिस्टम से जुड़े होते थे, जिससे अपशिष्ट घर से बाहर हो जाता था।”
इस कालखंड में, दुनिया में और कहीं भी ऐसे शौचालयों के इस्तेमाल का प्रमाण नहीं मिलता है। 1200 ईसा पूर्व में, मिस्र में शौचालय मिलते हैं, लेकिन वहाँ मिट्टी के बर्तनों में शौच किया जाता था। जिसे बाद में दासों द्वारा खाली किया जाता था। पहली सदी में रोम में जरूर शौचालय की अच्छी सुविधा थी।
समझा जाता है कि भारत से जो ज्ञान मिस्र पहुँचा था, रोमन सभ्यता में उसे ही व्यवहार में लाया गया। इस प्रकार, रोम में शौचालयों की व्यवस्था, भारत की ही देन कही जा सकती है।
मनोज कहते हैं, “सिंधु संस्कृति में लोग स्थायी तरीके से रहते थे। लेकिन, आर्य काफी लंबे समय तक खानाबदोश थे। यही कारण है कि वे खेत, नदी या किसी जल प्रवाह के पास शौच करते थे। खुले में शौच की यह प्रक्रिया कम से कम 1000 वर्षों तक जारी रही।”
वह आगे कहते हैं, “जब आर्यों को शौचालयों की जरूरत महसूस हुई तो मल त्यागने की प्राकृतिक स्थिति, भारतीय शौचालयों के लिए एक डिजाइन बन गया।”
दुनिया भर में लोकप्रिय
आज शौचालय जाने के सही तरीके को लेकर, वेस्टर्न स्टाइल के कमोड और भारतीय या एशियाई शौचालयों के बीच एक लड़ाई जारी है। मजेदार बात यह है कि पश्चिमी प्रभावों के बावजूद, देसी स्क्वैट टायलेट पूरी दुनिया में बहस जीत रहे हैं।
इस कड़ी में, एक रोचक उदाहरण यह है कि जापान की मित्सुई माइनिंग एंड स्मेल्टिंग को लिमिटेड ने 14 जून 2020 को कंपनी की 95वीं वार्षिक आम बैठक में घोषणा की, कि उसके निदेशक वेस्टर्न स्टाइल के कमोड पर स्क्वैट तकनीक का इस्तेमाल करेंगे। एक और रोचक बात यह है कि जापानी शैली का शौचालय भी भारतीय शौचालयों के समान है और सुविधाजनक शौच के लिए, समान सिद्धांतों का इस्तेमाल करता है।
कंपनी के बयान के अनुसार, जापानी शैली के शौचालय से शौच ठीक से होता है, जो स्वास्थ्य के लिए अच्छा है और लोगों का काम करने में मन लगता है। साथ ही हेल्थ मैनेजमेंट के लिए अपने खर्चों को भी कम करने में मदद मिलती है।
डीएनए द्वारा 2015 में, “If you sit, you don’t know squat: Western-commodes vs Indian style loos” नाम से प्रकाशित एक मजेदार लेख में जिक्र किया गया है कि भारतीय घरों में स्क्वैट टॉयलेट का चलन कैसे बढ़ रहा था। इस बदलाव को सिर्फ महिलाओं के हाइजीन फैक्टर के तौर पर नहीं देखा गया, बल्कि यह रेक्टल प्रोलैप्स, बवासीर जैसे कई बीमारियों के रोकथाम में भी कारगर है।
लेख में, 1978 के उस बात का भी जिक्र किया गया है, जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर के एक दिन के कष्ट ने वहाँ के डॉक्टरों और मीडिया को अपनी ही परम्परा के औचित्य के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया था।
दरअसल, कार्टर को बवासीर के कारण काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था। इसके लिए उन्हें एक दिन की छुट्टी लेनी पड़ी थी। इस घटना के कुछ दिनों के बाद, टाइम मैगजीन ने अमेरिका के प्रसिद्ध प्रोक्टोलाजिस्ट डॉ. माइकेल फ्रेलिच से इसके बारे में पूछा तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया कि हमारा शरीर सिटिंग टॉयलेट के लिए नहीं बल्कि स्क्वेटिंग के लिए ही बना है।
यह आश्चर्यजनक है कि आज हम अपनी परम्पराओं को अवैज्ञानिक नजरिये से देखते हैं और पश्चिमी प्रथाओं और रिवाजों को बिना सोचे-समझे, अपनाने में बड़प्पन महसूस करते हैं।
लेकिन, पश्चिमी देश हमसे इस मामले में कहीं आगे हैं। इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि 30 सितंबर 2018 को, सीएनबीसी के एक लेख में, बिल एडवर्ड्स कहते हैं, “वाह, हम अपने 60 के दशक में हैं, हम इसके बारे में अभी क्यों सुन रहे हैं? यह दर्शाता है कि ‘हल्दी की चाय’ की तरह पश्चिमी देशों की कंपनियाँ हमारा ज्ञान, हमें ही बेचने की कला तेजी से सीख रही है।
मूल लेख – योशिता राव
संपादन- जी एन झा
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