जब भी हम किसी बच्चे को रास्ते में भीख मांगता हुआ देखते हैं या फिर झुग्गी-झोपड़ी में बच्चों को इधर-उधर वक़्त बर्बाद करते देखते हैं तो उनके माता-पिता को ज्ञान देने लगते हैं। उन्हें कहते हैं कि अपने बच्चों को स्कूल भेजो, उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखो और भी न जाने क्या-क्या।
उन्हें ज्ञान देने से पहले हम बिल्कुल भी नहीं सोचते कि जिन लोगों के लिए अपनी दो वक़्त की रोटी जुटाना किसी पहाड़ को चढ़ने से कम नहीं है, हम उनसे कैसे बाकी सुविधाओं की अपेक्षा कर सकते हैं? जब तक आपका पेट ही भरा हुआ नहीं है तो कैसे आप बाकी ज़रूरतों पर ध्यान देंगे।
सबसे ज्यादा ज़रूरी है कि आर्थिक रूप से व्यथित परिवारों को ढंग के रोज़गार से जोड़ा जाए। उनकी एक स्थायी आय होगी तो उन्हें अपने हर दिन की रोटी की चिंता नहीं होगी और फिर वे अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के बारे में भी सोच पाएंगे।
इस बात को समझते हुए ही 29 वर्षीय सलोनी संचेती ने अपना ‘बांसुली’ संगठन शुरू किया ताकि वह गुजरात के डांग जिले के लोगों को एक स्थायी कमाई का ज़रिया दे पाएं। ‘बांसुली‘ यानी कि बम्बू अर्टीसन सोशियो-इकोनॉमिक अपलिफ्टमेंट इनिशिएटिव – अपनी इस सोशल एंटरप्राइज के ज़रिए सलोनी डांग के परिवारों को बांस से ज्वेलरी बनाना सीखा रही हैं और उनके बनाए प्रोडक्ट्स को बाज़ारों तक पहुंचा रही है।
साल 2011 में हुई जनगणना के आधार पर तैयार योजना आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, गुजरात का डांग जिला आर्थिक तौर पर भारत का सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ जिला है। यहाँ न तो सड़क मार्ग ठीक हैं और न ही लोगों के लिए मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध हैं।
सलोनी बताती हैं कि साल 2017 में एक फ़ेलोशिप के लिए वह डांग गई और वहां उनके लिए घर ढूँढना भी किसी चुनौती से कम नहीं था। जैसे-तैसे उन्हें यहाँ के वघई इलाके में एक घर रहने को मिला और वहां से वह हर रोज़ अपनी स्कूटी से डांग आती-जाती थीं।
फ़ेलोशिप के दौरान उनका काम यहाँ के गाँव के लोगों के जीवनस्तर को सुधारना और उन्हें एक बेहतर भविष्य की तरफ ले जाना था। वह कहती हैं,
“यह आसान काम नहीं था। यहाँ पर जनसँख्या भले ही कम है लेकिन लोगों के लिए कोई सुविधाएं नहीं है। सबसे बड़ी चुनौती है कि ये लोग खुद आगे बढ़कर मेहनत नहीं करना चाहते हैं। वे पूरे महीने या फिर लगातार काम करने में यकीन नहीं करते। उन्हें लगता है कि अगर दो दिन की मजदूरी से उनका चार दिन पेट भर रहा है तो ठीक है। अब इसके बाद, उनके बच्चों की शिक्षा-स्वास्थ्य आदि तो भूल ही जाइये।”
ऐसे में, सलोनी गाँव के लोगों के साथ लगातार मिलतीं, उन्हें प्रेरित करतीं कि उन्हें अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोचना चाहिए और एक स्थायी रोज़गार पर ध्यान देना चाहिए। जब सलोनी की ये कोशिशें रंग लाने लगीं तो उन्होंने सोचा कि ऐसा क्या है जिससे इन ग्रामीणों को रोज़गार मिल सकता है।
वह बताती हैं कि डांग जिले में बांस की पैदावार बहुत अच्छी होती है और उनसे पहले एक सामाजिक संगठन, बायफ (BAIF) भी यहाँ के लोगों के साथ काम कर रहा था। बायफ ने यहाँ पर ग्रामीणों के लिए बांस से ज्वेलरी बनाने की वर्कशॉप की थी।
“आइडिया मेरे सामने था मुझे बस इसे सही तरीके से बाज़ार तक पहुँचाना था। इसके लिए मैंने खुद अपना एक स्टार्टअप शुरू करने की ठानी। लेकिन स्टार्टअप शुरू करने से पहले मैंने बांस की ज्वेलरी की डिजाइनिंग पर काम किया और समझा कि हम ऐसा क्या बनाएं जो बड़े शहरों के बाज़ारों में लोगों को पसंद आए,” उन्होंने कहा।
साल 2018 में उन्होंने अपने स्टार्टअप पर काम शुरू कर दिया था। डांग के कारीगरों के साथ मिलकर उन्होंने बांस के साथ अन्य कुछ चीजें जैसे जेमस्टोन, जर्मन सिल्वर आदि को इस्तेमाल करके डिज़ाइन तैयार किये। कानों के झुमके, ब्रेसलेट, पायल, नेकलेस, जुड़ा पिन आदि के उन्होंने 150 से भी ज्यादा डिज़ाइन बनाए।
सलोनी कहती हैं, “जब भी कोई बांस की ज्वेलरी की बात करता है तो हमारे दिमाग में भारत का उत्तर-पूर्वी इलाका आता है क्योंकि वहीं पर सबसे ज्यादा बांस का उत्पादन होता है। पर मेरा उद्देश्य बांस की ज्वेलरी के लिए डांग को ब्रांड नाम बनाना है।”
अपनी फेलोशिप खत्म होने के बाद सलोनी ने ‘बांसुली’ का रजिस्ट्रेशन कराया। बांसुली नाम बांस और हंसुली को मिलाने बाद मिला। हंसुली, गले का एक गहना होता है जिसे राजस्थान और हरियाणा की औरतें पहनती हैं।
बांसुली ने अपनी ज्वेलरी का पहला कलेक्शन, दिल्ली के दस्तकार हाट में बेचा। वहां पर उनके प्रोडक्ट्स की काफी तारीफ हुई और उन्हें आगे बढ़ने का हौसला मिला। इसके अलावा, इस हाट में उनका संपर्क एक-दो बड़े होटलों से भी हुआ, जिन्होंने बांसुली को कुछ ऑर्डर्स दिए।
इसके बाद, सलोनी ने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह कहती हैं कि उनके पहले इवेंट में तीन चीजें हुईं – सबसे पहला उन्हें बाज़ार का पता चला कि लोगों को उनके डिज़ाइन पसंद आ रहे हैं , दूसरा, उनके कारीगरों को बाहर के लोगों से बात-चीत करने का मौका मिला और तीसरा, उन्हें समझ में आया कि उन्हें अपने प्रोडक्ट्स की कीमत कैसे तय करनी है।
सबसे अच्छी बात यह है कि उनके प्रोडक्ट्स पूरी तरह इको-फ्रेंडली हैं। वह सबसे ज्यादा ख्याल इसी बात का रखतीं हैं कि प्रोडक्ट्स एकदम उच्च गुणवत्ता वाले बनें। बारिश के मौसम में अक्सर बांस की ज्वेलरी फंगस लगने से खराब हो जाती है। इसलिए इनकी टीम बांस को ट्रीट करके फिर उससे प्रोडक्ट्स बनाते हैं। यदि बांस का ट्रीटमेंट करके उसे इस्तेमाल करें तो उसकी लाइफ बढ़ती है और उसमें फंगस नहीं लगती। प्रोडक्ट्स की फिनिशिंग बहुत अच्छे ढंग से की जाती है और इन्हें रियूज़ेबल और रिसायकलेबल डिब्बे में पैक किया जाता है। हर प्रोडक्ट के साथ उनका स्टोरी कार्ड जाता है, जिसमें कि बांसुली बनने की कहानी है।
बांसुली के साथ फ़िलहाल 7 कारीगर काम कर रहे हैं और इन्हें हर महीने एक स्थायी तनख्वाह दी जाती है। “पहले दिन से मेरा उद्देश्य रहा कि मैं इन कारीगरों को एक स्थायी कमाई दूँ। इसलिए मैं बहत धीरे-धीरे आगे बढ़ रही हूँ। मैं नहीं चाहती कि हम और भी लोगों को जोड़ लें और फिर उन्हें उनकी मेहनत के हिसाब से पैसे न दे पाएं। जैसे- जैसे हमारे ऑर्डर्स बढ़ेंगे हम अपनी टीम बढ़ाएंगे,” सलोनी ने बताया।
बांसुली के साथ जुड़े हुए इन कारीगरों के घर के हालात पहले से काफी सुधरें हैं। सलोनी के मुताबिक अब ये न सिर्फ अपना घर अच्छे से चला रहे हैं बल्कि अपने बच्चों की शिक्षा पर भी ध्यान दे रहे हैं।
सलोनी कहती हैं कि जब उनके कारीगरों के चेहरों पर मुस्कान होती है तो उन्हें बहुत संतुष्टि मिलती है क्योंकि, उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ छोड़ा है ताकि वह समाज के लिए कुछ कर पाएं।
राजस्थान में अलवर की रहने वाली सलोनी ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएशन की और फिर बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने एक लॉ फर्म के साथ काम भी किया। वह बताती हैं कि वहां पर उनका काफी अच्छा पैकेज था, लेकिन बचपन से उनके मन में समाज के लिए कुछ करने की चाह थी और वह यहाँ पूरी नहीं हो पा रही थी।
लॉ फर्म में काम करते हुए ही उन्होंने फ़ेलोशिप के लिए अप्लाई किया था और उन्हें सेलेक्ट कर लिया गया।
“जब फेलोशिप का रिजल्ट आया तब मेरी शादी की बात चल रही थी। लेकिन नियमों के मुताबिक मुझे 13 महीनों के लिए एक पिछड़े इलाके में रहकर वहां के हालातों पर काम करना था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ? क्योंकि मैं इस मौके को छोड़ना नहीं चाहती थी। मैंने अपने घर में और अपने होने वाले ससुराल में बताया और मेरी किस्मत थी कि सबने मेरा साथ दिया। सबने मेरे फैसले का सम्मान करते हुए शादी को एक-डेढ़ साल के लिए आगे कर दिया,” उन्होंने बताया।
सलोनी कहती हैं कि आज भी उनके पति उनके काम को लेकर काफी सपोर्ट करते हैं। भले ही, उनके लिए हर नया दिन एक नई चुनौती लेकर आता है पर उन्हें विश्वास है कि वह हर मुश्किल पार कर लेंगी।
“अगर आप पूरे दिल से कुछ करना चाहते हैं तो आप कर लेते हैं। लेकिन, अगर आपके मन में डर है कि आप असफल जाएंगे, तो ऐसे में आप कभी आगे नहीं बढ़ पाएंगे। बस एक बार खुद पर विश्वास करें कि आप कर लेंगे फिर हर मुश्किल आसान लगती है। दूसरों के लिए कुछ करने पर जो सुकून मिलता है वो शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता,” उन्होंने अंत में कहा।
सलोनी संचेती से संपर्क करने के लिए उनके फेसबुक पेज पर क्लिक करें!
संपादन – अर्चना गुप्ता
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।
We at The Better India want to showcase everything that is working in this country. By using the power of constructive journalism, we want to change India – one story at a time. If you read us, like us and want this positive movement to grow, then do consider supporting us via the following buttons: