‘म्हारी छोरियां छोरों ते कम हैं के”
दंगल फिल्म का यह एक डायलॉग काफी है हरियाणा की बेटियों को परिभाषित करने के लिए। कल्पना चावला, गीता फोगाट, साक्षी मालिक, सायना नेहवाल, रानी रामपाल, प्रीती देशवाल, दीप्ति देशवाल जैसे नामों के अलावा भी बहुत से नाम हैं, जिन्होंने न सिर्फ़ हरियाणा बल्कि पूरे देश का नाम दुनिया में रौशन किया है।
राष्ट्रीय महिला कबड्डी टीम की कोच, सुनील डबास का नाम भी इस फ़ेहरिस्त में शामिल होता है। सुनील भारत की पहली महिला कबड्डी कोच हैं जिन्हें पद्म श्री और द्रोणाचार्य जैसे सम्मानों से नवाज़ा गया है। इस उपलब्धि के लिए उनका नाम लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स में भी शामिल है।
गाँव की मिट्टी से हुई शुरुआत:
हरियाणा के एक गाँव से निकलकर राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने तक का सुनील का सफ़र बिल्कुल भी आसान नहीं रहा। बहुत-सी चुनौतियों का जवाब देते हुए वह यहाँ तक पहुंची हैं और अपने गाँव की हर एक पीढ़ी के लिए आदर्श बनी हैं। झज्जर के मोहम्मदपुर माजड़ा गाँव में एक किसान परिवार में जन्मी सुनील ने कभी नहीं सोचा था कि वह दसवीं से आगे पढ़ भी पाएंगी।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए उन्होंने बताया, “गाँव में तो लड़कियों को पढ़ने ही बड़ी मुश्किल से भेजते थे तो फिर भूल ही जाओ कि कोई लड़की ट्रैक-पैंट पहनकर गाँव में दौड़ लगाएगी या फिर कबड्डी खेलेगी।”
तो फिर सुनील को कबड्डी का शौक कैसे चढ़ा?
इसके जवाब में उन्होंने बताया, “गांवों में औरतें घर का काम जल्दी निपटाकर फाग खेलती हैं, जिसमें वे टोलियों में बैठकर गाना-बजाना करतीं हैं या फिर कोई खेल खेल लिया। इस फाग में उनका अपने ही तरीके का एक कबड्डी भी होता था। तो बस हम बहनें भी अपनी माँ के साथ वहां जाती थीं। मेरी बड़ी बहन बहुत तेज थी भागने-दौड़ने में, आज लगता है कि अगर उसे सही दिशा मिली होती तो वो एथलेटिक्स में बहुत आगे जाती। उसी फाग में अपनी माँ और बहन को खेलते देख, मुझे भी खेलों का चस्का लगा गया।”
छह बहन-भाइयों में पली-बढ़ी सुनील को आज भी इस बात का खेद है कि लोगों के दबाब के चलते उनकी बड़ी बहन की शादी जल्दी कर दी गयी। लेकिन सुनील और उनकी छोटी बहन के सपनों को उनके पिता अतर सिंह ने टूटने नहीं दिया।अतर सिंह ने भारतीय सेना में अपनी सेवाएं दीं और फिर जल्दी ही वहां से रिटायरमेंट ले ली।
चुनौतियों का किया सामना:
सुनील बताती हैं कि गाँव के स्कूल से आठवीं कक्षा पास करने के बाद उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए झज्जर पढ़ने जाने देने का फ़ैसला भी उनके पिता का ही था।
“बाकी परिवार वालों ने तो ख़ूब ही विरोध किया था। पर पापा बाहर रहे थे कुछ समय तो देखा था उन्होंने कि लडकियाँ भी पढ़ती हैं, कुछ बनती हैं। उन्होंने भाइयों के साथ मेरा और मेरी बहन का भी दाखिला करा दिया,” सुनील ने बताया।
यहाँ पर सुनील ने कबड्डी और हैंड बॉल जैसे स्पोर्ट्स में भाग लेना शुरू किया। गाँव के लोगों को पता न चले इसके लिए वे घर से सूट-सलवार में निकलतीं थीं और बैग में ट्रैक-पैंट रख ले जाती ताकि स्कूल में ही चेंज कर लें। धीरे-धीरे जब उन्होंने प्रतियोगिताएं जितनी शुरू की तो उनके गाँव में उनके खेल के बारे में पता चलने लगा। जहां कुछ लोगों ने उन्हें सराहा, वहीं बहुत से ऐसे लोग भी थे जो उनके माता-पिता से उनकी शादी करा देने के लिए कहते।
“मेरी दसवीं ही हुई थी कि लोगों ने मेरे लिए पापा को रिश्ते बताना शुरू कर दिया था। पर मेरे पापा ने उस वक़्त किसी की नहीं सुनी। उन्हें विश्वास था कि उनकी बेटी अपने पैरों पर खड़ी होकर, कुछ बनकर दिखाएगी। मैं एक बार टूर्नामेंट के लिए गुजरात गयी तो लोगों ने कहना शुरू कर दिया, ‘देखना भई, कभी ये वहीं ब्याह न कर ले, बाहर ना भेजो।’ पर मेरे पापा ने सिर्फ यही कहा कि उन्हें अपनी बेटी पर भरोसा है,” सुनील ने कहा।
अपने पिता के भरोसे को सुनील ने हर कदम पर बनाये रखा। उन्होंने अपनी पढ़ाई के साथ-साथ कॉलेज, इंटर-कॉलेज, राज्य और नेशनल लेवल पर स्पोर्ट्स में भी भाग लेते रहना जारी रखा। लेकिन उस जमाने में कबड्डी या हैंड बॉल जैसे स्पोर्ट्स को खास तवज्जो नहीं दिया जाता था। उस समय तो इन खेलों के लिए कोई खास कोचिंग की भी व्यवस्था नहीं होती थी। सुनील कहती हैं कि उन्होंने अपने खिलाड़ी जीवन में एक अच्छे कोच और मार्गदर्शक की कमी को बहुत महसूस किया। इसलिए उन्होंने खुद कोचिंग में ट्रेनिंग कोर्स किया।
कोच के रूप में मिली सफलता:
साल 2002- 2003 तक उन्होंने खुद खेलों में भाग लिया और इसके बाद उन्होंने बतौर कोच अपना करियर शुरू किया। सुनील बताती हैं कि उन्हें जूनियर कोच के रूप में टीम के साथ साउथ एशियाई खेलों में जाने का मौका मिला। वहां उन्होंने देखा कि उनके जिन खिलाड़ियों का नेशनल लेवल पर कोई जवाब नहीं था, वही खिलाड़ी इंटरनेशनल खेलों में सामने वाली टीम को टक्कर ही नहीं दे पा रहे थे।
इसके बाद उन्होंने अपनी टीम को अंतरराष्ट्रीय खेलों के लिए तैयारकरना शुरू किया। उनके मार्गदर्शन में पहली बार साल 2010 के एशियाई खेलों में भारतीय महिला कबड्डी टीम ने अपना अंतरराष्ट्रीय डेब्यू किया। यहां उन्होंने गोल्ड मैडल जीता। इसके बाद सुनील ने लगातार साल 2014 तक भारतीय महिला कबड्डी टीम की कोचिंग की।
उनके मार्गदर्शन में टीम ने 7 अंतरराष्ट्रीय गोल्ड मैडल जीते, जिनमें कबड्डी वर्ल्ड कप और एशियाई खेल जैसे महत्वपूर्ण इवेंट्स शामिल हैं। उनके इस अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें साल 2012 में द्रोणाचार्य सम्मान और फिर साल 2014 में उन्हें पद्म श्री से नवाज़ा गया। इसके अलावा उन्हें और भी कई सम्मान मिले, जिनमें साल 2018 का ‘फर्स्ट लेडी’ अवार्ड भी शामिल है।
फ़िलहाल, राजकीय द्रोणाचार्य महाविद्यालय में वे फिजिकल एजुकेशन डिपार्टमेंट की हेड हैं और साथ ही, राष्ट्रीय महिला कबड्डी टीम की कोच भी।
गाँव में रखी बदलाव की नींव:
सुनील ने अपनी मेहनत और हिम्मत से पूरी दुनिया में तो भारत का परचम लहराया ही है। लेकिन उनकी सफलता ने उनके गाँव की तस्वीर बिल्कुल बदल दी है। वह बताती हैं कि जिस गाँव में लड़कियों को बिना दुपट्टे के घर से बाहर निकलने की भी इजाज़त नहीं थी, आज वहां सुनील के प्रयासों से बने स्टेडियम में लड़कियां ट्रैक सूट और शॉर्ट्स में खेलती-कूदती दिखाई देती हैं।
“2010 में जब मेरी टीम एशियाई चैंपियनशिप में गोल्ड लेकर लौटी तो पूरे गाँव के लोग मेरे स्वागत के लिए आये थे। वहां उन्होंने बहुत से सम्मान दिए और नकद पुरस्कारों से भी नवाज़ा। वहीं के वहीं मैंने वह राशि अपने गाँव में एक स्टेडियम बनवाने के लिए दान कर दी। फिर गाँव के लोगों से बात करके गाँव की 10 एकड़ ज़मीन को स्टेडियम के लिए दे दिया,” सुनील ने बताया।
उन्होंने आगे कहा कि अब गाँव की किसी लड़की को दसवीं कक्षा के बाद से ही ब्याहने की तैयारियां नहीं होती। बल्कि लड़कियों को आगे पढ़ने के लिए बड़े शहरों में भेजा जा रहा है। लड़कियों के प्रति लोगों के व्यवहार में बहुत बदलाव आया है। अब गाँव में लड़कों के लिए नहीं बल्कि लड़कियों के लिए भी गौंद के लड्डू बनाये जाते हैं।
अपनी इस सफलता का श्रेय अपने माता-पिता को देते हुए सुनील अंत में सिर्फ़ यही संदेश देती हैं, “अगर बेटियों के माता-पिता उनकी ढाल बनकर समाज के सामने खड़े हो जाएं तो उनकी बेटियों को आसमान छूने से कोई नहीं रोक सकता। माँ-बाप का भरोसा बेटियों के लिए सबसे बड़ी ताकत का काम करता है और इसके दम पर वे खुद अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले कर सकती हैं। इसलिए सभी माता-पिता से गुजारिश हैं कि अपनी बेटियों की ताकत बनें, कमजोरी नहीं।”
द बेटर इंडिया, भारत की इस बेटी को सलाम करता है और उम्मीद करता है कि आने वाले समय में देश की बेटियाँ इसी तरह नाम रौशन करती रहेंगी!
संपादन – मानबी कटोच
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Sunil Dabas is a coach of national female Kabbadi team of India. Over the years, she has coached her team to win seven international gold medals, including the 2010 Asian Games and the World Cup-2012. She was awarded the Dronacharya Award in 2012, and Padma Shri in 2014 by Government of India.
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