कहते हैं कि किसी की तक़लीफ़ का अंदाज़ा तब होता है जब आपको खुद उससे गुज़रना पड़े; लेकिन तेलंगाना के एक छोटे से गांव, कोल्लूर में रहनेवाले श्याम राव औरों से थोड़े अलग हैं। खुद दिव्यांग न होते हुए भी, वह हमेशा से दूसरे दिव्यांगजनों की तक़लीफ़ें और दर्द समझते थे। श्याम राव आज तेलंगाना सहित दक्षिण भारत के कई राज्यों में, दूसरों की मदद करने के लिए मशहूर हैं। वह पिछले 22 सालों से गरीब दिव्यांगजनों के लिए, बेहद कम दाम में आर्टिफिशियल लिम्ब्स बना रहे हैं। इतना ही नहीं, वह कई NGO और रोटरी क्लब्स जैसे संस्थानों से जुड़कर भी यह काम कर रहे हैं, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की मदद कर सकें।
श्याम कहते हैं, “मैं खुद एक गरीब इंसान हूँ। अगर मेरी मदद से किसी दिव्यांग का जीवन बेहतर होता है तो यह मेरे लिए ख़ुशी की बात है।”
कैसे सीखा आर्टिफिशियल लिम्ब्स बनाना?
श्याम के मन में हमेशा से दिव्यांगजनों के लिए कुछ करने की इच्छा थी। पेशे से एक कारपेंटर, श्याम बेहद ही गरीब परिवार से हैं। अपने घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने लकड़ी का काम सीखा था।
इसके बाद वह काम करने लगे और साथ ही कई NGOs में भी सेवा किया करते थे। वह जिस संस्था में काम करते थे, वह दिव्यांगजनों के लिए काम करती थी। श्याम बताते हैं, “वह संस्था दिव्यांगजनों को आर्टिफिशियल लिम्ब्स उपलब्ध कराती थी। वहीं से मुझे चेन्नई की मुक्ति ट्रस्ट के बारे में पता चला और मैंने वहां जाकर आर्टिफिशियल लिंब बनाना सीखा।”
1998 में उन्होंने इसकी ट्रेनिंग ली और जयपुर फुट के जैसा ही एक आर्टिफिशियल लिंब काफ़ी कम क़ीमत में तैयार किया।
साल 2000 से श्याम रोटरी क्लब की ओर से लगने वाले कैंप्स में दिव्यांगजनों के लिए आर्टिफिशियल लिम्ब्स बनाने का काम करते आ रहे हैं। श्याम बताते हैं, “साल में दो बार मैं 150 से 200 लिम्ब्स बनाकर ले जाता हूँ। इन कैंप्स के ज़रिए ही कई लोग अब मुझे अलग से आर्टिफिशियल लिंब बनाने का काम भी देते हैं।”
श्याम आज निजी तौर पर भी लोगों के लिए आर्टिफिशियल लिंब बनाते हैं। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका और श्रीलंका से भी, कम लागत में आर्टिफिशियल अंग बनाने की ट्रेनिंग ली है। कोई भी आर्डर आता है, तो श्याम खुद उस व्यक्ति से मिलने जाते हैं और उनके आकार और ज़रूरत के हिसाब से लिम्ब बनाते हैं। उनके बनाए लिम्बस 3500 रुपये में मिल जाते हैं, जबकि बाज़ार में मिलने वाले जयपुर फुट के लिम्बस की क़ीमत लगभग 40,000 है।
दिव्यांगजनों की मदद करना है मक़सद
श्याम ने कई लोगों को आर्टिफिशियल लिम्ब्स बनाना भी सिखाया है। वह कहते हैं, “इस काम में मुझे ज़्यादा फ़ायदा भले न होता हो, लेकिन मन की संतुष्टि काफ़ी मिलती है। इस काम से मेरा और दिव्यांगजन दोनों का भला हो रहा है।”
इसके अलावा, दिव्यांग बच्चों के बैठने के लिए विशेष टेबल और कुर्सियों जैसे फर्नीचर भी श्याम बनाते हैं। वह अपने गांव में रहकर ही ये सारे काम करते हैं, और कैम्प्स के लिए अलग-अलग जगहों पर जाते रहते हैं। श्याम के बारे में बात करते हुए रोटरी क्लब निज़ामाबाद के मैनेजर राहुल कहते हैं, “ वह सालों से हमारे लिए आर्टिफिशियल लिम्ब्स बनाने का काम कर रहे हैं। रोटरी क्लब हमेशा गरीबों के लिए ऐसे कैम्प्स लगाता रहता है और श्याम खुशी-खुशी हमारे काम को सफल बनाने में मदद करते हैं।” उनके बनाए लिम्ब्स पांच से दस सालों ल तक आराम से चलते हैं।
श्याम की निस्वार्थ सेवा से आज कई लोगों को जीवन में एक नई आशा मिली है। उनकी कहानी हमें यक़ीन दिलाती है कि इंसानियत आज भी जीवित है।
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संपादन-अर्चना दुबे
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