अक्सर गांव से निकलकर लोग शहरों में बस जाते हैं। वहीं शहर में रहने वाले तो गांव की तरफ बहुत ही कम मुड़ते हैं। लेकिन आज हम आपको एक ऐसे शख्स की कहानी सुनाने जा रहे हैं, जिन्होंने मुंबई और पुणे जैसे महानगरों में लंबा वक्त गुजारने के बाद गांव में बसने का फैसला किया। यह प्रेरक कहानी है 57 वर्षीय नरेंद्र पितले की ।
पर्यावरण के प्रति लगाव के कारण नरेंद्र पितले ने गांव में अपने लिए एक ऐसा घर तैयार किया है, जो कंक्रीट का नहीं बल्कि मिट्टी से बना है।
हालांकि, पर्यावरण अनुकूल घर बनाने की सोच, रातों-रात उनके दिमाग में नहीं आई थी। बचपन से ग्रामीण जीवन के प्रति उनकी रूचि और इससे बारे में निरंतर पढ़ने के बाद ही उनकी सोच में बदलाव आया।
कैसे हुआ प्रकृति से जुड़ाव
नरेंद्र पितले मुंबई के पास विरार के एक छोटे से गांव से ताल्लुक रखते हैं। लेकिन वह मुंबई में पले-बढ़े। वहीं साल 1990 से 2012 तक वह नौकरी के सिलसिले में पुणे में रहते थे।
नरेंद्र पेशे से मैकेनिकल इंजीनियर हैं और उन्होंने कई अलग अलग फर्म में नौकरी की है। साथ ही, कुछ समय कंसल्टेंसी का काम भी किया। लेकिन वह कभी भी अपने काम से पूरी तरह से संतुष्ट नहीं थे। वह नौकरी के साथ खेती और इकोलॉजी जैसे विषय के बारे में पढ़ते रहते थे।
नरेंद्र कहते हैं, “इकोलॉजी की ढेरों किताबें पढ़ने के बाद ही मुझे लगा कि जिस तरह का जीवन हम जी रहे हैं, वह सही नहीं है। एक सस्टेनेबल लाइफस्टाइल के लिए हमें जीवन में कुछ बदलाव लाने होंगे। यह विषय मुझे इतना पसंद था कि मैंने नौकरी के साथ इकोलॉजी का एक कोर्स भी किया।”
साल 2004 में जब वह पुणे में थे, तब उन्होंने वहीं से इकोलॉजी का कोर्स किया था, जिसे वह अपने जीवन का एक टर्निग प्वाइंट भी बताते हैं।
उन्हें बचपन से ही ट्रैकिंग का शौक भी था। नौकरी के दौरान छुट्टी में वह आस-पास के गांव में भी रुकते रहते थे। प्रकृति से जुड़ाव और पर्यावरण के प्रति जागरूकता का एक कारण वह इसे भी मानते हैं।
अपने दोस्त को भी किया इको-टूरिज्म बनाने के लिए प्रेरित
नरेंद्र हमेशा सोचते थे कि कैसे जीवन में बदलाव लाया जाए। इसी दौरान उनके एक दोस्त ने बताया कि उसकी लोनावला के पास शिलिम्ब गांव में तक़रीबन 20 एकड़ जमीन है।
नरेंद्र को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी जमीन होने के बावजूद, उनका दोस्त शहर में एक नौकरी के पीछे भाग रहा है। वह कहते हैं, “हमें बचपन में बताया गया था कि सबसे अच्छा काम खेती का है, दूसरा बिज़नेस और उसके बाद ही नौकरी की बात आती है। लेकिन आज लोग इसका बिल्कुल उल्टा कर रहे हैं। जिसे बदलने की जरूरत थी। मैंने अपने दोस्त को उसकी जमीन पर एक एग्रो टूरिज्म सेंटर बनाने का आईडिया दिया।”
इस तरह नरेंद्र ने अपने दोस्त की 20 एकड़ जमीन पर एक एग्रो-टूरिज्म सेंटर बनाने का काम शुरू किया। इस दौरान वह पुणे से कंसल्टेंसी का भी काम कर रहे थे। वह अपना काम कहीं से भी कर सकते थे, इसलिए उन्होंने गांव में जमीन लेकर घर बनाने की योजना बनाई। नरेंद्र ने जब यह बात अपने दोस्त से साझा की तो उन्होंने अपनी ही जमीन पर घर बनाने को कहा।
नरेंद्र कहते हैं, “एक ओर मैं अपने दोस्त के लिए बढ़िया इको-टूरिस्ट सेंटर बना रहा था और दूसरी ओर मैंने खुद के लिए भी एक छोटा सा पर्यावरण अनुकूल घर बनाना शुरू किया।”
साल 2012 में, महज़ तीन महीने में, उन्होंने 500 स्क्वायर फुट का एक छोटा-सा घर बना लिया। जिसके लिए उन्हें मात्र दो लाख रुपये ही खर्च करने पड़े। चूंकि नरेंद्र ने शादी नहीं की है, इसलिए उन्हें ज्यादा बड़े घर की जरूरत भी नहीं थी। इसलिए उन्होंने कम से कम जगह में घर बनाने का फैसला किया।
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कैसे बना छोटा-सा इको-फ्रेंडली घर
नरेंद्र ने घर बनाने के लिए रिसर्च भी किया। दरअसल वह कम खर्च में पर्यावरण अनुकूल घर बनाना चाहते थे। यह घर ज्यादा से ज्यादा स्थानीय और रीसायकल वस्तुओं से बना है। इसमें उन्होंने पैकिंग बॉक्स की बेकार लकड़ियों का इस्तेमाल किया है। साथ ही, खिड़की और दरवाजे भी पुराने हैं, जिन्हें उन्होंने कबाड़ीवाले से ख़रीदा है। घर की छत में लगी टाइल्स भी पुरानी हैं।
उन्होंने बताया, “गांव में लोग पक्के मकान बनाते वक़्त पुराने घर की टाइल्स फेंक देते हैं। मैंने छत में ऐसी ही टाइल्स का इस्तेमाल किया है।”
घर की दीवार के लिए उन्होंने स्थानीय कर्वी की लकड़ियों को काम में लिया, जिसमें मड मोर्टार का इस्तेमाल किया गया है। सबसे ताज्जुब की बात यह है कि इस घर में एक बोरी से भी कम सीमेंट का इस्तेमाल हुआ है, जिसे उन्होंने बाथरूम बनाने के लिए उपयोग में लिया है।
नरेद्र ने फ्लोर में भी कंक्रीट का इस्तेमाल नहीं किया है। फ्लोर मिट्टी का ही है, जिसपर हर तीन महीने में गोबर की लिपाई की जाती है। मड मोर्टार के उपयोग के कारण, घर के अंदर अच्छी ठंडक रहती है, यही कारण है कि उनके घर में आपको पंखा नहीं मिलेगा।
500 स्क्वायर फुट के इस घर में एक बेडरूम, एक किचन, एक बाथरूम और एक बरामदा है। इसके अलावा, उन्होंने 100 वाट का सोलर पैनल भी लगवाया है, जिससे उन्हें उपयोग से कहीं ज्यादा बिजली आराम से मिल जाती है।
नरेंद्र ने चार महीने पहले ही कंसल्टेंसी का भी काम छोड़ दिया है। इसके बारे में वह कहते हैं, “अक्सर काम के सिलसिले में पुणे आना-जाना लगा रहता था, जिस वजह से मैं किचन गार्डन का काम नहीं कर पाता था। लेकिन अब मैंने शहर का काम छोड़ दिया है और जल्द ही अपने लिए एक किचन गार्डन तैयार करूंगा।”
अंत में नरेंद्र कहते हैं, “मैं लोगों को इको-फ्रेंडली घर बनाने में मदद करना चाहता हूं। कई लोग पूछकर तो जाते हैं लेकिन वे सभी पारम्परिक घर की जगह इको-फ्रेंडली घर बनाने से डरते हैं। मेरे हिसाब से पहले लोगों की सोच में बदलाव लाने की जरूरत है, तभी वे जीवन में बदलाव ला सकते हैं।”
संपादन- जी एन झा
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