रोज़ छड़ी के सहारे पैदल चलकर गाँव पहुँचते हैं, ताकि पढ़ा सकें 60 ज़रूरतमंद बच्चों को

Jharkhand teen teacher

कोरोना के दौरान जब गांव के बच्चों को शिक्षा नहीं मिल पा रही थी, तब 18 वर्षीय उपेंद्र यादव ने उनको पढ़ाने का बीड़ा उठाया। दिव्यांग होते हुए भी, वह हर रोज लकड़ी के सहारे दो किमी पैदल चलकर 60 बच्चों को पढ़ाने जाते हैं।

“मुझे पढ़ना बहुत अच्छा लगता है, मैं मानता हूँ कि शिक्षा पर हर किसी का समान हक़ होना चाहिए। फिर चाहे वह दिव्यांग हों या गरीब लड़के-लड़कियां।” यह कहना है, चतरा(झारखंड) के 18 वर्षीय उपेंद्र यादव का। फ़िलहाल वह बारहवीं की पढ़ाई कर रहे हैं और IAS बनना उनका सपना है। लेकिन बारहवीं तक की पढ़ाई भी उनके लिए बिल्कुल आसान नहीं थी। आपको बता दें, उपेंद्र बचपन से ही दाएं हाथ और पैर से दिव्यांग हैं।  

बावजूद इसके वह खुद तो पढ़ते ही हैं। साथ ही उन्होंने अपने आस-पास के गावों के तक़रीबन 60 गरीब बच्चों को भी, मुफ्त में पढ़ाने का काम शुरू किया है। इन सभी बच्चों की पढ़ाई, कोरोना काल में रुक गई थी, क्योंकि ऑनलाइन क्लास करने के लिए उनके पास मोबाइल नहीं था। लेकिन आज, ये सभी बच्चे उपेंद्र सर की क्लास में आकर हर दिन कुछ नया सीख रहे हैं। पिछले साल उपेंद्र ने महज दो-तीन बच्चों को पढ़ाने से शुरुआत की थी। लेकिन आज यह संख्या बढ़कर 60 हो गई है, जिसमें 40 लड़कियां शामिल हैं।  

free education

द बेटर इंडिया से बात करते हुए उपेंद्र बताते हैं, “मेरे पास पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चों के माता-पिता ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं। लेकिन बच्चों की पढ़ने के प्रति लगन देखकर, मुझे उन्हें पढ़ाना अच्छा लगता है।” 

 कोरोना में बच्चों को शिक्षा से जोड़ा 

उपेंद्र अपने चार भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं। उन्हें पढ़ने का शौक़ तो बहुत था, लेकिन उनकी विकलांगता के कारण उन्हें कई तकलीफों का सामना करना पड़ा। चूँकि उनका दायां हाथ काम नहीं करता, इसलिए वह बाएं हाथ से लिखते हैं। साथ ही लकड़ी के सहारे स्कूल आने-जाने में भी उन्हें काफी ज्यादा समय लगता था। बिना किसी ट्यूशन के उन्होंने खुद की मेहनत से दसवीं की परीक्षा पास की थी। 

लॉकडाउन के दौरान उन्होंने देखा कि बच्चे पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं। यह बात उन्हें बहुत खलती थी। उन्होंने अपने घर के आस-पास के, और रिश्तेदारों के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। जिसके बाद गांव के कई बच्चे उनके पास पढ़ने आने लगे। जब बच्चे कम थे, तब वह सभी को अपने घर पर ही पढ़ाया करते थे। लेकिन बच्चों की संख्या बढ़ने के बाद, उन्होंने गांव के पुराने स्कूल में पढ़ाना शुरू किया। उपेंद्र बताते हैं, “अभी बारिश के दिनों में स्कूल की छत से पानी गिरता है, और जमीन भी टूटी-फूटी है। हालांकि स्कूल की दीवार पर मैंने खुद के पैसों से एक बोर्ड तो बनवाया है, लेकिन बाकि सुविधाएं देना मेरे बस की बात नहीं है।” 

उपेंद्र, स्कूल में बोर्ड बनवाने और चॉक जैसी जरूरतों के लिए, सरकार से मिलने वाली 1 हजार रुपये की विकलांग सहायता का इस्तेमाल करते हैं।

Upendra Yadav

IAS बनने का सपना  

उपेंद्र अगले साल बारहवीं की परीक्षा देंगे। उनका सपना, एक IAS असफ़र बनने का है। जिसके लिए वह तैयारी भी कर रहे हैं। वह हर दिन सुबह जल्दी उठकर स्कूल में बच्चों को पढ़ाने जाते हैं, और वापस आकर खुद भी पढ़ाई करते हैं। वह कहते हैं, “इन बच्चों को देखकर मुझे और ज्यादा पढ़ने की इच्छा होती है। बच्चे मुझे अपनी प्रेरणा मानते हैं, और मैं इन बच्चों को। सभी बच्चों के मन में मेरे प्रति जो सम्मान है, वह मुझे और अच्छा करने के लिए प्रेरित करता है।” हालांकि शुरुआत में कई लोगों ने उनका मज़ाक भी बनाया, लेकिन जैसे ही धीरे-धीरे बच्चों की संख्या बढ़ने लगी,  कई लोग उनकी मदद के लिए आगे भी आने लगे। अब तो कई लोग सुबह स्कूल जाते समय उन्हें स्कूटर पर लिफ्ट भी दे देते हैं। 

फ़िलहाल, उपेंद्र सर की इस क्लास में पहली से लेकर 9वीं तक के बच्चे पढ़ने आते हैं। वहीं, उपेंद्र लड़कियों को शिक्षित करने पर ज्यादा ज़ोर देते हैं। यही कारण है कि उनके पास आने वाले 60 बच्चों में 40 लड़कियां हैं। साथ ही उनके सभी छोटे भाई-बहन भी पढ़ाई कर रहे हैं। 

उनका कहना है कि अगर मेरे पास से पढ़कर इन बच्चों के जीवन में थोड़ा भी बदलाव आता है, तो मुझे बेहद ख़ुशी होगी। शिक्षा के भरोसे ही ये सभी बच्चे अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर बना सकते हैं। 

द बेटर इंडिया उपेंद्र के इन प्रयासों को सलाम करता है।  

संपादन-अर्चना दुबे

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