शहीद के साथी: सुशीला दीदी, राम प्रसाद बिस्मिल की सच्ची साथी!

काकोरी कांड के फैसले में 4 क्रांतिकारियों को फांसी हुई और पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई, लेकिन सुशीला दीदी के कदम नहीं रुके।

हर सुख भूल, घर को छोड़, क्रांति की लौ जलाई थी
बरसों के संघर्ष से इस देश ने आज़ादी पाई थी
आज़ाद, भगत सिंह, और बिस्मिल की गाथाएं तो सदियाँ हैं गातीं
पर रह गए वक़्त के पन्नों में जो धुंधले
कुछ और भी थे इन शहीदों के साथी!
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्र शेखर आज़ाद, रानी लक्ष्मी बाई और भी न जाने कितने नाम हमें मुंह-ज़ुबानी याद हैं। फिर भी ऐसे अनेक नाम इतिहास में धुंधला गए हैं, जिन्होंने क्रांति की लौ को जलाए रखने के लिए दिन-रात संघर्ष किया। अपना सबकुछ त्याग खुद को भारत माँ के लिए समर्पित कर दिया। यही वो साथी थे, जिन्होंने शहीद होने वाले क्रांतिकारियों को देश में उनका सही मुकाम दिलाया और आज़ादी की लौ को कभी नहीं बुझने दिया।
इस स्वतंत्रता दिवस पर हमारे साथ जानिए कुछ ऐसे ही नायक-नायिकाओं के बारे में, जो थे शहीद के साथी!



9 अगस्त 1925 को घटे काकोरी कांड ने अंग्रेजों की नींदें उड़ा दी थीं। इस एक घटना ने पूरे देश के लोगों का नजरिया क्रांतिकारियों के प्रति बदल दिया था। आम जनता को समझ में आया कि क्रांति की मशाल लेकर आगे बढ़ रहे भारत माँ के बेटे ही उनके लिए आज़ादी की कहानी लिखेंगे।

राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ और उनके साथियों ने काकोरी स्टेशन पर ट्रेन से ब्रिटिश सरकार के खजाने को लूटा। जिसके बाद, एक-एक करके सभी क्रांतिकारियों की धर-पकड़ शुरू हो गई। लगभग 40 लोग गिरफ्तार हुए।


काकोरी कांड के लिए इन क्रांतिकारियों पर मुकदमा शुरू हुआ। ब्रिटिश सरकार के पास सेना के साथ-साथ पैसे की भी ताकत थी और इसलिए उन्होंने बहुत से लोगों को क्रांतिकारियों के खिलाफ गवाही देने के लिए रिश्वत भी दी।उधर, बिस्मिल और उनके साथियों को मुकदमा लड़ने के लिए पैसे की ज़रूरत थी। पर अपने घर-बार को छोड़ देश की सेवा के लिए समर्पित क्रांतिकारी पैसा कहाँ से लाते? और तब उनकी मदद के लिए आगे आईं ‘सुशीला दीदी’!

पंजाब में जन्मीं सुशीला अपने कॉलेज की पढ़ाई के दौरान क्रांति से जुड़ गईं। उनकी माँ का निधन बचपन में ही हो गया था और पिता ब्रिटिश सरकार की नौकरी करते थे। अपने पिता के विरुद्ध जाकर उन्होंने बहुत बार क्रांतिकारियों का साथ दिया।बिस्मिल और उनके साथियों को मुकदमे के लिए जब पैसों की ज़रूरत पड़ी तब सुशीला दीदी ने अपना 10 तोला सोना दान कर दिया। यह सोना उनकी माँ ने उनकी शादी के लिए रखा था। पर अपने सुख से पहले सुशीला ने अपने क्रांतिकारी साथियों को रखा।

काकोरी कांड के फैसले में 4 क्रांतिकारियों को फांसी हुई और पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई, लेकिन सुशीला दीदी के कदम नहीं रुके। उन्होंने अपना पूरा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने भगत सिंह के मुकदमे के लिए भी चंदा इकट्ठा करके दिया था।क्रांति की लड़ाई में वह खुद भी जेल गईं लेकिन पीछे नहीं हटीं। आज़ाद भारत में सुशीला दीदी ने गुमनाम ज़िंदगी जी। वह दिल्ली में रहीं और कभी भी अपने बलिदानों के बदले सरकार से किसी भी तरह की मदद या इनाम की अपेक्षा नहीं रखी।

शहीद राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ की इस सच्ची साथी को शत शत नमन!

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