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दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रैजुएशन पूरी करने के बाद नेहा भाटिया ने लगभग 3 साल ग्रामीण क्षेत्र में काम किया। इस दौरान उनका संपर्क किसान परिवारों से काफी हुआ और उन्होंने देखा कि कैसे आज भी हमारे देश के किसान कर्ज से ऊबर नहीं पाते हैं। इसके बाद, वह मास्टर्स करने के लिए लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनोमिक्स गईं और वहां भी उन्होंने सामाजिक संगठनों के साथ काम जारी रखा। अफ्रीका के देशों में उन्होंने किसान परिवारों में वही समस्याएं देखीं जो भारत के किसान झेल रहे हैं।
नेहा ने द बेटर इंडिया को बताया, "कृषि क्षेत्र को मैं समझ रही थी। इसी बीच स्वस्थ भोजन को लेकर चर्चा होने लगी। मैंने महसूस किया कि लोगों को पौष्टिक खाना नहीं मिल रहा है। मेरे अपने करीबी जानने वालों में दो दोस्तों की मौत कैंसर से हुई। लंदन से लौटने के बाद मैंने इस सबके बारे में रिसर्च शुरू की और बहुत ही गंभीर बातें मेरे सामने आईं।"
नेहा ने जैविक और रसायन-युक्त के बीच का अंतर समझा। उन्हें पता चला कि कैसे कृषि क्षेत्र में हरित क्रांति के बाद परिवर्तन आया है और किसान पारंपरिक खेती से हटकर रसायनों पर निर्भर हो गए हैं।
इस रसायन युक्त खेती ने न सिर्फ हमारे खाने, बल्कि हमारे जल, जंगल और ज़मीन- सभी ज़रूरी संसाधनों की गुणवत्ता को गिरा दिया है। इस वजह से इंसान के अपने जीवन की गुणवत्ता खत्म होती जा रही है। नेहा की इस रिसर्च और काम के बीच उनकी शादी भी हो गई। उनके पति पुनीत त्यागी बतौर कंसल्टेंट काम कर रहे थे।
वह कहती हैं, "हमारे परिवार की ज़मीन नोएडा में है, जहां खेती होती है। उस जमीन को स्थानीय किसान को लीज पर दी गई थी। वहां से साल में अनाज आ जाता और उसके अलावा कोई उसके बारे में नहीं सोचता क्योंकि सभी जॉब करने वाले हैं। लेकिन जब भी मैं स्वस्थ खाने-पीने के बारे में बात करती तो हर बात खेती पर ही खत्म होती कि अच्छा उगेगा तभी तो अच्छा खायेंगे।"
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नेहा ने अपनी ज़मीन का दौरा करने की ठानी। वह वहां गईं, किसानों से मिलीं और उन्होंने तय कर लिया कि अब रिसर्च की जगह प्रैक्टिकल पर उन्हें ध्यान देना है। उन्होंने खुद खेती करने की ठानी। हालांकि, यह बिल्कुल भी आसान नहीं था लेकिन नेहा मन बना चुकी थी और उनके इस फैसले में पुनीत ने भी पूरा साथ दिया। लगभग 7 महीने उन्होंने अपनी ट्रेनिंग और कोर्स के लिए दिए। अलग-अलग राज्यों में जाकर जैविक खेती के एक्सपर्ट्स से सीखा और फिर पहुँच गईं नोएडा अपने खेत पर।
वह कहती हैं कि उनके सामने दो समस्याएं थी- पहली, लोगों को जैविक की समझ नहीं है, इसलिए उनकी इस बारे में जागरूकता ज़रूरी है। दूसरा, किसानों को समझाना कि वह क्या और क्यों उगा रहे हैं? उन्हें फिर से पारंपरिक खेती के तरीकों के साथ-साथ आज के मार्केटिंग तरीकों से जोड़ना।
"मैंने जब अपनी जमीन पर काम शुरू किया तो वहां की मिट्टी बहुत ही खराब हो चुकी थी, कोई सूक्ष्म जीव नहीं था। खेतों में पक्षी नहीं आते थे क्योंकि इतने सालों से रसायन का इस्तेमाल हो रहा था। मुझे समझ में आ गया कि मैं खेती को पार्ट टाइम नहीं कर सकती और इसमें पूरी तरह समर्पण चाहिए," उन्होंने कहा।
नेहा और पुनीत ने साल 2017 में 'प्रोडिगल फार्म' की नींव रखी। पुनीत उस समय अपनी जॉब कर रहे थे और नेहा पूरी तरह से खेती से जुड़ गईं। उन्होंने दो-तीन किसानों के साथ मिलकर अपने खेत की सभी गतिविधियाँ सम्भालना शुरू किया। अच्छा खाना उगाने के साथ-साथ उनका उद्देश्य इस खेत को सस्टेनेबल बनाना भी था, ताकि वे दूसरे किसानों को भी अपने साथ जोड़ पाएं। इसलिए उन्होंने इसे एक बिज़नेस मॉडल की तरह विकसित किया।
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उन्होंने खेत पर तीन चीजें शुरू की :
1. जैविक खेती और किसानों को ट्रेनिंग
2. ओपन फार्म- उनके ग्राहक कभी भी आकर उनके फार्म पर घूम सकते हैं और उनकी खेती का तरीका देख सकते हैं।
3. लर्निंग प्रोग्राम्स: स्कूल के बच्चों और परिवारों के लिए उन्होंने अपने खेत पर फार्म स्कूल शुरू किया है।
उन्होंने अपने खेत को 'फार्म टू टेबल' के सिद्धांत के साथ-साथ एग्रो-टूरिज्म से भी जोड़ा। जहां लोग खुद आकर ताज़ा सब्जियां खरीद सकते हैं और साथ ही, वह यहाँ पर अपने परिवार-दोस्तों के साथ ट्रिप भी बुक कर सकते हैं।
नेहा बताती हैं कि जब उन्होंने अपनी ज़मीन पर खेती शुरू की तो आस-पास के किसानों को लगता था कि यह उनका शौक है और दो-चार दिन में वह चली जाएंगी। इसके साथ-साथ उन्हें अपने जानने वालों से काफी कुछ सुनने को मिलता कि कौन लंदन से पढ़ाई करने के बाद खेती करता है। पर इन सब बातों को परे रखकर नेहा ने सिर्फ अपने उद्देश्य पर ध्यान दिया। सिर्फ 6 महीनों में ही उनकी मेहनत रंग लाने लगी।
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सबसे पहले जिस मिट्टी में कोई सूक्ष्म जीव नहीं बचे थे, वहां केंचुआ पनपने लगा। यह देखकर दूसरे किसानों को भी लगा कि नेहा जो कर रही हैं, शायद वही सही तरीका है। उनके खेत में काम करने वाले किसानों का भरोसा भी उन पर बनने लगा। नेहा ने सिर्फ किसी एक फसल या दो फसल पर ध्यान न देकर, लगभग 30-40 तरह की सब्ज़ियाँ, फल आदि लगाए। उन्होंने मिश्रित खेती और गाय आधारित खेती से शुरुआत की।
लगभग एक साल बाद, जब उनके खेत से उपज मिलने लगी तो उन्होंने अपने जान-पहचान वालों और रिश्तेदारों को बुलाया। सभी को उनके खेत पर बहुत मजा आया और सबसे बड़ी बात उन्होंने यहाँ की जैविक फल और सब्ज़ियाँ का स्वाद जाना। साथ में, जो बच्चे आए थे उन्हें बहुत मजा आया। उनके ढ़ेरों सवाल थे और हर सवाल का जवाब देने में नेहा और पुनीत को बहुत अच्छा लग रहा था। तब नेहा को लगा कि बच्चों को खेती से जोड़ना बहुत ज़रूरी है क्योंकि आने वाले कल को वही निर्धारित करेंगे।
अगर बचपन से ही बच्चे खेती और स्वस्थ खाने का महत्व समझेंगे तो उनका सही विकास होगा। इसके बाद, नेहा स्कूल और कॉलेज से जुड़ने लगीं। आज बहुत से स्कूल अपने बच्चों को वर्कशॉप और ट्रेनिंग के लिए उनके खेत पर भेजते हैं और बहुत सी जगह, वह खुद लेक्चर के लिए जाती हैं। उनके खेत पर बच्चे खुद बीज लगाते हैं फिर इसकी देखभाल करते हैं और खुद उपज लेते हैं। इस वजह से इन बच्चों के परिवारों को भी यहाँ आने का मौका मिलता है और कहीं न कहीं उन सबको एक प्रेरणा मिलती है खुद उगाकर खाने की या फिर कम से कम स्वस्थ और जैविक खाने की।
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खेती शुरू करने के लगभग एक साल बाद पुनीत ने भी अपनी जॉब छोड़कर पूरी तरह से खेत पर काम करना शुरू कर दिया। वह अपनी उपज लेकर शहर में लगने वाले आर्गेनिक मार्किट में जाते और वहां पर बिक्री करते। कुछ लोग उनसे सीधा खरीदते हैं। हालांकि, ये ग्राहक बनाना बिल्कुल भी आसान नहीं रहा।
"हमें ग्राहकों को हमारी उपज बेचने के लिए पहले उन्हें शिक्षित करना पड़ता है। आज हर मौसम में सबकुछ मिलता है लेकिन वह हेल्दी नहीं है यह उन्हें समझाना बहुत मुश्किल है। हम मौसम के हिसाब से फसलें उगाते हैं। फिर हमारी सब्जियों का आकर एकदम सही नहीं होता, कभी-कभी दाग-धब्बे हों तो बहुत से लोग उसकी शिकायत करते हैं। लेकिन हम उन्हें समझाते हैं कि यह जैविक है, प्राकृतिक रूप से उगा हुआ और प्रकृति से मिला है तो हम इसका आकर या रंग तय नहीं कर सकते," उन्होंने कहा।
नेहा और पुनीत की कोशिशें रंग ला रही हैं। आज उनसे जुड़े हुए बहुत से लोग उनसे और भी लोगों को जोड़ रहे हैं। उनके साथ काम करने वाला किसान परिवार, अब खुद इस बात पर गर्व करता है कि वे जैविक उगाते हैं। दूसरे किसान भी उनसे जुड़ रहे हैं। नोएडा में सफलता के बाद, उन्होंने मुज्जफरनगर के पास और उत्तराखंड में भीमताल के पास भी फार्म शुरू किए हैं। वहां भी उन्होंने अपने जानने वाले किसानों को ट्रेनिंग देकर यह मॉडल शुरू किया है। आज लगभग 25 किसान उनसे जुड़े हुए हैं और अच्छी आजीविका कमा रहे हैं।
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लॉकडाउन के दौरान लोगों ने उनके कांसेप्ट को और अच्छे से समझा। पहले वह ज़्यादातर आर्गेनिक बाज़ारों पर निर्भर थे लेकिन लॉकडाउन में बहुत से ग्राहक उनसे सीधे जुड़े। कोरोना ने लोगों को स्वस्थ खाने-पीने और प्रकृति के महत्व को समझाया है। इसलिए अब आगे उनसे सीधा जुड़कर फल-फूल और सब्ज़ियाँ खरीद रहे हैं।
नेहा के मुताबिक, अभी भी उनके रास्ते में बहुत सी चुनौतियाँ हैं, जिन्हें उन्हें पार करना है। लेकिन उन्हें ख़ुशी है कि वह धीरे-धीरे ही सही लेकिन लोगों के जीवन में बदलाव का करण बन रही हैं। किसानों से लेकर ग्राहकों तक, हर किसी की अपने तरीके से वे मदद कर रहे हैं। बहुत से छोटे किसान उनसे फोन करके मदद मांगते हैं और वे दोनों कभी उनकी मदद करने से पीछे नहीं हटते। उन्हें जैविक खेती के बारे में बताने से लेकर मार्केटिंग के थोड़े गुर सिखाने तक, हर संभव मदद की उनकी कोशिश है।
नेहा कहती हैं, "हम किसी को कुछ झूठ नहीं कहते। अगर किसी को लगता है कि उसे पहले साल में ही प्रॉफिट हो जाएगा तो ऐसा नहीं है। हमारे साथ अच्छा था कि हमारी अपनी ज़मीन है लेकिन फिर भी हमने बहुत छोटे स्तर पर यह शुरू किया। मैं सबको यही कहती हूँ कि छोटे स्तर से शुरू करें, अनुभव हासिल कर धीरे-धीरे आगे बढ़ें।"
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अंत में नेहा और पुनीत सिर्फ यही सन्देश देते हैं कि लोगों को रसायन मुक्त खाने के साथ-साथ उगाने के बारे में भी सोचना चाहिए। आप भले ही अपने घर में थोड़ा सा कुछ उगाएं लेकिन उगाकर देखें। आपको अच्छा लगेगा और समझ आएगा कि एक किसान कितनी मेहनत करता है अपने खेत पर लेकिन उसे उसकी मेहनत का सही दाम नहीं मिलता। आप अपनी ज़िंदगी में सकारात्मक बदलाव महसूस करेंगे और खुद को प्रकृति के करीब पाएंगे।
अगर आप नेहा और पुनीत से संपर्क करना चाहते हैं तो उनकी वेबसाइट पर क्लिक करें या फिर आप उन्हें फेसबुक पर मैसेज कर सकते हैं!
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